सावन का महीना


वर्षा ऋतु तृष्णाओं का तृप्त गीत है....उस अदृश्य शक्ति के प्रांगण में प्रकृति का मंगलाचरण है...अनन्त सत्ताओं तारा मंडलों और नीहारिकाओं को चित्रित करने वाले उन परम हाथों द्वारा किया जाने वाले यह वार्षिक जलाभिषेक पृथ्वी को दिया गया परमात्मा का आशीर्वाद है। भूमि के गर्भ में छिपे असंख्य बीज अंकुरण की किलकारियों से धरती की कोख को हरा करते हैं, कीट पतंगे जीव जन्तु काम के परासंकेतों पर वर्षा ऋतु के संगीत की जीवंत रचना करते हैं, पृथ्वी की दशों दिशाएं जल तरंगों की इस ताल पर नृत्य की भंगिमा भरती हैं।
मनुष्य प्रकृति का उत्सव प्रतिनिधि है...हमारे मनीषियों ने चतुर्मास में आन्तरिक यात्राओं का आग्रह किया है। पुराने समय की कठिन परिस्थितियों में समुद्र एक भय था। वर्षा ऋतु में समुद्र का रूप धारण करती नदियां, नाले, तालाब व्यक्ति के आवागमन को बाधित करते थे, तभी तो संयम, व्रत के प्रावधान वर्षा ऋतु में औषधियों की तरह काम करते रहे हैं। वर्षा ऋतु के जल की तरह यदि मन की बाढ़ को नियंत्रित किया जाय, आत्म नियन्त्रण की डोरियों द्वारा प्राकृतिक नियमों से बंधा जाय, सुपाच्य मौसमी सब्जियों का सेवन हो, तो वर्षा ऋतु जीवन को सावन के झूले की सबसे ऊँची पेंग बना सकती है।
पहाड़ी जीवन में वर्षा ऋतु, घनी चादर के बीच घुघुति के दर्दीले स्वर सुनके रिमझिम रोती है। एक हाथ में गोसे का धुंआ  और दूसरे हाथ में थेगड़ी लगा बांस के हत्थे वाला छाता, कीसे में अल्पाहार, गढ़वाल के उस गोपालक का कठिन जीवन कभी मोहक  भी लगता है। कोहरे के फायदा उठाकर पशुधन पर लालची निगाह लगाए तेंदुवे को हम बिल्ली की तरह हट-हट कर भगाते थे।करैं पक्षी की आवाज अलार्म  का काम करती थी। एकाकीपन में घसियारी टोली के बाजूबन्द और खुदेड़ गीत उन पहाडों की लोक ऋचाएं हैं। उसी पीड़़ा से अभिमंत्रित पहाड़ की लेखनी पन्त से लेकर बर्त्वाल तक इस उपेक्षित भू-खण्ड को परिभाषित करती रही है। वर्षा ऋतु नरेन्द्र नेगी की प्रिय ऋतु लगती है। उन्होंने वर्षा ऋतु पर मूसलाधार लिखा है।
आकाशीय जल और फसल चक्र के आपसी संबंध से मानव ने ऋतु के वर्तुल को समझा। समुद्र, नदियां, हिम शिखर, पर्जन्य अर्थात् पानी अपने प्रत्येक रूप में पूजा जाने लगा और जल हमारे जीवन का पर्यायवाची बन गया। गोमुख जैसे तीर्थों के श्रीगणेश रचे गये। परन्तु विज्ञान की तीसरी आंख ने जल को औजार बनाकर जब इस उपभोक्ता संस्कृति की नींव रखी, दोहन और भोग की अंधी दौड़ में जल को ही नाव बनाया गया तो जल चक्र का समीकरण अपाहिज हो गया। प्राकृत दोलनों से की गयी छेड़छाड़ के कारण वर्षा विभीषिका बन गयी। बाढ़ चक्रवात सूखा अतिवृष्टि हमारी भोग वृत्ति से उपजे शब्द हैं।
यदि हम आज भी छत से टपकती बूंदों का राग समझ लें बादलों से उसका गन्तव्य और कोहरे से उनका मन्तव्य न छीन लें तो वे महान हाथ प्रत्येक क्षण सतरंगे इन्द्रधनुष की प्रत्यंचा खींचने को तैयार बैठे हैं।
आइये रंग-बिरंगा छाता लेकर गीली सड़क पर वर्षा ऋतु को गुनगुनायें सूर्य और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करें....सावन-भादों की वह झड़ी आंसुओं की निषेधात्मक तुलना नहीं बल्कि तृप्त आत्मा का आनन्द गीत है। समुद्र की अतल गहराइयों और आकाश की अनन्त ऊँचाइयों की यात्राओं के हस्तलखित वृतान्त वर्षा की प्रत्येक बूंद के पृष्ठ पर पढ़े जा सकते हैं...चलिये बादलों के पीछ छिपे हुये मार्तण्ड को अंजुलि भर अर्ध्य देकर उस नियन्ता की करूणा से कृतार्थ हों....उसका स्मरण करें...