बुलाएंगे एक बार फिर चिनार के दरख़्त


पांच अगस्त 2019 को स्वाधीन भारत के  इतिहास में एक और क्रांति घटित हो गई। इस देश को और हमारे कश्मीरी भाई बहिनों को भारतीय संविधान में अपार असहमति के बावजूद जोड़े गए अनुछेद 370 से सदा सदा के लिए मुक्ति मिल गयी। इस लेखक ने दो साल पहले हलंत में एक आलेख लिखा था। 'वक्त रहते कश्मीर बचा लीजिये' ;2017द्ध जिसमे कश्मीर के समकालीन विद्रूपों की चर्चा की गयी थी। तब मुझे भी इसका आभास नहीं था कि वास्तव में कश्मीर पर इतना बड़ा फैसला इतनी जल्दी हो जायेगा। सचमुच! ईश्वर अभी भी अपनी ही सीट पर बैठा हुआ है और सब कुछ देख ही नहीं रहा बल्कि निर्धारित और नियंत्रित भी कर रहा है। 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर में सिर्फ धारा 370 और 35 ए ही नहीं हटा बल्कि उसके साथ आम कश्मीरी के साथ होने वाले झूठ फरेब, दोगलेपन, राजनैतिक चालबाजियों, मक्कारियों और स्वार्थों की भी हत्या हो गयी है। नफरत और अलगाव की सैकड़ों दुकानें बंद हो गई हैं। आगजनी और पत्थरबाजी के कारखाने ठप हो गए हैं। पाकिस्तानपरस्तों की आर्थिक और वैचारिक कमर तोड़ दी गई है। जन्नत के जहन्नुम में बदलने के जतन धरे के धरे रह गए हैं। मुझे भरोसा है कि अगर सरकार एक दशक और देर करती तो शायद कश्मीर पूरी तरह जेहादी और इस्लामिक मुल्क बन जाता और पाकिस्तान से ज्यादा बड़ा नासूर सि( होता। ये एक मजबूत नेता की मजबूत सरकार का निर्णायक फैसला है जिसके परिणाम सकारात्मक और दूरगामी होंगे। सरकार और विशेष रूप में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने एक लाजवाब रणनीति के तहत इस रक्तहीन क्रांति को जन्म दिया और देश दुनियां में फैले अपने राजनैतिक विरोधियों को भौचक्का कर दिया। ऐसा इसलिए भी लगता है क्योंकि चंद दिनों पहले ही महबूबा मुफ्ती श्रीनगर में दहाड़कर बोल रही थीं कि 35 ए को हाथ लगाना बारूद को हाथ लगाने जैसा होगा जो जलाकर खाक कर देगा। सुकून की बात है कि बारूद और बम जितना धमाका होना तो दूर, पटाखे जितना शोर भी नहीं हुआ। कश्मीर के लिए यह किसी स्वर्णिम सुबह से कम नहीं है। भूकंप, बाढ़ या सुनामी उस अर्थ में त्रासदी नहीं होता जिस अर्थ में इंसानी और सियासी नासमझियों के कारण किसी कौम की जिंदगी तबाह होना होता है। सोचिये 565 रजवाड़ों में सिर्फ कश्मीर बहुत पीछे छूट गया है और एक पूरी आबादी खौफ और खामोशी की धमकियों के बीच बूढ़ी हो गयी है। अनुच्छेद 370 से भारत के भीतर ही एक नया देश तैयार कर दिया जिसका हमारे साथ कोई भावनात्मक, आर्थिक और सामाजिक रिश्ता नहीं रहा। कश्मीर घूमने वाले हर भारतीय से जब कोई कश्मीरी भाई पूछता कि 'क्या आप भारत से आये हैं?' तो यह बात किसी तमाचे से कम नहीं लगती थी...भारत में जितनी धार्मिक, सामाजिक, भौगोलिक, भाषायी और सांस्कृतिक विविधता है उतनी शायद ही किसी मुल्क में हो। इस विशाल देश को हमारे सामुहिक भारतीय बोध ने ही तो बांध रखा है...हम अनेक होकर भी एक हो जाते हैं, एकताब( हो जाते हैं, दुनियां के सामने। ऐसा इसलिए कि यहाँ तमिल आदमी त्रिपुरा में काम करता है और पंजाब से जीवनसाथी चुनता है। उतर पूर्व के बच्चे दिल्ली और दिल्ली के नौनिहाल बंगलुरू में पढ़ते हैं। कलकत्ता का मारवाड़ी बम्बई में व्यापार करता है और हिंदी फिल्म उद्योग का मुख्यालय बाॅलीवुड एक गैर हिंदी भाषी राज्य में होता है। हम एक दूसरे पर दर्शनीय तौर पर निर्भर हैं, पूरी तरह आदतों, विचारों और स्वभावों में पृथक होने के बावजूद। अफसोस, धारा 370 के कारण जम्मू कश्मीर के साथ शेष भारत की यह सृजनात्मक परस्पर निर्भरता कभी कायम न हो सकी...धारा 370 जो संबंधों की मजबूती का पुल होना चाहिए था वह दीवार बन गया। एक ऐसी दीवार जो हर गुजरते साल और मजबूत बना दी जा रही थी, जिसका बहुत मजबूत होना रिश्ते के लिए अपरिहार्य बताया जा रहा था। सोचिये, रोटी बेटी का रिश्ता नहीं, कारोबारी सम्बन्ध नहीं, रीति रिवाजों और रवायतों पर कोई आदान प्रदान नहीं, कोई सामाजिक सांस्कृतिक सम्बन्ध नहीं और हम 70 साल से रट रहे थे कि कश्मीर हमारा है, हम उनके हैं। ये एक ऐसी बाधा थी जिसकी वजह से कश्मीर में अलगाववाद को हवा मिली, दुनियां का शायद ही कोई देश होगा जो अपने टुकड़े चाहने वालों को सरकारी सुरक्षा दे पर हमारी सरकारों ने दी। इसी अनुच्छेद के कारण दो तीन परिवारों ने कश्मीर पर राज किया, लाखों कश्मीरियों को काल्पनिक भय दिखाकर उनका शोषण किया...इसी दीवार ने साहित्य, संगीत, सिनेमा और खेल के सारे एहसास कश्मीर से छीन लिए...और पीठ पर सपनों का बस्ता उठाने वाले मासूमों के हाथों में नासमझी के पत्थर पकड़ा दिए...कश्मीर ही नहीं, पूरा भारत दोषी है 4 लाख कश्मीरी पंडितों के वनवास का, उनकी अपमानजनक बेदखली का। इसी दीवार के कारण कश्मीर में इस्लामी आतंकवाद पनपा। खुशगवार पहाड़ी संस्कृति और सहजता वाला कश्मीर बुर्के में रहने वाली औरतों का इस्लामी दड़बा बना। 70 सालों में हमने आम भारतीय के हिस्से के अरबों रुपये सिर्फ कश्मीर पर खर्च किये और कभी हिसाब नहीं माँगा। गिलानी जैसे लोग दिल्ली में आकर हमें धमकाते रहे और सरकार नामर्द बनी रही। लेकिन अभी सिर्फ नींव डाली गई है, भरोसे और विश्वास, विकास और विमर्श, सफलता और समृ(ि की इमारत का खड़ा किया जाना अभी बाकी है। राज्यपाल सत्यपाल मालिक ने ठीक कहा है कि भूलें दिल्ली से भी कम नहीं हुई हैं...अब समय है जब हम कोर्स काॅररेक्शन कर सकते हैं...मै कवि हूँ इसलिए उम्मीद से भरी नई सहर का गीत गुनगुनाना मेरा फर्ज भी है और जुनून भी। मुझे यकीन है कि एक बार फिर चिनार के दरख्त फिर बुलाएँगे... इस बार कभी अलविदा न कहने के लिए...!