इस्लामिक आतंकवाद के दौर में मानवता का भविष्य



दुनियां बारूद के ढ़ेर पर खड़ी है और दूषित भावनाओं और पतित विचारों, कट्टर धारणाओं, आत्मघाती धार्मिक वैचारिक सि(ांतों का यह बारूद कभी भी विश्व जीवन को लील सकता है। हम यह भी कह सकते हैं कि धीरे धीरे लील ही रहा है। पिछली सदी ने जहाँ मानवता के इतिहास का सबसे भयानक रक्तपात और नरसंहार देखा वहीं वर्तमान सदी मानो मानवता को इस्लामिक जिहाद या आतंकवाद के नाम पर पूरी तरह इंसानियत को निगलना चाह रही है। 21वीं सदी का आगाज़ ही अमेरिका पर 11 सितंबर 2001 के हमले / रक्तपात से हुआ और तब से ख़ौफ़ और खून का ये मंज़र ठहरने का नाम नहीं ले रहा है। पहले तालिबान, फिर अलकायदा और अब वर्तमान सदी के दूसरे दशक में ईईराक और सीरिया में पनपा 'इस्लामिक स्टेट' मानवता के संहार का सबसे बड़ा ख़तरा
 सि( हो रहा है। यदि पूरी दुनियां के देशों ने अब भी एकजुटता और पूरी सामर्थ्य से इस्लामिक आतंकवाद की इस विषबेल को नहीं सुखाया तो किसी का कोई वजूद नहीं बचेगा और हम इस दुनियां की आखि़री सदी के बदनसीब वारिस होंगे। हिंसा किसी भी रुप में, किसी भी देश या धर्म द्वारा हो, निंदनीय और दंडनीय है और यह भी सच है कि हम हिंसा को वर्गीकृत नहीं कर सकते। लेकिन पिछले चार दशकों में हिंसा ने सबसे ज्यादा शरण इस्लाम में ;अगर इस्लाम द्वारा नहीं तो उसका नाम लेकर या उसकी आड़ मेंद्ध पायी है और इस हिंसा ने एक विश्वव्यापी स्वरुप अख्तियार किया है। धर्म का मूल उदभव आदमी के भीतर बैठे / दुबके पशु की पाशविकता पर लगाम लगा कर उसे उच्चता और श्रेष्ठता के मार्ग पर प्रशस्त करना रहा है। धर्म मर्यादित आचरण का एक विधान, एक दंड और एक दंडसंहिता रहा है। कदाचरण और हिंसा को रोकने में धर्म का योगदान महनीय रहा है। दुनियां भर में राजनीति ने और सत्ता ने हमेशा धर्म से ही मार्गदर्शन पाया है। समाज जब जब पतित हुआ, मान्यताएं जब जब खंडित हुईंई, लोकजीवन पर जब जब निराशा के बादल मंडराए, तब तब धर्म प्रेम, प्रकाश, प्रेरणा और सुरक्षा दीवार की तरह इंसानियत के साथ रहा है, उसकी सामर्थ्य और संवेदना बना है। जीवन को लेकर किसी भी द्वन्द्व के अवसर पर धर्म और धर्माचार्य देशना का मूर्तिमान रुप बनकर प्रकट हुए हैं। धर्म किस प्रकार सामाजिक जीवन के लिए संजीवनी बन सकता है और धर्माचार्य किस प्रकार इंसान के पहरुआ बन सकते हैं इसका एक ताज़ा उदहारण पोप ने दिया है। हाल ही मे 82 वर्षीय पोप फ्रांसिस ने गृह यु( की आग में झुलस रहे सूडान के अलग अलग धड़ों के नेताओं को वेटिकन बुलाकर उनसे अपने देश और लोगों की खातिर हिंसा, अस्थिरता और रक्तपान का रास्ता छोड़कर अमन का रास्ता अख्तियार करने का आग्रह किया। एक बेहद भावुक माहौल में पोप ने सभी विद्रोही नेताओं के पैर चूमे। जब मैं इस दर्शनीय नज़ारे को देख रहा था तो स्वाभाविक ही मन में सवाल उठा- 'क्या पोप से पहले यह पहल दुनियां के किसी इस्लामिक धर्मगुरु को नहीं कर लेनी चाहिए थी?' लेकिन शायद इसकी कल्पना भी बेमानी होगी। हिंसा कम करना तो रहा दूर इस्लाम का नाम और उसके कट्टर  अनुयायी हिंसा के सबसे बड़े प्रयोजक सि( हो रहे हैं। इस खतरे के प्रति उदारवादी इस्लामिक चिंतक / लेखक तारिक फतह और बांग्लादेश की बहिष्कृत लेखिका तस्लीमा नसरीन ने विश्व को बार बार चेताया है। प्रगतिशील लेखन और विशेष रूप में बाबरी विध्वंस के पश्चात बांग्लादेश में उपजी संगठित हिन्दू विरोधी अत्याचार की दास्तां को ईईमानदारी से बयां करने के लिए देश निकाला के दंड को भोग रही तस्लीमा से बढ़कर इस्लामिक कट्टरता की आंच किसने भोगी है? फतह के लिए भी बार बार फ़तवे जारी होते रहते हैं, कभी सर तो कभी उनकी ज़बान काटने की अपील करने वाले फतवे !


इस्लाम के सच्चे प्रस्तोताओं पर होने वाला हर हमला इस धर्म को कमजोर ही करेगा। कुछ लोग जोर देकर कहते हैं कि कोई भी धर्म हिंसा और वैमनस्य की वकालत नहीं करता लेकिन तस्लीमा और तारिख फ़तेह जैसे उदारवादियों ने बार बार अपने लेखों में कुरान और हदीस के कई उदहारण पेश किए हैं जिनमे काफिरों पर हिंसा की सीधे तौर पर छूट दे दी गई है। धार्मिक आधार पर हिंसा और दुनियां भर में एक खलीफा का राज का सपना देखने वाले कट्टरपंथियों ने विगत दो दशकों में दुनियां के बेहतरीन विश्वविद्यालयों की डिग्रीधारी युवाओं और युवतियों को अपनी विचारधारा से पदकवबजतपदंजम / कट्टर बनाया है। हज़ारों लाखों पढ़े लिखे नौजवानों ने इस्लामिक स्टेट के लुभावने फंदे में आकर अपना जीवन तबाह किया है। 
मानवता का पूरा का पूरा भविष्य ही अब इस बात पर टिका हुआ है कि वह इस आसन्न खतरे से किस प्रकार निपटती है। ताज़ा उदहारण गत एक दशक से पूरी तरह अमन की जिंदगी जी रहे श्री लंका का है जहाँ ईईस्टर के रविवार यानि 21 अप्रैल 2019 को इस्लामिक स्टेट से प्रभावित देशी मुस्लिम आतंकियों ने इस पावन दिन को खूनी रविवार में बदल दिया। 359 लोगों को ;मरने वाले अधिकांश अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय के हैंद्धअसमय लील गए आठ हमले नेशनल तौहीद जमात नामक देशी आतंकी संगठन की अगुआईई में किये गए जिनमे मसाला कारोबारी मोहम्मद युसूफ इब्राहिम की संलिप्तता सामने आ रही है। जिन आतंकियों ने मानव बम बन
कर इस जघन्य अपराध को अंजाम दिया वे भी पढ़े लिखे संपन्न घरों के लड़के लड़कियां थीं। यह श्रीलंका के ईसाईई समुदाय की बदनसीबी थी कि ईईश्वर के पुत्र यीशु के पुनर्जीवित होने के दिन सैकड़ों घरों के चिराग बुझ गए।भारत में अगर इस्लामिक आतंकवाद अपनी जड़ें नहीं जमा पाया है तो इसका श्रेय हमारे बहुलतावादी सामाजिक ताने बाने, हमारी गहरी लोकतान्त्रिक परंपराओं ;जिसने दलित और अपलसंख्यक भी देश के सर्वोच्च पद पर आरूढ़ हो सकता हैद्ध और इस मिट्टी को जाता है जिसने अपनी संस्कृति की खुश्बू से पूरी दुनियां को सराबोर किया है...लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि हम आत्मतुष्ट होकर सो जाएं। यह सही समय है जब इस्लाम की दानिशमंद और जहीन आवाजों को खुलकर इस्लामी और जेहादी कट्टरता की मजम्मत करनी चाहिए। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र संघ की रहनुमाई में सभी देशों का एक आर्मी लीग बने जो दुनियां में कहीं भी होने वाले इस्लामिक आतंक का जवाब देने को तैयार रहे। यह खतरा प्रकृति और पर्यावरण के किसी भी खतरे से 100 गुना ज्यादा बड़ा खतरा है। अब भी समय है कि हम समय को असमय विदा होने से बचा सकते हैं...