'दूर के ढ़ोल सुहावने'

 

 हिंदी की किसी किताब में ये पंक्तियाँ पढ़ी थीं कभी कि अपने -अपने मौसम की अपनी -अपनी बातें होती हैं। और याद आने लगी इस मौसम की कई और बातें। सबसे पहले दस्तक दी जिसने  दिल पर वो  पहली थाप थी  ढोल की । ढ़म .. ढ़म ..ढ़म ..ढोल की आवाज! गेट पर कौन आया,कौन गया ! देखने जाने की जरूरत नहीं पड़ती । किचन की खिड़की से हर आने-जाने वाले पर नजर पड़ जाती है । और ढ़ोल तो फिर सुनने की चीज है, देखने जाने की जरूरत क्या है ? दिन -भर कोई ना कोई माँगने वाले आते ही रहते हैं । सबको नहीं देती मैं । व्यक्ति की परिस्थितियों का जायजा लेने के बाद ही दान देती हूं । लेकिन ढोल वाला कोई भी आए मैं उसे खाली हाथ नहीं भेजती । हाँ, पैसे देने में जरूर देर लगाती हूं , ताकि वह बजाता रहे और मैं सुनती रहूं । और फिर किसी के भी हाथ पैसे भिजवा देती हूं । खुद जाकर करना भी क्या है ! कोई बात तो करनी है नहीं । पर जब कोई नहीं होता घर पर तो मैं ही जाती हूं और पूछ भी लेती हूं कि क्या है आज ?  किस खुशी में ढोल बजा रहे हो ? 

             इनके अपने -अपने मौसम होते हैं। साल में दो बार नवरात्र,होली , दिवाली , कई तीज - त्यौहार और  हर महीने की संक्रांति को आना होता ही है इनका । जनवरी,फरवरी, मार्च जैसे मरणासन्न नाम ले लेकर जब वह चैत,वैशाख,अमावस्या,सक्रांति पूर्णमासी,एकादशी जैसे जीवंत शब्द बोलते हैं तो  जिंदा हो जाते हैं जैसे कई मौसम , और मौसम के साथ भूले -बिसरे तीज -त्यौहार भी । और कुछ लोग, कुछ बातें । गते - तिथि पूछती दादी और माँ की बातें । या फिर वो कामवाली जो अंग्रेजी सितंबर के गढ़वाली असूज को अगहैन कहा करती थी । और क्वार क्या कातिक को कहती होगी ? यह  पूछना न हो पाया कभी । कभी-कभी वह लड़का भी याद आ जाता है जो हमारे पड़ोस में रहा करता था। बेचारा पोलियो ग्रस्त था । किसी भी मांगने वाले को जरूर कुछ ना कुछ दिया करता था । धीरे-धीरे लंगड़ा-लंगड़ा कर गेट तक आता और अपनी सामर्थ्यनुसार कुछ पैसे दे दिया करता । जबकि बेचारा खुद नौकर था । एक दिन हमने पूछ लिया कि क्यों देते हो ? तो बोला कि पिछले जन्म में हमने जरूर कुछ पाप किए होंगे जो इस जन्म में यह हाल हुआ । अब इस जन्म में दान पुण्य करके प्रायश्चित कर लेंगे तो शायद अगले जन्म में सकल शरीर मिल सके ।  एक दिन उसने मुझे किसी ढोल वाले को पैसे देते हुए देखा तो वह अपने आँगन में सफाई छोड़कर हमारे ही गेट पर आ गया । हम ढोल वाले से पूछ रहे थे कि ये जन्माष्टमी के बाद अब भादों में तुम किस पर्व , त्यौहार के लिए ढ़ोल बजा रहे हो ?  हमको ढोल वाले के साथ बतियाते हुए सुनकर वह बोला - आपको सारे हिंदी महीने याद हैं ? 

हां ! मैंने कहा । 

जाने क्या सोच कर फिर वह  बोला - भाभी आप धोती पहना कीजिए । अच्छी लगती है आप पर। धोती से उसका मतलब साड़ी से था । उसकी बात सुनकर ढ़ोल वाला भी ढ़ोल बजाना छोड़कर मेरी तरफ देखकर मुस्कराने लगा । ढोल बजने से मुझे नाचने - गाने का मन तो नहीं होता , मगर एक फिल्म जरूर याद आ जाती है। ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित 'आशीर्वाद' । इसमें अशोक कुमार जी ने जोगी ठाकुर का किरदार निभाया था ।  'आशीर्वाद' बहुत साल पहले देखी थी । लेकिन इस फिल्म की दो बातें ऐसी लगती है जैसे कल ही देखी हो । पहली ! संपन्न किन्तु सह्रदय युवा  जमींदार जोगी ठाकुर का अपनी जमींदारी के आम लोगों के साथ प्यार से रहना और हँसी-खुशी के मौके पर  सबके बीच घुल - मिल जमकर  ढोल बजाना । और दूसरी , फिल्म के अंत में किसी अबला की आबरू बचाने की जद्दोजहद में किसी का खून कर देने के इल्जाम में  कानून से छिप कर रह रहे  बेघर हुए विपन्न जोगी ठाकुर को दान - दक्षिणा की चाह में वहां पंहुचे अन्य भिखारियों सा ही समझकर बरषों पहले की उनकी बिछड़ी हुई नन्हीं सी इकलौती बेटी का आज युवती  दुल्हन बनकर उनके हाथ में दान रखना  । जबकि मरणासन्न प्रौढ़ पिता ने भिखारियों की तरह हाथ  फैलाऐ थे  मीलों  पैदल चल-चल कर बिटिया के सिर पर आशीर्वाद का हाथ रखने की चाह में ।

 ओह ! अविस्मरणीय है वो दृश्य । फिल्म पेश करने के क्लासिक अंदाज से कभी- कभी लगता है कि कहीं  ऋषिकेश मुखर्जी और गुलजार साहब सगे भाई तो नहीं थे । अभी इतनी देर से ढोल सुन रही हूं तो वही याद आ रहा है अशोक कुमार का जीवंत अभिनय और जोगी ठाकुर का त्रासद अंत। घर में कोई और है नहीं तो खुद ही जाती हूं  पैसे देने। ढोल वाले को ढोल की आवाज से मेरे आने का पता ना चला । आँखे कसकर मूँदे हुए वो तन्मयता  से ढोल बजा रहा है । मैं भी तल्लीनता से सुन रही हूं और सोच रही हूं कि खिचड़ी दाढ़ी वाला पतला सा काला, झुर्रीदार चेहरे वाला ये वृद्ध इतनी धूप में न जाने कहां-कहां से भटक कर मेरे दरवाजे तक आया होगा । माथे से गिरता सूखे पपड़ीदार होठों तक पहुंचता पसीना यही दूरी बयां कर रहा था शायद। विधाता के रचे इस किरदार के चेहरे पर  हालात, मुश्किलात और जीवन के कठिन झंझावात का सहज विन्यास बताता है मुझे कि जोगी ठाकुर फिल्मों में ही नहीं असल जिंदगी में भी होते हैं । नजदीक से ढ़ोल की  भारी-भरकम आवाज ने दिल को जगाया जैसे नींद से  कि सुन लेने के बाद  भी आँख मूँदकर किनाराकशी कर लेना चाहते हैं हम इन बजाने वालों से , वो भी तो  बंद कर लेना चाहते होंगे कभी अपने कान ।क्योंकि दूर के ढोल जितने सुहावने ! पास के उतने ही डरावने ।