ठर्रे की आर्थिकी से बनेगा माफियाखण्ड



देवप्रयाग की पहचान अब ठर्रे के नये ब्राण्ड से होगी। बीजेपी सरकार सफाई दे रही है कि इस शराब संयंत्र की स्वीकृती हरीश रावत ने की थी, इसलिये अबके मुख्यमंत्री तो मजबूरेन्द्र हैं। कांग्रेस जैसी ठरकी पार्टी को यदि भारतीय जनता ने देश निकाला देकर आप लोगों को बैठाया तो क्या इसलिये कि आप भी हमारी आस्थाओं के साथ खिलवाड़ करें? जितने भी प्रयाग हैं वे नदियों के किनारे स्थित हमारे यज्ञस्थल थे। समस्त प्रयाग किसी समय हमारे ज्ञान और चिंतन के केन्द्र हुआ करते थे...वेद )चाओं की ध्वनियां, यज्ञाग्नि से उठता धुआं, देवप्रयाग की भी पहचान थी, चलो यज्ञ न सही, मां गंगा तो है, आप उसे पवित्र नहीं मानते, न सही..उसके पेयजल का एहसान तो मानो, भगीरथ के पुरूषार्थ को ही हाथ जोड़ देते, अरे कुछ नहीं तो पर्यटन स्थल मानकर ही कुछ लिहाज करते प्रभु! चालीस किमी दूर भी देवप्रयाग ही होता है। लोकमानस इन प्रयागों में स्नान करते, रूकते और उस दैविक संस्पर्श से चार्ज होते थे। हरीश रावत ने तीर्थों के तीर्थ देवप्रयाग को सोमरस का केन्द्र बनाया, लोगों को चार्ज करने का यह कांग्रेसी तरीका नया नहीं है...पर त्रिवेन्द्र जी आपने क्या किया? राजस्व के लिये कल बदरीनाथ में भी ठेका खुलवाओगे? वैसे जब से राज्य में बीजेपी आई है, लोग इसे हरीश रावत की अनुकृति ही मान रहे हैं। हरीश रावत की पूरी टीम राज्य में आज भी सक्रिय है। हो भी क्यों नहीं, अधिकतर कांग्रेसी फिर मजबूरेन्द्र सरकार में हैं। जिन संगठनों को बोलना था, उनके अपने स्वार्थ देवप्रयाग से बड़े हैं। ठेके, सप्लाई, धुप्पल में नौकरियां, यहां भी कांग्रेसी शैली में सत्ता का रेड़ा गधों से खिंचवाया जा रहा है। हरीश रावत के अपने तर्क थे कि यहां के स्थानीय फलों की फसल हर साल खराब होती है तो इसका उपयोग शराब बनाने के लिये होना चाहिये, क्योंकि पहाड़ में ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था नहीं है। मैं देवप्रयाग का हूं, इस पचास किमी के इलाके में बरगद और पीपल ही मुख्य फसल है, मंडुआ और कोदा उगाने वाले यहां तो कभी थे ही नहीं, जहां थे, वे भी बाघ, बंदर, सूअर और एकाकीपन के कारण भाग चुके हैं। चमोली और अन्य सीमान्त इलाकों में थोड़ा माल्टा होता है, उतने के लिये इतना बड़ा प्लांट? और पीपल से साफ हवा मिलती है,अब हवा से शराब तो बनती नहीं, पर हरीश चंद त्रिवेन्द्र सिंह रावत जानते हैं कि यह बड़े माफियाओं का खेल है। स्प्रिट को बोतल बंद करने का खेल करके वे उत्तराखंड के गांव-गांव तक सोमरस पहुंचाना चाहते हैं, इंडस्ट्रियल कानूनों से बचते हुये भारी मुनाफाखोरी का खेल करने के लिये भाई लोगों ने देवप्रयाग को चुना है। शराब का अर्थशास्त्र उत्तराखण्ड में सब जानते हैं। शादियों से लेकर गुरू लोगों तक, सबकी पार्टियां दारू से सजती हैं। यदि राजस्व और रोजगार का ही सवाल है तो स्थानीय दारू भट्टी वालों को लाईसेंस दे दो, उन्हें बड़ा अनुभव है, उनके संयंत्र, ट्रांसपोर्ट, मैनपावर सब गुप्ता बंधुओं से बेहतर है...चुनावों में देशी रंग भी जमेगा...वोट भी दिलवायेंगे, दारू की ताकत सब जानते हैं। वैसे देवभूमि में क्षमा करें, सब देवता नहीं हैं। हरिद्वार में अंडा-शराब बंद है, पर कुछ ही मील पर रायवाला है, जहां शाम को सबसे ज्यादा गाड़ियां हरि के द्वार से ही आती हैं। उसी तरह देवप्रयाग का समाज क्या बद्रीनाथ से तीन किमी दूर माणा के देशी ठर्रे से अपरिचित है? इसका मतलब यह मात्र ठर्रे का विरोध नहीं है, धर्म भी कोई बड़ा कारण नहीं है, असल में पहाड़ का बु(जीवी बाहरी लम्पटों के इस हस्तक्षेप से गुस्से में है...क्या सरकार ने देवप्रयाग के इस प्रोजेक्ट पर यहां के जनप्रतिनिधियों और जनता को भरोसे में लिया? या हरीश रावत की तरह मजबूरेन्द्र भी कोई खेल कर रहे हैं। सुना है सरकार को शराब के सामाजिक सरोकार नहीं राज्य और अपने राजस्व की चिंता है। इसलिये वे नये-नये प्रयोग करते हैं। यह भी गजब की बात है कि उत्तराखण्ड में जिस शराब के सर्वाधिक उपभोक्ता हैं, वहां साथ ही सर्वाधिक आंदोलन भी शराबबंदी को लेकर होने ही थे, पर दोनों काम सालों से जीवनसाथी की तरह लड़ते-झगड़ते साथ-साथ चलते रहते हैं। कुछ एनजीओ इसमें अपना रस खींचते रहते हैं क्योंकि उनको भी शाम को अपना पव्वा चाहिये। राजस्व शराब से नहीं, दूरदृष्टि वाली नीतियों से आता है, नरेन्द्र नेगी को अपना कवच बनाने से अच्छा होता कि त्रिवेन्द्र सरकार ऐसी योजनायें लाते जिनसे भले ही उनके शासनकाल में फायदा न हो, पर आने वाली राजनीतिक पीढियां उन्हें एक दूरंदेश मुख्यमंत्री की तरह याद करते। औली की शादी में दो सौ करोड़ का शोर मचाया गया, कौन बना करोड़पति? उस शादी में सब कुछ इम्पोर्टेड था, हां कुछ गवैय्ये पहाड़ के थे...पहाड़ के लोगों के लिये वे तीन सौ कुंतल कचरा छोड़ गये...और छोड़ गये अपने अतिथियों का मल...लो मिल गया राजस्व...यदि यह सरकार त्रिजुगीनारायण में इस शादी को करवाती तो यह पौराणिक रूप से भी, पर्यटन की दृष्टि से भी अदभुत होता...वहां की सड़क इन पूंजीपतियों के पैसे से टनाटन करवाई जाती और लोकल लोगों के घर अतिथियों के रहने के लिये उपलब्ध करवाये जाते...तो हो सकता है धार्मिक भावना से जुड़कर भारत के अनेक पैसे वाले लोग इस शिव-पार्वती के विवाह स्थल को अपने बच्चों के पाणिग्रहण के लिये चुनते...स्थानीय लोगों की आर्थिकी सुधरती...शौच और गंदगी के ढ़ेर नहीं लगते...मैंने त्रिजुगीनारायण जब पहली बार देखा तो देखता रह गया...ऐसी अदभुत शांति, भोला प्राकृत समाज और सामने हिमालय की सुनहरी चोटियां...यह हिन्दुओं का अन्तर्राष्ट्रीय वेडिंग सेन्टर क्यों नहीं बन सकता...पहल तो हो...पर यहां भी कमीशनखोरी होगी तो औली जैसा ही स्यापा होगा...क्या उत्तराखण्ड में कोई ऐसी जगह है, कोई ऐसा कम है, कोई आइडिया...जहां नेताओं को कुछ सूंघने को न मिले और पहाड़ी लोग दो पैसे कमा सकें..!