हम पत्तलकार नहीं हैं

 


 



अपन वैसे खड़ूस किस्म के पत्रकार नहीं है। साहित्य-दर्शन में अभिरूचि के कारण लिखने का शौक है। यह भावुकता ही वहां से स-शरीर आकर कलम में बैठ गई लगती है। इसी कारण राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्र भी मुझे स्मार्त वाक्य लगते थे। सत्तारूढ़ पार्टी होने के कारण नेहरू परिवार से जन्मजात बैर लगता था और संघ एवम् उससे प्रसूत जनसंघ से लेकर भाजपा के नेताओं पर कुलदेवता जैसी श्रद्धा बनी रहती थी। पिछले कई वर्षों से इसी भावुकता को पत्रकारिता में  भी परोसा। जब पहाड़ों की राजनीति लखनऊ से संचालित होती थी तो सचिवालय और नेताओं के खेल, दावे से कहता हूं इधर का कोई पाठक तो क्या, पत्रकार भी नहीं जानता होगा। उत्तराखण्ड बनने के बाद जब सचिवालय भवन के वे राजसी कमरे देखे, सचिव, अवर सचिवों की खनक देखी, बाबू से लेकर चाय-पानी वाले चपरासियों के हिंसक तेवर देखे और विधान सभा के सफेद बगुलों की चांेच और क्षुधा देखी...तो लगा कि बेकार ही इतने वर्ष सिर खपाया। बगुलों के दल अलग हो सकते हैं, उनके खाने के तरीके एक हैं, डाह, जलन, कमीनापन एक जैसा है और सचिवालय के जिस तालाब में बैठकर वे जनता के हिस्से की रोटी पर चांेच मारते हैं वह सचिवालय ही पूरे प्रदेश की जनता का भाग्य विधाता बन बैठा है। नेताओं को रवां करने की मशीन इन्हीं कमरों में होती है। माफिया अफसर और बगुले इसी भवन में बैठकर मृगया करते हैं , रोज लाखों के सोने के हिरन मारते हैं। विधान सभा तो बैठने-खाने को है। दल कोई भी हो, वह दल-दल ही है। शायद हिमाचल प्रदेश के लोग बारी-बारी से सत्ता के बगुलों को इसीलिये बदलते हैं। विधानसभाओं की संख्या को मीडिया गिनता होगा, सचिवालयों में फाइलें गिनी जाती हैं। बगुले कुर्सियों में बैठ खाते हैं और कैमरों, अखबारों और विधानसभा की छत पर बैठ कर 'बीट' करते रहते हैं । जनता सोचती है कि वे आपकी समस्याओं पर ध्यान देने के लिये एक टांग पर खड़े हैं जबकि समस्या तो उनका मनोरंजन है। 
प्रदेश का मुखिया एक स्वप्नद्रष्टा होता है। आर्थिक,सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक आदि अनेक फलकों का मानचित्र बनाकर पूरे तंत्र को उसमें झोंक सकने वाला ही सफल नेता है। ऐसा नेता जो अपनी दिनचर्या, अपनी नैतिकता, अपने आचरण को उदाहरण की तरह समाज के सम्मुख रखे, राजनीति और समाज को सद्मार्ग पर ले जा सके...देखा..! अपन फिर बहक गये...पुरानी आदत है न..