सियार लाठी उठाने का समय


एक तैलाक्त झोंके के साथ वह सिटी बस में चढ़ी...रेंगती बस में संतुलन बनाकर वह मेरी बगल वाली सीट में बैठी...मछली-बाजार जैसी उत्तेजक गंध नथुनों से टकराई...इसीलिये हमारे पुराने वांग्मय ने स्त्री को मत्स्य गंधा कहा होगा...तेज गर्मी से उसकी स्याह देह पर उबलता पसीना...उसने उड़ती नजर मुझ पर डालते हुये अपने दो बच्चों को दायें-बायें एडजस्ट किया ... और आभार से मुस्करायी...खड़िया जैसे दांत...आबनूस जैसी चमकती स्याह देह...माथे के बीचों-बीच चमकती बड़ी सी लाल बिन्दी...ठीक उस जगह...जिस जगह हमारे तन्त्र शास्त्र ने त्रिनेत्र बताया है....कहते हैं ईडा और पिंगला नाड़िया इसी स्थान पर एक दूसरे को काटते हुये मस्तिष्क में प्रवेश करती हैं ...योगी लोग इसीलिये इस स्थान पर ध्यान लगाने की सलाह देते हैं...ऊर्जा को इसी स्थान पर केन्द्रित करने से योग की यात्रा आगे शुरू होती है...वैसे तो स्त्री-पुरूष की शारीरिक संरचना नड़ियों के हिसाब से लगभग एक जैसी है लेकिन स्त्री पुरूष के सक्रिय ऊर्जा केन्द्रों के आधार पर उनमें कहीं गहरे भेद योगियों को दिखते हैं...सौर ऊर्जा व्यक्ति में बुद्धि तर्क विज्ञान गणित जैसे विषयों को संचालित करती है वहीं चन्द्र ऊर्जा विवेक अन्तर्मन संगीत और अन्तर्धारा से जुड़े विषयों को देखती है...पुरूषों में सौर केन्द्र सक्रिय होता है इसीलिये वह तार्किक है उग्र है/वह विज्ञान की आंख से देखने में विश्वास रखता है...जबकि स्त्री में चंद्र केंद्र सक्रिय होता है.../ वह अपने विवेक से दुनियां को देखती है। वह आस्था और विश्वास पर चलती है / चंद्र नाड़ी बायीं ओर होती है, इसीलिये स्त्री को वामा कहा गया है।


दो बच्चों को थामें उस वामा का तृप्त मुंह...सीमान्त से बहता सिन्दूर, जीवंत विधायक दृष्टि--- परमात्मा के संगीत को अपने स्मित में घोलकर बस की सीट में बैठी वह स्त्री...वही तो हमारे जीवन की रीढ़ है/  कहते हैं  जिस दिन पुरूष की यह व्यग्र  सौर ऊर्जा...अपने सुप्तचन्द्र केन्द्र से मिल जाती है...वह भव सागर पार हो जाता है...अपने शरीर में उस चन्द्र ऊर्जा से मिलना तो कई जन्मों के सुफल से होता है परन्तु उस चन्द्र ऊर्जा को आप सशरीर एक स्त्री में देख सकते है...वह कमनीय ऊर्जा ही स्त्री में आदिम-आकर्षण पैदा करती है...पुरूष की नाड़ियो में बिजली भर देती है...
'ए! कां जायेगी..'.कन्डक्टर ने अकारण ही स्त्री का अपमान करते हुये उससे रूखाई के साथ किराया मांगा...फिर बच्चों को कुपित दृष्टि से देखते हुये उसने क्षेपक जोड़ा..."अर ये रेजगारी जरा परे को संभाल"--- मैंने कुत्तों को इस तरह अकारण भौंकते देखा है / परन्तु मनुष्य को हमारी नागर व्यवस्था ने एक मौखिक विधान दिया हुआ है...उसका उल्लंघन करते हुये लोग दीन-हीनों पर ही अपना अहंकार  उतारते है और तितली कट स्त्रियों के बैग-पिल्ले चढ़ाते-उतराते ऐसे व्यवस्थापक, दासों की तरह रहते हैं...इनकी तुलना क्यों न शेक्सपीयर के पूंजीवादी कुत्तों से की जाय? उस काली चमड़ी वाली स्त्री को वह फोकट में नहीं ले जा रहा था, तो फिर यह अशिष्ट सम्बोधन क्यों...?
आज इस राष्ट्र में सबसे बड़ी आवश्यकता हिन्दू-हिन्दू मिलन की है...मुगलकालीन दासता के दुर्दिनों में. कई बड़े घराने, गायक, संगीतकार हिन्दू धर्म को बाॅय-बाॅय करके मुगलों की अगूँठियों के रत्न बन गये...परन्तु कुछ हिन्दू ऐसे भी थे जो भले ही किसी विद्या के मास्टर न रहे हों...पर उन्होंने धर्म के इस धन्धे का कड़ा विरोध किया...उन्हें मुगलों का मैला उठाना पड़ा... किन्तु  उन्होंने हिन्दू धर्म नहीं छोड़ा...अब बताईये इतने दृढ़ चरित्र बन्धुओं को छोटी जात कहकर आप किसका अपमान कर रहे हैं...त्रिपुंड और शास्त्र भले ही धर्म का मस्तक होता होगा, परन्तु मस्तक को टिकाने के लिये शरीर चाहिये...ऐसे अनेक हिन्दू जिन्होंने मुगलों को नर्क ढोया...अमानवीय यातनायें सही, परन्तु उन्होंने इस सनातन धर्म के शरीर को कभी भू-लुंठित नहीं होने दिया। मेरी इच्छा हुई कि कंडक्टर को अपनी क्रोधग्नि से भस्म कर दूं...पर ऐसा करने पर यह दुर्बल काया कई बार अपमानित हुयी है। मैं कसमसा कर चुप हो गया। उस मां ने अपमान के उस घूंट को मां-भारती की तरह चुपचाप पिया...घूंट भरते ही उसने मुझे देखा...भारत-माता की पूरी विवशता का अनुवाद उसके चेहरे पर पढ़कर मुझे ७३  वर्षो की स्वतन्त्रता का प्रतिबम्बि दिखाई दिया...
विधान के बलात्कारी इन्द्रों को सरकारी कोष से यज्ञभाग दिया जाता है। खोते-खच्चर सत्ता गलियारों की जूठन चाटकर बुद्धि के सिंहासनों पर खुर सहित बैठ गये हैं....सत्य, शुचिता, चरित्र जैसे शब्दों की फटर-फटर करने वाले अनेक पंखहीन तोते सदियों से महाबलियों के आहातों में टंगे साने के पिंजड़ों में अपना स्वर्ग बना रहे हैं...कौवे शास्त्र-साहित्य रच रहे हैं...हंस अपने शरीर को धो-धो कर सूखे पत्थरों में बैठकर सदियों से छी-छी करके जमाने को कोसते रहे है। रूद्राक्ष स्वयं ही रूद्र बन गये हैं...केले सेब खाकर धर्म ने षंड विचरण करना अपना मुख्य कर्तव्य मान लिया है। भारत वासियों ने लक्ष्मी का पौराणिक रूप नोच लिया है...हमने विष्णुप्रिया को खड-खंड करके उसे अपने विभिन्न छद्म एकाउन्टों में बन्द कर दिया है...टके-टकों में बिककर हम उन पैसों से झूठी प्रतिष्ठा खरीदते हैं...बाजारों से रंग-बिरंगे थैलों में कबाड़ खरीदकर हम विश्व गुरू बनने के सुनहरे सपनों मं बड़बड़ाते है। नारे स्टीकर उठाकर अपनी गाड़ियों में चिपकाते हैं...अहंकार ईष्र्या स्वार्थ का बदला राष्ट्र की अस्मिता से लेने वाले हम बिकाऊ लोगों के ही कारण हमारे विशाल भारत को आठ बार काटा गया...दो टके के सुल्तानों, व्यापारियों, घुड़सवारों ने हमारी निष्ठायें खरीदकर कपिल-गोरखनाथ और शंकर जैसे योगिक योद्धाओं के राष्ट्र को तबेला बना दिया...हमारे समाज में लगभग है घर में लक्ष्मी की खंडित मूर्ति पूजी जा रही है ...परन्तु अनदेखा तो उससे कहीं अधिक घातक और घृणित है...अपना गेहूँ सड़ता है, किसान मरता है...परन्तु हमारे नेता विदेशों से अनाज आयात करते हैं / अपनी गायों को कटवाकर डिम्बाबंद करते है और बाहर से लीद आयात करते हैं / हमारे चरित्र का यह चमत्कार यदि हमारे रक्त में न होता, तो हम गुलाम भी न होते...हमारे चीथड़े न उड़ाये जातें, हमें अपने ही देश में अपने देवालयों के लिये/भिखारियों की तरह अपनी ही जमीन के लिये मरना न पड़ता...भेड़-बकरियों की तरह मन्दिरों में जमा होकर हम अपनी ही याचनाओं की लिस्ट लेकर सदियों से माथा रगड़ रहे हैं....राष्ट्र-समाज कर कल्याण भी यदि हमारी यात्राओं के ध्येय में जुड़ते...तो इस राष्ट्र की मूर्तियों को इस तरह खंडित न होना पड़ता...हमारी ललनाओं को विधर्मियों के आगे गुजरा न करना पड़ता.
उस स्त्री के बहाने अपने जबड़े कसने लगे...तभी सड़क पर मोड़ आया...ऐसे मोड़ राष्ट्रों केे जीवन में आते हैं...सड़क के साथ मैं भी मुड़ा/ आवनूस की तरह चमकती स्त्री के सिर से उसका पल्लू खिड़की की हवा से गिर पड़ा। स्त्री के जूड़े में टंगे पीले फूलों की आभा से ग्रीष्म ऋतु का भयंकर मुख जैसे सौ चन्द्रों की आभा से भर गया..अमलतास के फूलों का एक स्तबक अपने शीश पर टांगे वह साधारण स्त्री एक क्षण में ही कालीदास की कविता बन गई...बाजारों-शो-रूमों में टहलती अनेक महिलाओं को रत्नों, मणियों, स्वर्णाभूषणों से लदा देखता हूँ...उनके रंग-बिरंगे कर्णावंतस देखता हूँ...सड़कों के दोनों किनारे होर्डिग्स पर मादक माॅडलों के विभिन्न प्रयोग देखता हूँ...परन्तु उनमें मुझे चमड़े की ही बदबू आती है...जीवंत पुष्प के मुख पर श्रृंगार के अवतरण को इतनी नजदीक से पहली बार देखा/अपना मन घुल कर विलीन हो गया...अमलतास का पुराना नाम आरग्वध है...लोकप्रचलित नामों में धनबहेड़ा, किरवरा जैसा नाम भी है अमलतास की फली मुश्किल से चार-पांच इंच लाठी की तरह होती है / उस स्त्री के छोटे बच्चे के हाथ में अमलतास की वह फली थी... फली के इस आकार के कारण पूरब में अमलतास का एक नाम सियारलाठी भी है...अर्थात् लाठी का उतना पर्याप्त आकार जो कि सियारों को भगाने के लिये काफी हो...स्त्री ने अपशब्द कहने वाले उस बस कंडक्टर को देखा, और उस छोटे बच्चे ने अपनी माता का अकारण अपमान करने वाले उस व्यक्ति पर वह लाठी चलाई...अपना पन्द्रह-अगस्त उसी दिन मन गया था...
हमारा देशी आदमी जिस दिन अपने स्वभाव को जानेगा/शास्त्रों की लिपि जिस दिन लोकभाषा बनकर वैचारिक अस्त्र बनायेगी...जिस दिन हम अपनी बाड़ मे घुसे सियारों, गिद्धों की पहचान कर लेंगे...उस दिन सिटी बस में बैठी एक साधारण स्त्री भी मां-भारती की तरह सिंहणी बन जायेगी...अभिमान से भर कर वह इस धरती पर अपनी श्रम अपना स्वेद बोयेगी ... उसकी गात की गंध पर गन्धर्व संगीत रचेंगे...उसके श्रृंगार पर ऋतुओं की आधारशिला रखी जायेगी...उसकी नासिका पर धर्म की सुगन्धि होगी...उसके स्मित पर धान का धनधान्य शीश उठाकर नाचेगा...यही सब पाने के लिये तो आखिर लाखों भरत पुत्रों ने अपने रक्त से स्वतन्त्रता का यज्ञ किया था...।