इतिहास की दृष्टि से भारतीय उपमहाद्वीप की पहचान विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक 'हड़प्पा सभ्यता' के लिए है। कुछ लोग इसे 'सिंधु सभ्यता' भी कहते हैं। इस सभ्यता क्षेत्र में सबसे पहला खोजा गया स्थान पंजाब क्षेत्र का 'हड़प्पा' है, जिसके नाम पर ही इसे 'हड़प्पा सभ्यता' कहा गया। यह स्थान यूँ तो भारत का ही स्थान था किंतु 1947 में स्वतंत्रता के समय हुए विभाजन के कारण वर्तमान पाकिस्तान के अंतर्गत चला गया।
सबसे पहले सातवीं शताब्दी में मकान बनाते समय कुछ लोगों को हड़प्पा के टीलों में ईटें मिली, लेकिन तब उसे ईश्वर का चमत्कार समझा गया। एक अंग्रेज सर्वेक्षक 'चार्ल्स मैसन' ने भी 1826 में अपनी यात्रा के समय इन टीलों को देखा। 1942 में प्रकाशित अपने लेख 'नैरिटिव ऑफ जर्नी' में इनका उल्लेख करते हुए इन्हें किसी पुराने राज महल का अवशेष बताया। 1831 में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह से मिलने जाते समय अंग्रेज 'कर्नल अलेक्जेंडर बर्न्स' ने भी इन टीलों को देखा और अनुमान लगाया कि यह किसी पुराने किले के अवशेष हैं। 1853 में कराची से लाहौर के मध्य रेल लाइन के निर्माण के दौरान वहाँ कार्यरत बर्टन बंधुओं, जिनके नाम जेम्स बर्टन व विलियम बर्टन थे, ने तत्कालीन अँग्रेज सरकार को सूचित किया कि इन टीलों में किसी प्राचीन सभ्यता के अवशेष हैं। अंततः अंग्रेज अधिकारी अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1856 में इस स्थान का सर्वे किया और किसी प्राचीन सभ्यता के अवशेष होने की पुष्टि की। कनिंघम की रिपोर्ट के बाद ब्रिटिश सरकार ने 1861 में भारतीय पुरातत्व विभाग की स्थापना की और कनिंघम को उसका पहला महानिदेशक बनाया गया।
1921 में भारतीय पुरातत्व विभाग के तत्कालीन महानिदेशक सर जॉन मार्शल के निर्देशन में दयाराम साहनी के नेतृत्व में हड़प्पा का उत्खनन हुआ। 1922 में सिंध प्रांत के एक दूसरे महत्वपूर्ण स्थान, जो हड़प्पा से भी आकार में बड़ा था, 'मोहनजोदड़ो' का उत्खनन राखाल दास बनर्जी के नेतृत्व में हुआ। भारतीय प्राचीन सभ्यता के प्रकाश में आने से पहले मिस्र, जिसे इजिप्ट भी कहा जाता है, की सभ्यता को विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता माना जाता था, जो लगभग 4000 ई.पू. की मानी जाती है। भारत में 2014 में खोजा गया स्थल हरियाणा का 'भिरड़ाना' विश्व भर में किसी भी प्राचीन सभ्यता सबसे प्राचीन नगर है, जो लगभग 7500 ई.पू. का है। 1963 में खोजा गया हरियाणा का ही 'राखीगढ़ी' भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा स्थल है। 1954 में गुजरात में खोजा गया 'लोथल' खंभात की खाड़ी के मुहाने पर स्थित विश्व का प्राचीनतम बंदरगाह माना गया है। अफगानिस्तान में शार्तुगोयी, राजस्थान में कालीबंगा, हरियाणा में ही बनवाली, उत्तर प्रदेश में आलमगीरपुर, गुजरात में सुरकोटदा व धौलावीरा, महाराष्ट्र में दायमाबाद एवं जम्मू कश्मीर में मांडा प्रमुख हैं। 1921 से अब तक लगभग 100 वर्ष में भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग 1500 प्राचीनतम सभ्यता स्थल खोजे जा चुके हैं, जिनमें सिंधु नदी घाटी में 50 से भी कम स्थान हैं, जबकि वेदों में वर्णित सरस्वती नदी, जिसके अवशेष अभी हाल में उपग्रह द्वारा खोजे गए हैं, के क्षेत्र में 1000 से भी अधिक स्थल खोजे जा चुके हैं। यहां ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि वैदिक काल से लेकर महाभारत काल में सरस्वती नदी जल से परिपूर्ण नदी थी। कृष्ण के बड़े भाई बलराम ने उस समय महाभारत के युद्ध में भाग न लेकर द्वारिका से कुरुक्षेत्र तक सरस्वती क्षेत्र में स्थित विभिन्न तीर्थ स्थलों की यात्रा की थी। संयोग है कि उपग्रह द्वारा खोजा गया यह सरस्वती नदी क्षेत्र व भारतीय प्राचीन सभ्यता के स्थल कुरुक्षेत्र व द्वारका के मध्य स्थित क्षेत्र में ही मिलते हैं अतः इस सभ्यता को 'सिंधु-सरस्वती नदी घाटी सभ्यता' नाम देना अधिक उचित होगा।
सिंधु सरस्वती नदी घाटी सभ्यता की विशेषता इन सभी लगभग 1500 स्थलों पर प्राप्त वस्तुओं व स्थल योजना की समानता है। इनमें प्राय 4:2:1 के अनुपात की कच्ची व पक्की ईंटों का प्रयोग किया गया है। इनमें एक ओर पक्के मार्गों व गलियों का जाल है, जो प्राय समकोण पर एक दूसरे को काटती हैं, अर्थात चौराहे बनाती हैं; तो साथ ही पानी की निकासी के लिए नालियों की व्यवस्था भी है। यह नालियां भी ईटों अथवा पत्थरों से ढकी पाई गई हैं। लगभग प्रत्येक नगर योजना में दो भाग पाए गए हैं, एक छोटा भाग, जो ऊँचाई पर दुर्ग की तरह बना होता था, जिसे ऊँचा करने के लिए कच्ची ईंटों से चबूतरा बनाया जाता था। इस भाग में भंडारगृह जैसे बड़े-बड़े कक्ष पाए जाते हैं। वही दूसरा बड़ा भाग जहां अपेक्षाकृत छोटे आवासीय मकान बने रहते थे। इन स्थलों पर कहीं-कहीं विशाल स्नानागार अर्थात कुंड जैसी संरचना भी मिली है।
सिंधु घाटी क्षेत्र में प्राप्त मुद्राओं अभिलेखों की संख्या 3000 से भी अधिक है जिन पर लगभग 600 से भी अधिक चिह्न बने हैं। अभी तक यह चिह्न पढ़े नहीं जा सके हैं। यह विश्व की प्राचीनतम लिपि है। यह लिपि सेलखड़ी जिसे अंग्रेजी में टेराकोटा भी कहते हैं, की आयताकार मोहरों ताँबे की गुटिकाओं आदि पर मिलते हैं। अधिकांश मुहरों पर 1 से लेकर 6 तक चिह्न हैं।सबसे बड़े एक अभिलेख में कुल 17 चिह्न हैं।
कुछ इतिहासकार इस सभ्यता को भारत के मूल निवासियों की सभ्यता बताकर इसे बाहर से आए विदेशियों द्वारा समाप्त बताते रहे हैं, और वैदिक सभ्यता को इसके बाद विकसित सभ्यता के रूप में कहते हैं। किंतु वेदों, रामायण एवं महाभारत में सरस्वती नदी के वर्णन के साथ सरस्वती नदी होने की जनश्रुति व वर्तमान में उसके संभावित जलमार्ग को खोजे जाने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण नदियों के लुप्तीकरण व मार्ग परिवर्तन ने इसके स्थलों को उजाड़ दिया। हड़प्पा में स्वास्तिक व चक्र के चिह्न, मोहनजोदड़ो में पशुपतिनाथ की मूर्ति, चन्हूदड़ो में चार पहियों वाले रथ की आकृति, कालीबंगा में यज्ञकुंड, लोथल में धान व बाजरा, सुरकोटड़ा में घोड़े की अस्थियां, बनवाली में हल की आकृति के खिलौने व ताँबे के बाणाग्र मिलना यह करता है कि यह सिंधु सरस्वती नदी घाटी सभ्यता, वैदिक संस्कृति का ही एक भाग है उससे अलग नहीं।
(राष्ट्रीय संयोजक
'राष्ट्रवादी लेखक संघ')