पंडित नरेन्द्र सिंह नेगी


जन्म दिन की बधाई 


पु रणा डाळ्ा ठंगरा ह्वेकि, नई लगुल्यौं सारू द्यांलाय्। दा ता का मुखमा मंगत्या की टक्कसि' जैसी पंक्तियों को रचकर, नरेन्द्र नेगी ने गढ़वाली साहित्य को, उपमाओं का धनधान्य देकर, पुनः साबित कर दिया, कि कालीदास नाम के महावृक्ष की जड़ों को साहित्य-सृजन का रसायन, उत्तराखण्ड से ही मिला था। जिस गायक के गीत-विशेष को सुनने के लिए न जाने कितने श्रोताओं ने, बार-बार कैसेटों को 'रिवर्स' कर-करके, अपने टेप-रिकार्डर खराब किये हों, जिसके गीतों का विश्वविद्यालय के प्रोफेसर से लेकर, अनपढ़ घसियारी तक, समान रूप से आनन्द लेते हों, उस लोक-परंपरा के संत गायक को स-शरीर देखना-सुनना अपने समय को अविस्मरणीय बनाना है...
कई लोग सोचते हैं कि नरेन्द्र नेगी ने अपने गले की मिठास और पहाड़ी धुनों में शास्त्रीयता के अभिनव प्रयोग और  रिकार्डिंग-तकनीक के कारण लोकप्रियता प्राप्त की... गलत। नरेन्द्र नेगी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं... पहाड़ के बु(जीवियों को, उनके सत्यनिष्ठ लेखन ने आकृष्ट किया है। नेगी ने अपने गीतों में, अखिल भारतीय संगीत के अनेक फलक भले ही जोड़े हां, परन्तु उन्होंने पहाड़ी जीवन की आंचलिकता और शुचिता से कोई छेड़-छाड़ नहीं की है... उनके गीत महानगरीय लम्पट-संस्कृति की जूठन कभी नहीं लगे। इसीलिए श्रोताओं ने उन्हें गायकों की भीड़ से उठाकर, अपने ओंठों पर बैठा दिया। नरेन्द्र का लेखन एक ऐसे पहाड़ी-)षि का रचनाधर्म है, जिसने यहां के निष्कलंक जीवन को, कल्पनाओं के दुर्लभ रंग देकर पुराण जैसा रोचक बनाया है... लोकप्रियता का यह तुलसी-आयाम, वर्षों की तपस्या लगन, धैर्य, प्रतिभा और प्रभुकृपा से प्राप्त होता है और यही कारण है कि पहाड़ की पीड़ा, विसंगति, भेदभाव को लेखन की नरेन्द्र तकनीक द्वारा, श्रोताओं के सैलाब इकट्ठा करने वाला यह गायक, यह गीतकार, आज पहाड़ की अभिव्यक्ति का महानायक बनकर हमारे सामने खड़ा है।
नरेन्द्र नेगी के गीत, गढ़वाली जीवन के इनसाइक्लोपीडिया हैं... पहाड़ के पक्षी, पुष्प, पेड़, परिधान और पंरपराओं को सोलह  शृंगार के साथ उनके गीतों में पिरोया गया है... लोकनायकों, लोककथाओं, लोकोक्तियों मुहावरों को अपने गीतों का विषय बनाते हुये, नरेन्द्र ने, गढ़वाली गीत शैली को नये पांव दिये हैं। प्रतिष्ठान-विरोध के प्रचलित टोटकों से परहेज करते हुये, अपनी जेब से धन लगाना, एक मध्यम वर्गीय सरकारी नौकर के लिए, व्यावसायिक-दृष्टिकोण से अत्यन्त जोखिम पूर्ण कार्य था, परन्तु नरेन्द्र नेगी ने आंचलिक मूल्यों का यह छलछलाता मंगलकलश धारण कर, जिस शालीनता से सपफलता का आचमन किया है, वह देखने लायक है। पहाड़ी बोली की तलहटी से उन्होंने ढूंढ-ढूंढ कर ऐसे बिम्ब प्रस्तुत किये कि उनकी पहली ही कैसेट सुनकर गढ़वाल के लोग चकित रह गये।
लोक गायन की कोई पहाड़ी विधा ऐसी नहीं है, जिसे गायक ने छुआ न हो, ऐसा कोई वाद्य नहीं है जिसे उन्होंने अपने संगीत से न जोड़ा हो। विस्थापितों का दर्द उकेरती फ्टिहरी की सिंगोंरियांय् पलायन के बिम्ब खींचती फ्छिपड़ों की रेसय् फ्सारू मिल्दू जब कखि क्वी दानू खांसदूय् जैसे एकाकीपन का रेखांकन करती उनकी लेखनी ने, पहाड़ की लम्बी-लम्बी पदयात्रायें की हैं। 'बस' की छत से बाहर निकली हल की फ्लाटय् फ्कींसा उन्द खुटू स्यूं जुतौं काय् जैसे गीतों में उन्होंने, पर्यटन-व्यवस्था पर जिस कौशल के साथ छींटाकशी की, वह उन्हें पहाड़ का विलक्षण साहित्यकार बनाता है। पहाड़ के रीति-रिवाज, सम्बन्ध, सोच, आदि विभिन्न विषयों के नयनाभिराम दृश्य उनके गीतों में मिलते हैं, फ्बगसा तेरू गरू किलै च जादाय् फ्परसी बिटी लगातारय् जैसी पंक्तियों को सुनकर विश्वास नहीं होता कि भोला-भाला सा दिखने वाला यह पहाड़ी चेहरा, पहाड़ के दृश्य-अदृश्य जीवन को, अपनी 'लेजर-रे' जैसी पैनी नजरों से पढ़ता रहा है ...। दर्शन के स्थानीय तर्क देता, पहाड़ की कांख में गुदगुदी करता, श्रव्य-व्यवस्था के भड़ीकीले दैत्य को, अपनी )षी-लेखनी से देवप्रयाग की तरह तीर्थ बनाता, पौड़ी-गांव में अपने घर की उस तिवारी में बैठकर, दृश्यों की इंजनीयरी करता, यह शब्द-पण्डित, आज पहाड़ी गीत-संगीत की दुनियां में दंतकथा बन चुका है।
नरेन्द्र सिंह नेगी, पहाड़ के माथे पर सजा हुआ 'ज्यूंदाल (अक्षत) है... क्योंकि नेगी ने पहाड़ के साहित्य को कलम-ब( करने के योग्य बनाया है। क्योंकि उन्होंने विशु( पहाड़ी और मौलिक बिम्बों की प्रार्थनायें गढ़कर, देवभूमि के स्थानीय वांग्मय को पुनः स्तुत्य बनाया है। पहाड़ी शब्दों को फ्खोली के गणेशय् के चरणों का निर्माल्य बनाने के योग्य बनाया है ... 'हलन्त' उनके कृतित्व को प्रणाम करती है। सर्वशक्तिमान से प्रार्थना है कि लोककलाओं का मर्मज्ञ यह यक्ष, लोक-सुरों को वाणी देता यह रस-गन्धर्व, पहाड़ी जीवन में सौ शरदों तक यूं ही मिश्री घोलता रहे।