एक प्रायोजित दिवस


राष्ट्रीय पर्वो पर अब दूसरी तरह के कर्मकाण्ड होने लगे हैं। कुछ परिवार मूसरी घूमने निकलते हैं। नून, तेल लकड़ी के अधूरे कार्य पूरा करते हैं। सिनेमा देखते हैं...वह स्वतंत्रता जिन पवित्र आत्माओं ने हमारे हाथ में सौंपी है...उस पन्द्रह अगस्त की शाम को रंगीन बनाने के लिये कई लोग बार में चुस्कियां लेते हुये राजनीति पर सिगरेट के गुल झाड़ते हैं...धन्य हो नागरिक...। उस ऐतिहासिक दिन का स्मरण पांच दशकों में ही इतना विद्रूप हो जायेगा, शहीदों के रक्त को टमाटर की चटनी बनाकर टीवी के बेशर्म पर्दे पर परोसा जायेगा/ स्मृतिविहीन समाजों की रायबहादुरों के बेटे-बेटियों की यह कच्छाधारी पीढ़ी बलिदानों को भी प्रायोजित कर देशभक्ति का जैसा धमाल आयोजित कर रही है, वह स्वतंत्रता-आंदोलन और गांधी की पूरी लड़ाई को तमाशा बना रही है।
मेरे पिताजी कोई आन्दोलनकारी नहीं थे...परन्तु स्वाधीनता आंदोलन क ऊष्मा को हम तक पहुँचना वे अपना दायित्व मानते थे। सुभाष कें गर्म दल का अनुयायी होते हुए भी, वे गांधी-टोपी पहनते थे, गांधी की आंधी के कारण पिताजी ने सुभाष की काली टोपी संदूक में रख छोड़ी थी...पिताजी के मुख से सुने वे किस्से स्वाधीनता संग्राम को उत्सव की तरह मन रोपते थे। किस तरह म0 प्र0 से आम-पापड़ के अंदर वे देशी कट्टा छुपाकर लाये थे जो कि चलाने से पहले ही खराब निकला और पिताजी उस तरह के सेनानी नहीं बन सके जैसा वे बनना चाहते थे। वैसे पन्द्रह अगस्त राष्ट्रीय पर्वो पर पिताजी, ताऊ जी पूरे उत्साह के साथ भागीदार बनते थे। झण्डा अपने गांव से ही सजधज कर स्कूल पहुँचता था, तिरंगे को सुखाना प्रेस करना, बांस के डंडे को तेल मालिश कर चमकाना तथा गेंदे के फूलों की माला बनाकर गीले कपड़े में रखना, पूर्व संध्या पर ही हो जाता था। मेले-कौथीग की तरह उमंग और उत्साह के कारण रात भर नींद भी नहीं आती थी। सब भाई एक ही थान से बने खद्दर के कमीज पजामे को शादी के सूट की तरह धो-दबाकर तैनात रखते थे। खद्दर की सफेद टोपी और इत्र जैसे अतिरिक्त उपकरण ताऊजी की जिद के कारण छोटे सैनानियों के अंग बनते थे। जिन परिवारों में चोटी का आग्रह होता था, वे बच्चे तो टोपी के विकल्प को बुरा नहीं मानते थे, परन्तु बाकी बच्चे फैशन के चलते टोपी को हाथ में लेकर चलते थे। सुबह पांच बजे ही प्रभात-फेरी निकल पड़ती थी। 'उठो सोने वालों सबेरा हुआ है'' और यदा कदा पंदराऽ अगस्तऽ... अमर रहे' के उल्लासित सिंहनाद से पहाड़ियां गूंजने लगती थी। झण्डा थामे क्लास मोनिटर और हेड मास जी पंक्ति के अग्रिम भाग में होते थे। बाकी अध्यापक आगे-पीछे निगरानी रखते थे, क्योंकि रास्ते के दोनों तरफ भुट्टे और ककड़ी की फसलों को इस उल्लास से बचाना भी होता था। किसी रंगीन सरीसृप की तरह रेंगती बच्चों को टोली जब गांव के नजदीक पहुँचती थी, तो छात्रों के गले ऊँचे होने लगते थे।
ग्राम प्रधान जी अगुवाई करते हुए, झण्डे को अछत-पिठाई लगाते, उसके बाद ग्राम-सभा की ओर से स्कूल को गुड़ की भेली भेंट की जाती...यह स्वाधीनता की स्कूल-लीला पांच गांवों में चलती थी...कुछ बच्चे नाखून और कीलों से भेली को नोंचकर पदंरा अगस्त को मीठा करते चले जाते थे। हमारे गांव में मोना की दादी का विशेष समान होता था, बुढ़िया के पति शादी के मात्र सात महीने बाद ही अंग्रेजों की जेल में शहीद हुये थे, परन्तु रिकार्ड में नाम न होने के कारण परिवार को पेंशन नहीं मिली। हेड मास जी मोना की दादी का सम्मान करने का अर्थ जानते थे...बुढ़िया के आंगन में एक मिनट का शोक रखा जाता...परतु बुढ़िया हंसी नहीं रोक पाती...सारे बच्चे साथ ही हंस पड़ते थे। हेड मास जी दो चार बच्चों के झापड़ रसीद करते...उन मासूम हंसियों का सैलाब उन अनेक गुमनाम शहीदों के बलिदान को अनजाने ही दूसरे अर्थ देता था, उस हंसी का पूरा अर्थ आज सबके सामने है।
स्वराज्य, स्वावलम्बन और स्वदेशी के जिन उद्देश्यों को लेकर यह संग्राम लड़ा गया था, वह गांधी को समस्त दुनियां के जनान्दोलनों से अलग खड़ा करता है। गांधी जी अंग्रेजी साम्राज्य के साथ उनकी बनाई व्यवस्था का खात्मा कर एक आत्मगौरव से भरे भारतीय को देखना चाहते थे। सन् 1909 में गांधी जी ने हिन्दू स्वराज्य में इसका खुलासा किया था ''हम जो करना चाहते हैं वह अंग्रेजों के लिये हमारे मन में द्वेष है, जो करें उन्हें सजा देने के लिये न करें बल्कि इसलिये करें कि ऐसा करना हमारा कर्तव्य है। अंग्रेज अगर नमक-महसूल रद्द करें, लिया हुआ धन वापस कर दें, सब हिन्दुस्तानियों को बड़े-बड़े आहदे दें दे और अंग्रेजी लश्कर हटा दें तो हम उनकी मिलों का कपड़ा पहन लें, अंग्रेजी भाषा काम में लाने लगें या उनकी हुनर-कला का उपयोग करने लगें सो बात नहीं, हम ऐसा कुछ नहीं करेंगे।'' परन्तु नहेरू ने पूरे आन्दोलन की लुटिया डुबो दी, चालू तरीके से जनता को खुश करने के लिये जो आर्थिक नीतियां लागू की गई, जिसको मनमोहन सिंह तक आते-आते खुले खलिहान में बदलना ही था। विदेशी हुकूमत की तरह नेहरू ने जनता की उपेक्षा कर नौकरशाही पर निर्भरता बढ़ाई...जिससे शासक वर्ग दाता बनता चला गया और जनता याचक बना द गयी। यदि नेहरू अंग्रेजों की तरह जनता को याचक, निस्तेज और पराधीन ही देखना चाहते थे तो वे गांधी के उत्तराधिकार को ढोंग क्यों करते रहे?...उसी ढोंग के कारण देश की एक प्रतिष्ठित राजनीतिक पार्टी आज एक साधारण सी महिला के पल्लू में चाबी की तरह टंगी हुयी है। उनके पास अध्यक्ष तक के लाले पड़े हैं।
आज स्थिति हास्यास्पद है। टी वी के पर्दे पर नंग-धडंग विज्ञापनों के बीच क्रान्ति का फलसफा बेचा जाता है। बालीबुड के लंगेटे व्यवसायी तिरंगे की जिस तरह ऐसी-तैसी कर रहे हैं, चकाचक जूते टोपी पहन के स्वाधीनता जिस तरह की प्रायोजित दौड़ बन रही है, उसे देखकर आधी रात को स्वतंत्र हुआ भारत सचमुच निशाचरों का मुल्क लगने लगता है। सत्ता-प्रतिष्ठानों से जुड़े स्मृतिहीन नौकरशाहों की हीन भावनाओं के टोटके देशी-दर्शन पर लादे जा रहे हैं।
स्मृतियां भविष्य की आधारशिलायें हैं, भारत जिसे कि अतीतजीवी देश कहा जाता है, उसकी संस्कृति अतीत को ढोती नहीं है। क्योंकि हमारी संस्कृति नित्य नूतन है, सनातन है। परन्तु प्रत्येक राष्ट्रीय पर्व पर जैसा उचक्का और फूहड़ व्यवहार नीति-निर्धारकों और कल्पना-शून्य साहब लोगों द्वारा किया जाता है, उससे हमारी उस राष्ट्रीय पहचान को धक्का लगता है, जो गांधी की लड़ाई का मुख्य विषय था।
वे लोग चाहे उनकी विचारधारा कुछ भी रही हो, उन्होंने अपने प्राण, मूल्यों के लिये न्योछावर कर दिये। उनके उत्सर्गो की मूर्तियां  बनाकर यदि वाणिज्य करते हम सभी कुछ बेचने लगे, स्वतन्त्रता दिवस पर टीवी अखबारों में अपने-अपने खोमचे लगाकर सब कुछ बिकाऊ बन जाने दें तो आखिर उन मूल्यों का क्या अर्थ है, जिनके लिये अनेकानेक वीरों ने मौत को चूमा। राष्ट्र कोई बाजार नहीं है, वह मात्र भौगोलिक सीमा भी नहीं है, राष्ट्र एक जीवन पद्धति है, ऐसी जीवंत विचारधारा जिसे शताब्दियों के आत्मंमथन वैचारिक कोलाहल और सामाजिक-संघर्षो के बाद स्वीकृति मिलती है। उन मूल्यों और उनमें आस्था रखने वालों की ऐच्छिक स्वतन्त्रता ही  तो स्वाधीनता है। आज अपने ही लोग अपने ही राष्ट्रीय मूल्यों की भदेस बना रहे हैं...इसीलिये धूमिल हताश होकर तिरंगे को तीन थके हुए रंग कह देते हैं। परन्तु आज वह थका झण्डा कमाऊ पूतों ने उठा रखा है...पन्द्रह अगस्त उनकी कमाई का दिन है, वे अपने चढ़े पृष्ठों पर तिरंगे का लोगो लगाकर ''आइ लव माई इण्डिया'' के जयकारे लगा रहे हैं। आप उनका क्या बिगाड़ेंगे? उनके बटुवे डालरों से भरे हैं।