जहाँ चाह वहां राह


हमारी देवभूमि सदा से वीरों की जननी रही है। परन्तु ये भी सत्य है कि व्यापार और अर्थ सृजन से पहाड़ का बहुत कम नाता रहा है। गढ़वाल और कुमाऊँ की ग्रामीण सामाजिक वर्ण संरचना के तीन मुख्य स्तम्भ हैं-शिल्पकार, क्षत्रिय और ब्राहमण। यहाँ वैश्य वर्ण मूलतः नहीं बसा। शायद, इस व्यापारिक समाज के न बसने के कारण ही यहाँ पर आथर््िाक जागरूकता का अभाव  रहा हो या फिर यह भी हो सकता है कि दूर दराज पहाड़ों पर धन प्रवाह की कम संभावनाओं को देखते हुये व्यापारी वर्ग मैदानों से यहाँ विस्थापित न हुआ हो। कारण जो भी रहे हों मगर यहाँ पर व्यवसाय का कांसेप्ट न के बराबर रहा है और पहाड़ों से पलायन का मुख्य कारण भी यही बना है। महान रहस्यमय हिमालय की गोद अनमोल प्राकृतिक सम्पदा की भंडार रही है लेकिन इन दुर्लभ वनस्पतियों और जड़ी-बूटियों के महत्व को हमें आथर््िाक लाभ में बदलना नहीं आया। खेल, कला, विज्ञान, संगीत इत्यादि की तरह विद्याथर््िायों में उद्यमी कौशल को जागृत करना अति अनिवार्य होता है। मुश्किल यह है कि व्यवहारिक आथर््िाक ज्ञान विद्याथर््िायों को स्कूली पाठ्यक्रमों में नहीं पढ़ाया जाता है। पढायें भी कैसे? हमारे शिक्षक वर्ग की 'आउट आॅफ़ बाॅक्स' सोचने की परम्परा ही नहीं रही है। अनेकों उदाहरण मिल जाते हैं जहाँ व्यापार और धनोपार्जन कौशल से दूरी बनाने की सलाह दी जाती रही है जैसे एक विद्यार्थी का यह कथन कि 'मास्टर जी, पिताजी ने अर्थशास्त्र लेने को मना किया है क्योंकि हमारी आथर््िाक दशा ठीक नहीं है' पहाड़ी इलाकों में प्रचलित है। दुनियां के विकसित देशों में छात्र धन प्राप्ति की बेहतरीन प्रणाली सीखने के उद्देश्य से अर्थशास्त्र की पढ़ाई करते हैं जबकि हमारे यहाँ इकोनाॅमिक्स का सर्वश्रेष्ठ छात्र भी अपना ज्ञान अर्थ सृजन के लिए उपयोग में नहीं ला पाता है। आज सूचना प्रौद्योगिकी के युग में हम सब एक वैश्विक गाँव के सदस्य बनते जा रहे हैं, इसलिए नयी पीढी को हर तरह की स्किल से अवगत कराना हमारा फर्ज बनता है। न जाने किसके अन्दर कौन सी श्रेष्ठतम खूबियाँ विद्यमान हों। जैसे श्री ध्यानी जी द्वारा रचित 'वक्रतुण्डोपनिषद' पढ़कर कौन कह सकेगा कि काॅलेज की शिक्षा में संपादक महोदय साहित्य के छात्र नहीं बल्कि 'मास्टर आॅफ़ साइंस' हैं। अर्थात हम ये कह सकते हैं कि डिग्री और इल्म दो अलग बातें हैं और इसमें कोई शक नहीं है कि इल्म का महत्व डिग्री से कई अधिक है। वनस्पति विज्ञान का अध्ययन और वनस्पतियों के गुणधर्मों पर शोध करके डिग्री प्राप्त करके लेक्चरर बनने की तालीम हासिल करने वाले बहुत हो सकते हैं लेकिन इस ज्ञान को आथर््िाक विकास के साथ-साथ जन कल्याण के लिए उपयोग में लाने वाले हुनरमंद कम ही मिलते हैं। अपने गढ़वाल विश्वविद्यालय के शोध के इतिहास पर एक नजर डालते हैं तो एक भी ऐसा नव प्रवर्तनकारी शोध नहीं मिलता है जिसने पहाड़ के साधारण जनमानस की मुश्किलों को आसान बनाने में योगदान किया हो। ऐसा नहीं है की सरकारों ने इन संस्थानों को आथर््िाक सहायता से वंचित रखा हो। देश का बहुत सारा धन किताबी रिसर्च पर खर्च होता रहा है परन्तु अफ़सोस है कि देवभूमि की प्राकृतिक सुरम्य छटा के मध्य स्थित होने के बावजूद यह संस्थान शायद ही किसी जड़ी बूटी से निर्मित महत्वपूर्ण औषधि का पेटेंट धारक हो। हमारी अपनी मूल सोच ही सफलता की राह में बाधा है। हमने अर्थशास्त्र इसलिए पढ़ा ताकि अर्थशास्त्र विषय के टीचर की नौकरी मिल सके, उस ज्ञान को आथर््िाक लाभ में बदल कर जनहित करने की बात हमें सूझी ही नहीं। वनस्पतियों के अंग्रेजी नामों को रटकर उनका वर्गीकरण करने से कुछ नहीं बदलता है, हाँ, उनकी गुणवत्ता को जनमानस के काम में लाना बहुत कुछ बदल देता है।
पतंजलि के बालकृष्ण जी ने कागजी शोधकर्ताओं की असलियत को आईना दिखाया है और 'फाॅर्मल एजुकेशन' के न होते हुये भी पहाड़ की वनस्पतियों और जड़ी-बूटियों के बल पर एक बड़े व्यापार को जन्म दिया है। वर्तमान कालखंड तकनीकी कौशल को हासिल करने का है तथा आथर््िाक चेतना के लिए इसका उपयोग वरदान स्वरुप है। आने वाले समय में बढ़ती जनसँख्या और घटते संसाधनों के चलते भारत जैसे कृषि प्रधान देश को कृषि क्षेत्र में सुधार की अति आवश्यकता है, जिससे ग्रामीण क्षेत्र का विकास हो सके। सरकारें ग्रामीण और कृषि विकास के मध्येनजर कईई योजनायें तो लाती रहीं हैं लेकिन उन योजनाओं का लाभ जागरूक जनमानस ही प्राप्त करने में सक्षम होता है। हम जानते हैं कि समाज का प्रौद्योगिकी के साथ बदलते रहने का नाम ही विकास कहलाता है, परन्तु अधिकांश भारतीय किसान आज भी उन्नत कृषि प्रौद्योगिकियों से अवगत नहीं हैं। इसलिए आज के पढ़े लिखे युवा को नौकर मानसिकता को लेकर अपनी सोच बदलनी चाहिए। अगर 'जोमेटो', 'स्विग्गी' आदि सूचना तकनीक के उपयोग से हमारा मन पसंद भोजन हम तक पहुंचाकर सेवा दे रहे हैं तो कई लोग अपने उत्पाद को आॅनलाइन बेचकर पैसा भी बना रहे रहे हैं। कृषि उत्पादन क्षमता में बढ़ोतरी, उत्पाद की गुणवत्ता में सुधार लाने तथा अच्छी खासी कीमत पर फसल को बेचने में तकनीक का उपयोग बहुत प्रभावशाली साबित हो रहा है। जैसे कि पिछले लेखों में देश के तीन आथर््िाक इंजनों के बारे में विस्तार से जानकारी दी जा चुकी है कि कैसे किसान की फसल 'कमोडिटी एक्सचेंज' के माध्यम से बेचीं और खरीदी जाती है। बहुत से टीवी चैनलों पर किसान की जागरूकता बढाने के लिए 'एमसीएक्स' यानि 'मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज आॅफ़ इंडिया' और 'यन सीडीईएक्स' यानि 'नेशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज लिमिटेड' का विज्ञापन देख सकते हैं। उदाहरण के तौर पर गुजरात और महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा काॅटन का उत्पादन किया जाता है, यही कारण है कि इन राज्यों में सबसे अधिक कपड़ा मिल्स भी मौजूद हैं। रुईई रखने के लिए अधिक जगह की जरूरत तो होती ही है साथ ही इसे नमी से भी बचाना पड़ता है। परन्तु इन सबसे अब किसान को परेशान होने की जरूरत नहीं होती है। किसान अपना उत्पाद मार्केट रेट पर कमोडिटी एक्सचेंज में बेच देता है।अगर कुछ समय के बाद उसके बेचे हुए उत्पाद की कीमत घट जाती है तो वह उसे वापस खरीद भी सकता है जिसे बाद में कीमत बढ़ने पर फिर से बेचा जा सकता है। इस तरह जागरूक किसान मुनाफे पर मुनाफा कमाता है। किसान के मुनाफे पर सरकार कोई टैक्स नहीं लेती है, यानी चित भी किसान की और पट भी। आज उद्यम में रूचि और समझ रखने वाले के लिए बेहतरीन मौके उपलब्ध हैं। नौकरीपेशा कर्मचारी की सैलरी से टैक्स उसके खर्च करने से पहले ही कट जाता है लेकिन एक उद्यमी खा-पी कर सारे खर्चों के बाद एकाउंट में जो मुनाफा दिखाता है उसी पर टैक्स देता है। तकनीकी सुविधाओं का उपयोग आथर््िाक लाभ बढाने की दिशा में करने से ही जनमानस के जीवन में सही मायने में प्रगति दिखेगी। पूरी दुनियां में पचास प्रतिशत से अधिक कम्पनियों को फाइनेंस में निपुण 'वर्क फ़ोर्से' की आवश्यकता पड़ती है और वित्तीय ज्ञान से अनभिज्ञ युवा इन प्रतिस्पर्धाओं में शामिल होने से वंचित रह जाते हैं। देवभूमि मूल के जनमानस को दूसरे राज्यों से आथर््िाक पहलुओं पर सीख लेने की आवश्यकता है और ये तभी संभव है जब हम आँख-कान खुले रखें और मुंह बंद अर्थात् मन में सीखने की इच्छाशक्ति को जगायें। 'मुझे कोई क्या सिखायेगा, मैं सब कुछ जानता हूँ', मैं क्यों सुनू, तुमको सब पता है तो खुद क्यों नहीं करते' इत्यादि जैसी मानसिकता का जड़ से नाश करना पड़ेगा। जहाँ से इन्सान अपनी कमियों से अवगत होने लगता है वहीं से सुधार प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जो अनेक गलतियों के बाद अपनी मंजिल तय करती जाती है। सि(हस्त जनों का कहना है कि जो कभी गलती न करे, समझ लीजिये उसने कभी कुछ नया करने की कोशिश ही नहीं की। कहने का तात्पर्य ये है कि सरकारी व्यवस्थाएं वातावरण मुहैया करने में मददगार सि( हो सकती हैं लेकिन सृजनात्मक सोच का विकास तो इन्सान को स्वयं करना होगा। ब्रिटिश काल के महान शिकारी और 'वनसंरक्षण' विचार के जन्मदाता जेम्स ए. जिम कार्बेट ने अपनी पुस्तक 'द मेन ईईटर' में लिखा है कि 'कुमाऊँ-गढ़वाल के फौजी निशानेबाजी और बहादुरी में मुझसे बहुत आगे हैं फिर उनमें से किसी ने नरभक्षी बाघ को मारने की क्यों नहीं सोची? शायद धार्मिक कारणों से बाघ को न मारते हों?' हम सब जानते हैं कि कारण धार्मिक नहीं था बल्कि सोच का था, और ये अलग बात है कि हमारी सोच आज भी वहीं की वहीं है। अलग राज्य बनने के पिछले उन्नीस साल का अपना ट्रैक रिकाॅर्ड इसकी गवाही देता है। हम चाहते हैं कि हमारे राज्य का विकास कोईई दूसरा करे, नहीं तो हम अपना राज्य छोडकर किसी बेहतर विकसित राज्य में मौके दूंढ़ लेंगें। )षिकेश में ब्रिटिशकाल में बना लक्षमण झूला सुरक्षा कारणों से बंद तो करा दिया है लेकिन उत्तराखंड सरकार इस ऐतिहासिक पुल की तरह एक नये पुल को बनाने में न जाने कितना वक्त लगा देगी। कारण धन की उपलब्धता से अधिक स्थिर सोच का है। सृजनात्मक सोच के लिए तो जहाँ चाह वहां राह बन जाया करती है, लेकिन हर नये कार्य के लिए दूसरों की तरफ देखने वालों को राह कभी नहीं मिलती है। जनजीवन की बेहतरी के लिए तैयार किये गये कार्यों के प्रोजेक्ट्स को आथर््िाक संरक्षण देने यानी  स्पांसर  करने वालों की दुनियां में आज कोई कमी नहीं है। 
प्रसि( वेद वाक्य कहता है 'ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या'। ब्रह्म सत्य है इसे सभी स्वीकार करते हैं लेकिन इस शब्द की व्याख्या इन्सान अपनी सहूलियत के हिसाब से करता है। 'ब्रह्म' का सीधा व्यावहारिक पक्ष है सृजन, जिसका तात्पर्य है कि जीवन का अस्तित्व कर्म पर निर्भर है। संसार में जिस मानव जाति ने मानवता, कला, संगीत, ज्ञान, विज्ञान और सृजनात्मक जैसी चेतना को बल दिया उनके लिए ब्रह्म सत्य है और जिसने नश्वर शरीर की इच्छाओं को पूरा करने में समय लगाया उसके लिए जगत मिथ्या है। सत्य जीवन का मकसद बने इसके लिए हर मनुष्य को सदैव अपने भीतर मौजूद ब्रह्म को जानने एवं उसे आकार देने की कोशिश करते रहना चाहिये। जय देवभूमि।।