विश्व के किसी भी देश का प्राचीन इतिहास जानने के लिए वहॉ प्राप्त अभिलेख सबसे विश्वनीय और है महत्वपूर्ण दस्तावेज जैसे होते हैं। इस दृष्टि से हमारा देश विश्व के सबसे धनी देशों में से एक है। हमारे देश के प्राचीन उत्कीर्ण लेख विभिन्न प्रकार के हैं और विभिन्न स्थलों पर जिस प्रकार प्राप्त हुए हैं उनसे उन्हें समझने की सुविधा की दृष्टि से इन्हें चार भागों में रखा गया है। जैसे शिलालेख, स्तम्भ लेख, गुफा लेख, ताम्रपत्र के लेख आदि आदि। ये लेख पूरे देश में हजारों की संख्या में अब तक प्राप्त हो चुके हैं और पृथ्वी के गर्भ में अभी और न जाने कितने छुपे हुए हैं।
अभी तक प्राप्त अभिलेखों में सम्राट अशोक के अभिलेख हमारी प्राचीन सभ्यता संस्कृति के सुनहरे दस्तावेज हैं। ये राष्ट्र की ऐसी अमूल्य निधी है जिनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। सम्राट अशोक ने अपने सम्पूर्ण शासन काल में शिलाओं और स्तम्भों पर लेख गुदवाये अथवा लिखवाये थे। ये लेख राजाओं की आज्ञाओं और शासन की ओर से जारी वक्तव्य के रूप में जाने जाते हैं। ये अभिलेख भारत के महान सम्राट अशोक के जीवन के बारे में, उसके धर्म के प्रति विचार धाराओं के बारे में तथा तत्कालीन भारतवर्ष के स्वर्णिम इतिहास को जानने में हमारी ही नहीं सारे विश्व की सहायता करते हैं। अशोक के शिलालेख देखा जाए तो वास्तव में मौर्य काल का ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। सच तो यह है कि अशोक के सम्बंध में जानकारी प्राप्त करने का सबसे महत्वपूर्ण आधार देश भर में पाये जाने वाले उसके विभिन्न अभिलेख ही हैं।
अशोक ने अपने धर्म प्रचार, अपने अपने उददेश्य अपने सिद्धांत के प्रचार प्रसार तथा जनहित के लिए किए गए कार्यों को शिलालेखों व स्तम्भों पर अंकित करवाया ताकि उसके विशाल साम्राज्य की जनता उसके शासन प्रशासन के क्रिया कलापों से अवगत होती रहे तथा शताब्दियों बाद विश्व उसके महान साम्राज्य के बारे में अनभिज्ञ न रहे। अशोक द्वारा खुदवाए गए अनेक शिलालेखों में से अब तक चौदह शिलालेख प्राप्त हो चुके हैं। ऐसा विश्वास है अभी अनेक शिलालेख मानव खोजों से परे हैं।
प्राप्त हुए चौदह शिलालेखों में से एक विशाल शिलालेख प्राप्त हुआ था देहरादून से सत्तावन किलोमीटर दूर कालसी नामक स्थान के समीप। सन 1860 ई.में (1820 ए.डी.) में फॉरेस्ट के कर्मचारियों को सर्व प्रथम इसका पता चला, तब यह चारों ओर से मिटटी से दबी हुई चटटान मात्र दिखाई पड़ रही थी। इसके ही नहीं वरन कालसी के आसपास चारों ओर तब भयंकर घना जंगल था, जिसमें खूंखार जंगली जानवर विचरण किया करते थे। वैसे तो अशोक के शिलालेख हिमालय से लेकर काठियावाड, मैसूर, उड़ीसा, तक प्राप्त हुए हैं। अशोक के राजतिलक के चौदहवें वर्ष और ईसा से 250 वर्द्गा पूर्व कालसी के शिलालेख में अंकित है। इन अभिलेखों से अशोक के बारे में ज्ञात होता है कि उसके साम्राज्य की सीमाएं कितनी विस्तृत थीं, क्योंकि एकांत में, सुनसान इलाकों, तीर्थ स्थानों या उनके पथ के समीप ये शिलालेख पाए गए हैं। जिस समय कालसी में ये शिलालेख प्राप्त हुआ उस समय यह पूरी तरह मिटटी से ढका हुआ था। सफाई के बाद स्थापत्य कला की इस बेजोड़ वस्तु को देख सभी चकित रह गए थे।
प्रारम्भ में स्थानीय निवासियों ने इस शिलालेख में हाथी का चित्र खुदा देखकर इसे ''चित्तर शिला'' के नाम से पुकारा जो आज भी बोलचाल की भाषा में यहॉं प्रचलित है। हाथी के चित्र के नीचे ''गजतमें'' अर्थात गजाधीश लिखा हुआ है। इस शिलालेख के लेख का अधिकांश भाग प्रस्तर के दक्षिण के कक्ष में मिलता है। सम्पूर्ण लेख के लिए स्थान कम पड़ा होगा तब शिला के पश्चिम कक्ष में लेख पूरा किया गया। इस शिला में ब्राम्हिलिपि का प्रयोग किया गया है। जो इसकी प्राकृत भाषा का ही रूप है, जो संस्कृत, पाली साहित्यिक ग्रंथों की भाषा से सामंजस्य रखती है। अधिकांश शब्द जो कहीं नहीं दिखाई पड़ते हैं इस और इन जैसे शिलालेखों में देखने को मिलते हैं। ब्राम्हिलिपि बाएं से दाएं चलती है जो दूसरी अन्य लिपियों की जन्मदात्री है।
इस शिलालेख में राजा का नाम कहीं नहीं मिलता परन्तु उपनामों द्वारा राजा का जिक्र होता था। (देवाणप्रिये प्रियदर्शी लाजा ''रा'' के स्थान पर ''ला'' का प्रयोग इस लिपि में होता रहा है।) ऐसे शिलालेखों को अशोक ने ही लिखवाया, इसका प्रमाण मस्की के शिलालेख में प्राप्त होता है। जिसमें अशोक को 'देवाणप्रिय असोक' कहा गया है। अशोक के शीलालेखों में उसके आदेशों का निम्न प्रकार वर्णन मिलता है :- जीव हत्या, बलि प्रथा पर निषेध, चिकित्सा उपचार की व्यवस्था के आदेश, जड़ी बूटी उपजाने, कुएं खुदवाने, पेड़ लगवाने के आदेश, अधिकारियों को हर पॉच वर्ष बाद धर्म प्रचार पर जाने के आदेश, नैतिक मूल्यों का प्रचार, देश के पुनःनिर्माण के आदेश, धर्म महात्माओं की नियुक्ति का आदेश, जनहित में कार्य करने के आदेश, विषय भोग, विनोद पर प्रतिबंध के आदेश, अहिंसक और पवित्र कार्यों को प्रोत्साहन, धार्मिक प्रचार, विचारों की विवेचना के आदेश, सांसारिक यश वैभव का विरोध कर धर्म प्रचार, यश की महत्ता पर जोर, धर्म प्रचार को ही धर्मदान मानना, सहिशुंता की शिक्षा आदि के आदेश।
शिलालेखों में अंतियोकस, तुरमय, अन्तेकिन, मक और अलिकसुंदर- ये पॉंच नाम भारत के पश्चिमी पॉच राज्यों के नाम है जो वारुण भारत के पॉच गणराज्य नाम से प्राचीन काल से अयोघ्या के राजा सगर के भी पूर्वकाल से प्रसिद्ध रहे हैं जो ययाति के पुत्रों के अधीन थे। इनके शुद्ध नाम हैं:-
1. ''अनियोकस नाम योन राजा'' का शुद्ध रूप है - अनओकस्य नाम के पवन राज्ये। अर्थात भरत की सीमा के अंत में ओक (स्थान) जिसका अंत में ओक (स्थान) जिसका अंतओकस नाम है (अन्ते पश्चिम सीमान्ते ओकःस्थानं यस्य स अन्तओकः तस्य अन्तओकस्य)। योनराज का शुद्ध रूप है यवनराज्ये।
2. ''तुरमये'' का शुद्ध रूप है तुरमये। तूर पर्वत सीमापवर्ती मय राज्य जो पुराण प्रसिद्ध त्रिपुर राज्यों में से एक था।(महाभारत इन्द्रपर्व)।
3.'''अंतेकिने''- इसका शुद्ध रूप है अन्त किन्नरे (अन्त्ये पश्चिम किन्नरे किन्न राज्ये)।
4. ''मक''- इसका शिलालेख मे 'मग' रूप भी है। यह शक राज्य के अर्थ में आया है (मके द्राके राज्ये)।
5.''अलिक सुंदरे''- इसका शुद्ध रूप ''अलीक सिन्धुरे'' है (अलीकाः कृष्णवर्णः सिन्धुरा हस्तिनो यस्मिन देशे स अलीक सिन्धुरस्तास्मिन अलीकसिन्धुरे राज्ये) जिसका अर्थ है- काले हाथियों का देश। जिनके नाम पश्चिम भारत में हस्तिग्राम (गजह्य) हस्तिनापुर (प्रथम) आदि प्रसिद्ध हैं। अगर देहरादून के कालसी के तेरहवें प्रज्ञापन का पाठ ''अलिक्यपदुले'' को माने तो उसका शुद्ध रूप ''अलेखयसुन्दरे'' होगा अर्थात जिस देश की सुन्दरता लिखी ही नहीं जा सकती वह गढ़वाल का जौनसार बावर जहॉ लाखामण्डल है। इसलिए समस्त गढ़वाल देव भूमि है।
1- इन पॉच राज्यों को पश्चात विद्धानों ने (बहुत से नाम होने के कारण मैं उन्हें यहॉ लिख नहीं पा रहा हूॅ ) विभिन्न राजाओं के नाम इस प्रकार दिए हैं-
2- अनियोकस( एंटिओकस थियोस)- सीरिया वैक्टीरिया आदि पヤचिमी एशिया के देशों का यूनानी राजा।
3- तुरमये (टालेमी फिलाडेलफस)- मिश्र का राजा।
4- अन्तिकिने (एंटीगोनस गोनटस)- मैसिडोनिया का राजा।
5- मक (मगस) -सीरीनी राजा।
अलिकसुन्दरे (एलेकजेन्डर)- एपिरस का राजा।
चौदहवें लेख में पूर्व कथन का सारांश है जिससे यह ज्ञात होता है कि समस्त लेख एक राजपत्र के आधार पर सम्राट के आदेशानुसार खुदवाये गये।
ऐतिहासिक दृष्टि से इस शिलालेख से अशोक के साम्राज्य के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। उसके धार्मिक विचारों, शासन व्यवस्था, उसके चरित्र आदि उसकी उदारता, उसके जनसेवक होने की जानकारी प्राप्त होती है। कालसी स्थित शिलालेख स्थापत्य कला एवं प्राचीन व ऐतिहासिक दृष्टि से अमूल्य निधि है। इसी कारण वर्षों पूर्व पुरातत्व विभाग ने इसे अपने संरक्षण में ले लिया था और एक छोटा सा गुम्बद व मेहराबदार भवन बनाकर इसे सुरक्षित कर लिया था। खुदाई के समय शिलालेख के पास ही ब्रम्हा विष्णु महेश की तीन फुट ऊॅची पॉच फुट लम्बी पत्थर पर तराशी गयी मूर्ति भी प्राप्त हुई। अनुमान है कि किसी प्राचीन मंदिर के प्रवेश द्वार के स्तम्भों के ऊपर इसे रखा जाता रहा होगा। हजारों वर्षों पूर्व की ये मूर्तियॉं तत्कालीन शिल्पकला की समृद्धि का अनूठा उदाहरण हैं।
अशोक के शिलालेख की सुन्दरता देखने योग्य है। कांसे की तरह चमकती शिला बरबस पर्यटकों का ध्यान आकर्षित करती है। शिला पर खुदा हाथी का चिन्ह, चित्रकला और बनाने वाले हाथों की कुशलता को व्यक्त करता है। निःसंदेह कालसी में प्राप्त शिलालेख ने कालसी को देश के ही नहीं विश्व के शिलालेख और स्थापत्य कला के संसार में गौरवपूर्ण स्थान दिलाया है।
(कालसी शिलालेख पर आधारित).
स. स. 3280/2016