उत्तराखंड का पुनरुत्थान

 

उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य, अपनी नैसर्गिक सुन्दरता, अनूठी संस्कृति, जलवायु, वन्य वनस्पति व वन्यजीव  के लिए विश्वविख्यात है । विकास की दृष्टि से उत्तराखंड की सबसे बड़ी समस्या भी इसका अधिकतर पर्वतीय भूभाग का होना ही है जहां के दुर्गम क्षेत्रों में भारी उद्योग स्थापित नहीं हो सकते हैं, जिसके फलस्वरूप इसे मैदानी हिस्सों पर निर्भर रहना पड़ता है। यहाँ की कृषि अधिकतर वर्षा जल पर आधारित है । संसाधनों की दृष्टी में यह राज्य अन्य  राज्यों की तुलना में  अधिक  सम्पन्न है । यहाँ पर जीवनरक्षक जड़ी बूटियों व कई महत्वपूर्ण खनिजों के अपार भंडार है। उत्तराखंड का विकास प्राकृतिक वनस्पति का प्रबन्धन  एवं कृषि के क्षेत्र में वैज्ञानिकों द्वारा  किए गए शोधों के अनुकूल ही कृषि पद्धति अपनाने से संभव हो सकेगा । कृषकों को परंपरागत कृषि  को छोड़कर  वैज्ञानिक व तकनीकी  आधार पर  व्यवसायिक  कृषि के प्रति जागरूक कर , वहां कृषि कार्य को बढ़ावा देना अत्यंत आवश्यक है । स्वरोजगार के अंतर्गत औषधीय वनस्पतियों को चयनित कर  उसको निश्चित भूखंडों में विस्तृत पैमाने पर लगाना , उसकी जानकारी स्थानीय कृषकों  तक पहुंचाकर उनकी रूचि इस और बढ़ाकर इस दिशा में उन्हें स्वालम्बी बनाना मुख्य ध्येय है । यहाँ पर पायी जाने वाली वनस्पतियों का औषधीय उपयोग है । जिनमें अनेक वानस्पतिक प्रजातियाँ अत्यंत दुर्लभ है जिनके अस्तित्व को खतरा है । इनका प्रयोग आयुर्वेद , यूनानी और  होम्योपैथी चिकित्षा पद्धति में किया जाता है । वन उत्पादों से मिलने वाला कुल राजस्व लगभग २०० करोड़ रुपए है । यहाँ के जंगलों में टीक ,साल  , चीड , देवदार  ,बांज ,बांस और रेशा वाली घास बहुतायत मिलती है । वन विहीन बुग्यालों में विभिन्न प्रकार की घास एवं बहुमूल्य जड़ी बूटियां मिलती है । दुनिया भर में हर्बल क्रांति की वजह से  हर्बल उत्पादों का बाजार बहुत व्यापक हुआ है, उत्तराखंड इसकी मांग आपूर्ति हेतु सक्षम है । जड़ी-बूटी की खेती को बड़े पैमाने में फैलाया जाना है जिसके लिए सभी को एक जुट होकर जागरूकता अभियान फ़ैलाने  की आवश्यकता है । कृषि में भी उन दलहनों को बहुतायत में उगाना है  जिनकी मांग देश विदेश में हो और जिनके जरिये आमदनी के साधन बढ़ सकते हों । इनमें प्रमुख गहथ जो "पथरी" रोकथाम की दृष्टी से औषधीय गुणों से परिपूर्ण है , सोयाबीन  और कोदा " हृदय विकार" रोधक संबंधी है । इसका पेटेंट कर जापान के वैज्ञानिक इसे शिशु आहार हेतु उगाना चाह रहे हैं और "शुगर कंट्रोल" में इसका भविष्य सुरक्षित है । इन उत्पादों को उत्तराखंड सरकार यदि स्वयं अपने हाथों में ले तो  आर्थिक और स्वास्थ्य की दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध होगा । अन्य पहाड़ी राज्यों की भाँति फलों की खेती भी प्रचुर मात्रा में की जानी चाहिए।  फलों में  पहाड़ी फलों के साथ साथ कीवी ,अनार ,बादाम ,सेब ,  अंगूर , नासपाती , अखरोट , लीची , आम , अमरुद एवं नींबू प्रजाति के फलों की पैदावर इतनी बढाई जाये ताकि यहां इन फलों से संबंधित उद्योग लग सकें एवं शेष का अन्यत्र निर्यात भी किया जा सके।  चाय के बागानों द्वारा उत्तराखंड में रोजगार की बहुत संभावनाएं हैं । चम्पावत और घोड़ाखाल तक चाय बागानों को सीमित न रखकर इसका विस्तारण होना चाहिए जिसके लिए स्थानीय निवासियों को इसका प्रशिक्षण देना होगा । इसी तरह उत्तराखंड में खनिज संपदा के अपार भंडार हैं जिनमें चांदी ,आर्सनिक , अभ्रक आदि राज्य की अर्थव्यवस्था को बढ़िया योगदान दे रहें है । दुर्गंम हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाली दुर्लभ वनस्पतियों का उत्पादन राज्य के अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में भी होना चाहिए । तस्करों के हाथों इस बहुमूल्य संपदा का हनन न हो इसलिए औषधीय वनस्पतियों की सुरक्षा एवं  संरक्षण के लिए जन जाग्रति लाना भी अत्यंत जरूरी है ।

 

यहाँ की मिट्टी को उपजाऊ बनाने में बांज वृक्षों को अधिक मात्रा में लगाया जाना चाहिए । विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ पर कृषि केवल वर्षा पर केन्द्रित होती है क्योंकि इन वृक्षों में जल भंडारण की क्षमता अधिक होती है और इसके आस- पास की मिट्टी में नमी बनी रहती है किन्तु इसके विपरीत चीड़ के वृक्ष जमीन को न केवल खुष्क बनाते हैं अपितु पूरे वर्ष भर इसके पत्ते झड़ते रहते हैं ,जिसकी सफाई न करने पर जंगलों में आग लगने के, ये बहुत बड़े कारण बनते हैं । इनकी सूखी पत्तियों का इंधन में इस्तमाल  होते रहना चाहिए और नई पौध को खर पतवार समझ नष्ट कर देना चाहिए। वन प्रदेशों में वहां रहने वाले क्षेत्रवासियों को जल - जंगल और जमीन का सुखाधिकार होना चाहिए । चूंकि बड़े उद्योग दुर्गम क्षेत्रों में स्थापित नहीं किये जा सकते हैं इसलिए अपनी मूलभूत आवश्यताओं की पूर्ति स्थानीय लोगों द्वारा स्वयं की जाना चाहिए । इसके लिए लघु उद्योगों , दुग्ध उद्योग , फल उद्योग ,सब्जी उद्योग , जड़ी बूटियां ,मत्स्य , कुक्कुट एवं जगलों पर आधारित उद्योगों की स्थापना होनी चाहिए । इको टूरिज्म और सुगंधी वनस्पतियों का विस्तारण होते रहना चाहिए । हिमालयन  सोसाइटी फ़ॉर हिमालयन एन्वैरर्मेंटल  रिसर्च (शेर ) इस दिशा में कार्यरत  है और भी ऐसी  योजनायें भविष्य में बढती रहनी  चाहिए । 


 

राज्य में ऐतिहासिक, साहसिक,  प्राकृतिक, सामरिक और धार्मिक पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं  जिसके लिए केंद्र सरकार द्वारा जल - थल और वायु  यातायात से उत्तराखंड को जोड़ना चाहिए । हमारे रचनाकारों ने पहाड़ो के सौंदर्य का वर्णन कर ख्याति प्राप्त की है किन्तु उसकी पीड़ा पर कुछ ही कलमकारों ने अभिरुचि दिखाई  है । पर्यटन  राज्य होते हुए भी मौलिक  सुविधाओ के आभाव में लोग दुर्गम क्षेत्रों के सिद्धपीठों  में जाने से कतराते हैं । पहाड़ों की समस्या आज भी जस के तस है ,कुछेक क्षेत्रों में सुधार अवश्य हुए किन्तु उस रफ़्तार से नहीं जिस रफ़्तार से राज्य गठन के बाद होना चाहिए था और आज भी सरकार इन मसलों में गंभीर नहीं है । सरकार को चाहिए कि वह राज्यव्यापी जनसँख्या व उससे जुड़ी समस्यायों का पता लगाने हेतु अभियान चलाये जिसमें यह तय  हो कि  कितने लोग मैदानी ,कितने निम्न पहाड़ी क्षेत्रों और कितने दुर्गम क्षेत्रों में गुजर बसर कर रहे हैं । एक सर्वेक्षण के अनुसार अधिकतर लोग ऐसे क्षेत्रों में बसे हैं जहां की समस्या अन्य दुर्गम क्षेत्रों से कमतर है । रास्तों का आए दिन टूटना और गरीबी इन लोगों  को अपना दृष्टीकोण बदलने ही नहीं देती तो विकास कैसे आएगा ?  दूर-दराज के  ग्रामीण क्षेत्रों में विधुतीकरण के लिए लघु जल विधुत परियोजना को प्रोत्साहन की  आवश्यकता है । चूंकि राज्य के मैदानी क्षेत्रों में अब बड़े उद्योगों ने अपने पैर फैलाना आरम्भ कर दिए हैं किन्तु दुर्गम क्षेत्रों को मुख्य धारा में जोड़ना इसलिए जरुरी है क्यूंकि हमारे सारे दुर्लभ संसाधन मुख्य रूप से इन्ही स्थानों में है और जब तक पहाड़ों में विकास नहीं होगा तब तक उत्तराखंड के विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती है । पहाड़ो के विकास में केवल सरकार  ही नहीं गैर सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ स्थानीय व प्रवासी उत्तराखंडियों को भी आगे आना चाहिए । स्थानीय व  प्रवासी लोगों की भूमिका अग्रणीय होनी चाहिए । अपनी पहाड़ी विरासत को संजोकर यदि भावी पीढ़ी तक पहुंचाना है, तो हर उस व्यक्ति जो इससे जुड़ा है उसे आगे आना ही होगा । पहाड़ के चहुमुखी  उत्थान  हेतु प्रतिभाशाली  लोगों को पहाड़ से जुड़ना चाहिए । यदि प्रत्येक निवासी और प्रवासी अपने क्षेत्र में लघु विकास कार्य भी अपनाए तो आधी समस्या का निदान स्वयं ही हो जाएगा । युवा  एवं प्रतिभाशाली शिक्षित वर्ग का  पलायन ,पहाड़ की सबसे बड़ी पीड़ा बनी हुई है , जैसा आज तक  कहते आए हैं कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती । इनका उपयोग तो  मैदानी क्षेत्र के लोग करते हैं, इस विचार से अब मुक्त  होने का समय आ गया है । आज यदि हम अपना दृष्टिकोण बदलें तो पहाड़ का पानी भी और पहाड़ की जवानी भी पहाड़ के काम आ सकती है । उत्तराखंड में खोज , शोध और अनुसंधान  केन्द्रों  की बढ़ोतरी होनी चाहिए जिसमें प्रवासी लोग अग्रणीय भूमिका  निभा सकते हैं । साहसिक पर्यटन  हेतु भी लोगो को आकर्षित  किया जाना चाहिए। यहाँ जरुरत है दूरदर्शी दृष्टिकोण , प्रेरणादायक व उत्साहवर्धक वातावरण की जिसमें  पुनर्जागरण के साथ-साथ  राज्य की सांस्कृतिक  मौलिकता  भी बनी रहे । हमारे युवा वर्ग को शारीरिक श्रम व जोखिम उठाने में उत्सुकता दिखानी चाहिए । उत्तराखण्ड  समाज में  जातिय मानसिकता की कलुषता  आज भी पहाड़ की उन्नति में रूकावट बना हुआ है । कार्यकुशल होने के बावजूद कार्य करने का निर्धारण  और चयन जातीय अनुसार ही होता है ।आज के अत्याधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर को संघर्षशील युवा पीढ़ी की आवश्यकता है जो पहाड़ों में नव चेतना का निर्माण करे व बड़े पैमाने में हुए पलायन को पुन: स्थापित करवाने हेतु स्वरोजगार के नए आयामों  को अपनाएं । शिक्षा  के पाठ्यक्रम में युवावों  का भविष्य संवारने का प्रयत्न व कृषि सम्बन्धी जानकारी सम्मिलित होना अनिवार्य किया जाना चाहिए । अब सामरिक दृष्टि से अपने उत्तराखंड के पुनरुत्थान का समय आ गया है । बाह्य सीमावर्ती  देशों का प्रभाव और अराजक तत्वों का  हमारे खाली पड़े गांवों पर गिद्ध दृष्टि को रोकने के लिए हमें रिवर्स पलायन के तहत पलायन को रोकना पड़ेगा  तभी हमारे गांव समृद्ध हो पाएंगे। जो प्रवासी पहाड़ी अपने पहाड़ों के विकास में आगे आना चाहते  हैं उनके लिए सांसद अनिल बलूनी जी एक मुहिम लेकर आए हैं  जिसके प्रथम चरण में  'अपना वोट अपने गाँव'  कार्यक्रम अपने चरम पर है ततपश्चात अपनी रीतिरिवाज़ ,परंपरा ,मेले ,त्योहार ,स्वरोजगार और पुनर्वास इसमें शामिल होते जाएंगे। जो लोग अपने घरों को लौटना चाहते थे  लेकिन सरकार की उदासीनता के चलते नहीं लौट पाए उन्हें "अपना वोट अपने गांव" के तहत पुनः अपने घरों से जोड़ने का काम किया जा रहा है जो कि एक अत्यंत सराहनीय कदम है । जीवन की आपाधापी से कुछ समय निकालकर जब एक कदम हम अपने गांव की ओर बढ़ेंगे तो निश्चित तौर पर  उत्तराखंड का  सर्वांगीण विकास होना संभव है। आइए हम सरकार की नीतियों के साथ-साथ अपने दायित्व का भी निर्वहन करें । अपने सपनों का उत्तराखंड ,उन्नत उत्तराखंड के निर्माण में अपनी सहभागिता निभाएं ।