विवेकानंद का राष्ट्रवाद


'राष्ट्रवाद केवल राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है। राष्ट्रवाद ईश्वर की इच्छा से उत्पन्न एक धर्म है। राष्ट्रवाद वह धर्म है जिसे आपको जीना है, अगर आप खुद को राष्ट्रवादी कहते हैं तो आपको यह भी याद रखना है कि आप अपनी मातृभूमि कि मुक्ति के लिए परमात्मा के उपकरण मात्र हैं, राष्ट्रवाद ईश्वर की शक्ति से संचालित होता है और इसे कुचलने के लिए चाहे लाख हथियार उठाये जाएँ, इसे समाप्त करना संभव नहीं है। राष्ट्रवाद अनश्वर है, यह मर नहीं सकता, क्योंकि यह मानवीय वस्तु नहीं है, राष्ट्रवाद ईश्वर है और ईश्वर को मारा नहीं जा सकता, ईश्वर को सलाखों के पीछे नहीं डाला जा सकता।' (श्री अरविन्द)
2001 की घटना के बाद अमेरिका  के रणनीति विशेषज्ञ सेम्युएल हेन्तिंग्टननंस  ने पिछले 25 -30 वर्षों की खोज के बाद कहा 'हम कौन हैं?' और इसके निष्कर्ष में बताया  'अमेरिका में भले ही विश्व के लगभग सभी समुदायों के लोग बसते हैं किन्तु अमेरिका की मौलिक पहचान श्वेत, आंग्ल-सैक्शन , प्रोतेस्तंत ही हैं। बाकी सभी समुदाय इसमें शामिल हैं'।  हाल ही में क्रिश्मस के अवसर पर ऑक्सफोर्ड में बोलते हुए ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने घोषणा की- 'ब्रिटेन एक ईसाई राष्ट्र है और इसे कहने में किसी को संकोच अथवा भय की आवश्यकता नहीं'।
'राष्ट्रीयता का आधार धर्म व संस्कृति होता है'  (स्वामी विवेकानंद)...स्वामी विवेकानंद का चिंतन 120 वर्ष बाद सत्य सिद्ध हो रहा है।   उन्होंने  कहा था 'राष्ट्रीयता का आधार धर्म व संस्कृति' ही होता है। उन्होंने हिन्दुत्व को भारत की राष्ट्रीय पहचान के रूप में प्रतिष्ठित किया। 17 सितम्बर 1893 को शिकागो में  धर्म सभा में उन्होंने भारत को हिन्दू राष्ट्र के  नाम से महिमा मंडित किया और स्वयं के  हिन्दु होने पर गर्व को विस्तार से विश्लेषित किया। उन्होंने बताया हिन्दू धर्म का प्रबंध  ही हिन्दुत्व की राष्ट्रीय परिभाषा है। इसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समझने पर हमें हमारे विशाल देश की बाहरी विविधता में अन्तर्निहित एकता के दर्शन होते हैं। सहस्त्राब्दियों से यह भारत वर्ष आर्यावर्त एक संघ  संस्कृतिक राष्ट्र रहा है। शिकागो से वापसी पर उन्होंने कहा कि  'केवल अंध देख नहीं पाते, और विक्षिप्त बुद्धि समझ नहीं पाते कि यह सोया देश अब जाग उठा है, अपने पूर्व गौरव को प्राप्त करने के लिए इसे अब कोई नहीं रोक सकता।' उन्होंने सभी हिन्दुओं को सब भेदों से ऊपर उठकर अपनी राष्ट्रीय पहचान पर गर्व करना सिखाया। एक बार लाहौर में उनके सम्मान में सनातनी, आर्यसमाजी तथा सिखों ने अलग-अलग सभाओं का आयोजन करना चाहा तो उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया और सबको एक ही मंच पर आह्वान किया। वहां उन्होंने हिन्दुत्व के सामान्य आधार पर अपना आख्यान दिया।  भारत वर्ष के सन्दर्भ में उन्होंने यथार्थ दर्शाते हुए कहा-'भारत भूमि पवित्र भूमि है, भारत मेरा तीर्थ है, भारत मेरा सर्वस्व है, भारत की पुण्यभूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारत वर्ष है जहाँ मानव, प्रकृति एवं अंतर्जगत की रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे।  उन्होंने कहा था चिंतन-मनन कर राष्ट्र चेतना जाग्रत करो लेकिन आध्यात्मिकता का आधार न छोडो। उनका स्पष्ट मत था कि पाश्चात्य जगत का अमृत हमारे लिए विष हो सकता है। युवाओं का आह्वान करते हुए स्वामी जी कहा करते थे  'भारत के राष्ट्रीय आदर्श, सेवा व त्याग हैं, नैतिकता, तेजस्विता, कर्मण्यता का अभाव न हो,  उपनिषद ज्ञान के भंडार हैं, उनमंे अद्भुत ज्ञान शक्ति है, उसका अनुसरण कर अपनी निज पहचान व राष्ट्र का अभिमान स्थापित करो।' 
1896 कि विदेश यात्रा के बाद विवेकानंद  ने पूरे देश का दौरा किया। उन्होंने कहा़-'एक शताब्दी के ब्रिटिश शासन ने जो आघात किया है उतना अब तक के कोई आक्रान्ता नहीं कर पाए, भारत के मन को तोड़ने का कार्य ब्रिटिश लेखकों, शिक्षाविदों  ने सफलता पूर्वक  किया।' उन्होंने पूछा 'यह कौन सी शिक्षा है जो आपको पहला पाठ पढ़ाती  है कि आपके माता-पिता व पूर्वज मूर्ख हैं और आपके आराध्य देवी-देवता शैतान ? आज से ५० वर्ष पूर्व जिस देश के युवाओं कि आँखों में भय अथवा संकोच नहीं था, आज उस देश के युवा निस्तेज क्यूँ हैं? स्वामी जी ने इस पीड़ा को अनुभव किया और कन्याकुमारी में देश के युवाओं का सिंहत्व जगाने का चुनौती पूर्ण संकल्प लिया। स्वामी विवेकानंद ने बार -बार कहा कि 'भारत के पतन का कारण    धर्म नहीं है अपितु धर्म के मार्ग से दूर जाने के कारण ही भारत का पतन हुआ है। जब- जब हम धर्म को भूल गए तभी हमारा पतन हुआ है और धर्म के जागरण से ही हम पुनः नवोत्थान की और बढे हैं। स्वामी जी ने धर्मग्लानी के तीन कारणों को प्रमुखता से चिन्हित किया-
'जन सामान्य का अनादर/'नारी शक्ति का अपमान/'शुभ कार्य में रत लोगों में आपसी ईष्र्या। उन्होंने जोर देकर कहा कि उपरोक्त तीन समस्याओं का निदान ही भारत के उठान का एक मात्र उपाय है। स्वामी जी की प्रेरणा से तीनों समस्याओं के निराकरण के लिए अनेक अभियान चलाये गए और बड़ी मात्र में जागृति भी हुई। विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' भी स्वामी विवेकानंद जी कि प्रेरणा से ही बना जो आज सम्पूर्ण विश्व में निःस्वार्थ  भाव से सेवा कर रहा है। स्वामी जी ने स्पष्ट किया कि जब तक भारत में धर्म प्रतिष्ठित नहीं होता  तब तक सारे प्रयास अधूरे हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय होने का क्या अर्थ है, इसे समझें और इसे समझने के लिए अपने पूर्वजों के धर्म एवं संस्कृति के आधार पर राष्ट्रीयता  को जाने। स्वामी जी का मानना था कि मात्र भूमि कि सेवा के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती है। उनके विचारों के प्रति भगिनी निवेदिता ने कहा-'विवेकानंद के विचारों का संगीत शास्त्र, गुरु और मात्रभूमि-इन तीन स्वर लहरियों से निर्मित  हुआ है। इन्हीं से उनको ये उपकरण मिले जिनसे विश्व विकार को दूर करने वाले आध्यात्मिक वरदान की विशल्यकरनी उन्होंने प्रस्तुत की। हम उनके इन्हीं प्रखर विचारों के लिए उनको जन्म देने वाली पुण्य भूमि को, तथा जिन अदृश्य शक्तियों ने उन्हें विश्व में भेजा, उनको धन्य कहते हैं और स्वीकार करते हैं कि उनके महान सन्देश की व्यापकता और सार्थकता का मर्म जानने में हम अभी तक असमर्थ रहे हैं।   
नरेंद्र नाथ से विवेकानंद का सफर-मात्र ३० वर्ष की आयु में विश्व धर्म सभा में भारतीय ज्ञान एवं गौरव का ध्वज फहराने वाले स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था। इनके बचपन का नाम वीरेश्वर था और इनकी माता जी इन्हें 'विले' कहकर पुकारती थी तथा इनके पिता द्वारा इनका नाम नरेंदर नाथ रखा गया था। इनके पिता श्री विश्वनाथ, कलकत्ता उच्च न्यायालय के प्रसिद्ध वकील थे तथा माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी एक धार्मिक महिला थी।  बचपन में कुशाग्र बुद्धि व नटखट नरेंद्र का सपना एक ऐसे राष्ट्र निर्माण का था जिसमे जाति, धर्म  के आधार पर भेदभाव न रहे। समता के सिद्धांत का जो आधार विवेकानंद ने प्रस्तुत किया था, उससे सबल बौद्धिक आधार आज भी प्राप्त नहीं होता। नरेंद्र नाथ के मन में गुरु के प्रति अत्यंत निष्ठां एवं भक्ति थी।  25  वर्ष की आयु में नरेंद्र ने गेरुवे वस्त्र धारण कर सम्पूर्ण  भारत वर्ष की पैदल यात्रा की। अब नरेंद्र नाथ अपने गुरु के आदेश से विवेकानंद  बन चुके थे। 1893 में शिकागो में विश्व धर्म संसद का आयोजन किया गया। शिकागो के प्रथम गिरिजाघर के वरिष्ठ पादरी जान हेनरी बेरोज (रंनद ीमदंतल इमतवर) के नेतृत्व में इसका आयोजन किया गया था जिसका मूल उद्देश्य कहीं न कहीं ईसाई धर्म को श्रेष्ठ बताना ही था। बाद में स्वामी जी ने अपने पत्र में लिखा- 'ईसाई धर्म का अन्य सभी धार्मिक विश्वासों के ऊपर वर्चस्व साबित करने हेतु विश्व धर्म महासभा का संगठन किया गया था'। अपने एक साक्षात्कार में भी स्वामी जी ने कहा-'मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह विश्व धर्म महासभा  जगत के समक्ष अक्रिस्तियों का मजाक उड़ाने हेतु आयोजित कि गई है'   यद्यपि इस आयोजन कि कल्पना श्री चार्ल्स कराल बोनी (बींतसे  ांतंस  इंनदप) जो एक सुविख्यात वकील व अंतरराष्ट्रीय कानून एवं आदेश लीग के अध्यक्ष पद पर सुशोभित थे, ने 1889 में की थी। जिस समय शिकागो में 1893 में धर्म सम्मलेन हुआ, उस समय पाश्चात्य जगत भारत को हीन दृष्टि से देखता था। वहां के लोगों ने बहुत प्रयास किया कि विवेकानंद को सर्व धर्म परिषद् में बोलने का समय ही ना मिले, मगर एक अमेरिकी प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोडा समय मिला। उनके विचारों ने अमेरिका में तहलका मचा दिया। वहाँ के मिडिया ने उन्हें   'साइक्लोनिक हिन्दू' का नाम दिया। अध्यात्म विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा' कहकर स्वामी जी ने पुनः भारत को विश्व गुरु पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।  गुरुदेव रविंदर नाथ टैगोर के अनुसार-
'यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए, उसमें सब कुछ सकारात्मक पायेंगे, नकारात्मक नहीं'।  रोमा रोलां ने कहा था-'उनके द्वितीय होने कि कल्पना करना भी असंभव है, वे जहाँ भी गए सर्वप्रथम  हुए, हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता है। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमाचल प्रदेश में एक बार एक अनजान व्यक्ति उन्हें देख कर ठिठक गया और आश्चर्य पूर्वक चिल्ला उठा-'शिव!'  यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो। स्वामी विवेकानंद केवल एक संत ही नहीं थे, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक व मानवता प्रेमी भी थे। स्वतंत्रता आन्दोलन में उन्होंने देशवासियों का आह्वान किया कि नए भारत के निर्माण के लिए मोची की दुकान, भड़भूजे के भाड़, कारखाने से, हाट से, बाजार से, निकल पड़ो, खेत से खलियान से, झाड़ियों और जंगलों से, पहाड़ों और पर्वतों से, तब ही नव भारत का निर्माण होगा। परिणाम स्वरुप जनता निकल पड़ी। आजादी की लड़ाई में गाँधी जी को जो जन समर्थन मिला था, यह उसी आह्वान का प्रतिफल था।  
महात्मा गाँधी ने कहा था-मैंने स्वामी जी के ग्रन्थ बड़े ही मनोयोग से पढ़े हैं और इसके फलस्वरूप देश के प्रति मेरा प्रेम हजारों गुना बढ़ गया है। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने अपने विचारों में कहा-स्वामी विवेकानंद का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजना देने वाला धर्म था। स्वामी जी ने स्पष्ट रूप से राजनीति का एक भी सन्देश नहीं दिया था, पर जो कोई भी उनकी रचनाओं के संपर्क में आया, उसमंे अपने आप ही देशभक्ति और राजनैतिक मानसिकता उत्पन्न हो गई। 
पंडित जवाहर लाल नेहरु के अनुसार-पता नहीं आज की युवा पीढ़ी में से कितने लोग स्वामी विवेकानंद के लेख व्याख्यान पढ़ते हैं पर मेरी पीढ़ी के बहुत से नवयुवक उनसे अत्यधिक प्रभावित हुए थे। मेरा विचार है कि वर्तमान पीढ़ी भी अगर स्वामी जी कि रचनाओं का अनुशीलन करे तो उसका बड़ा ही कल्याण होगा'। महाकवि दिनकर ने स्वामी जी के लिए कहा था-विवेकानंद वह सेतु हैं जिस पर प्राचीन और नवीन भारत परस्पर आलिंगन करते हैं, विवेकानंद वह समुद्र हैं जिसमे धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता तथा उपनिषद और विज्ञान, सबके सब समाहित होते हैं'। उनका कहना था 'उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ! अपने मानव जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।  4 जुलाई 1902  को उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद कि व्याख्या की और कहा-एक और विवेकानंद चाहिए, यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है' शायद उन्हें अपनी मृत्यु का पूर्वाभास  हो गया था। उसी दिन बेलूर के रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानावस्था में ही प्राण त्याग दिये।