फड़फड़ाती गौरेया
फुदकती है मेरे आंगन में
दुनियां को बताने
कि 'जिन्दा' हूँ मैं!
खामोश मत रहो परिन्दांे!
चुप्पियां बोलती हैं
गहरे राज खोलती हैं
जब जंगल जल रहा हो
मंगल ढ़ल रहा हो
तुम चुप्पियां तोड़ो
और बड़बड़ाओ-
नासमझ समय के कानों में
समझ के खनकते गीत
उड़ते रहो परिन्दों!
जब तक सारा आकाश
तुम हासिल न कर सको
जमीन उसी की होती है
नासमझ परिन्दों
जिसका आकाश होता है
जिसका प्रकाश होता है
बिना थके थामे रहो
अपने हिस्से का आकाश
तुम जमीन पा लोगे
धरती प्यासी है परिन्दों
बेइन्तहा प्यासी है धरती
जाओ....
धरती की तड़प
बादलों को सुनाओ
बादल गरजेंगें तो
करूणा, प्रेम और परानुभूति के फूल बरखेंगें
धरती के आंगन में
खुशी और खुशबू की
बहुरंगी फसल उगेगी
और तुम जी भर चखोगे
निःस्वार्थ की डाल का
रसीला अमरफल...
हवा-पानी, बुग्याल-बादल
सब कुछ खतरे में हैं
नासमझ परिन्दों
समेट लो अपने हिस्से को
सारा हवा-पानी
वरना तुम्हें समेटने के लिए
सिमट रहा है समय....