क्या है ॐ


माण्डूक्योपनिषद से ओउम् ईश्वर के विषय में कुछ ज्ञान पुष्प आत्म सुख व ब्रह्ां ज्ञान का आधार  है। उपनिषिद हमारी प्रगति का आधार हमारी प्राचीन संस्कृति व सभ्यता है। आत्म निर्माण व आत्म सुखों की बुनियाद वेदों और उपनिषिदों में पायी जाती है। उपनिषिदों में ज्ञान के मूल तत्व दिये गये हंै जिन्हांेने आदि युग के ऊषा काल से अब तक हमारे आध्यात्मिक-धार्मिक-सामाजिक इतिहास को ढ़ाला है और जब-जब हमने ठोकरें खायी तब-तब हमारा उपनिषिदों की शिक्षाओं से ही विमुख हो जाना रहा है। आज वेदांे और उपनिषिदों की शिक्षा पर चल कर ही हम अपनी संस्कृति व सभ्यता को बचा सकते हंै। उपनिषिदंे मनन के विषय है। उपनिषिदों की रचना भिन्न-भिन्न )षियों ने अपने तप द्वारा साधना करके व्यक्त की है। माण्डूक्योपनिषद में ओउम् का सार यह है-


             ओमित्येतदक्षरमिदं सर्व तस्योवव्यारवानं भूतं भवद भविष्यदिति
             सर्वभोकांर एव यच्चान्यरित्रकालातीतं तदप्योंकार एव। 
अर्थात ओउम् यह एक छोटा सा अक्षर है,परन्तु निखिल संसार इसी एक अक्षर की व्याख्या है। भूत -वर्तमान-भविष्य-सब ओंकार का ही विस्तार है। जो भूत-वर्तमान या भविष्यत-इन तीनो कालो में नहीं समाता जो भी कालातीत है, वह भी ओकांर का ही प्रसार है। सर्व झेतद ब्रह्यायमात्मा ब्रह्यं सोरयमात्मा चतुष्यात। ;मण्डूद्ध अर्थात यह सम्पूर्ण विश्व बह्मांड-बह्म है, अर्थात् बह्म का विस्तार है। इसी प्रकार हम सब का यह पिंड भी ब्रह्म है, अर्थात् जैसे ब्रह्माड में ब्रह्म का विस्तार विश्व है, वैसे ब्रह्म की भांति पिण्ड में जीव का विस्तार शरीर है। आत्मा के अर्थात् ब्रह्माड में ब्रह्म का तथा पिंड में जीवात्मा के चार वाद हैं, इन दोनों की अनुभूति के चार स्थान हंै, चार जगह हैं, जहां इन्हें पाया जा सकता है-


         जागरितस्थानों बहिः प्रज्ञः सप्तांग एकोनविषति
          मुखः स्थूल भुवैश्वानरः प्रथम पादः। (माण्डू)
अर्थात आत्मा जीवात्मा तथा ब्रह्म का प्रथम पाद वह स्थान है जिसे हम शरीर तथा प्रकृति की जाग्रत अवस्था  कहते हंै। शरीर जाग्रत अवस्था में तभी तो आता है जब जीवात्मा जाग्रत स्थान में आ बैठता है। जैसे जीवात्मा के जाग्रत स्थान में आ बैठने पर आंख, कांन, वाणी, फेफडे़, हदय तथा पांव ये सात अंग हंै, वैसे ब्रह्म के विकसित सृष्टि के रुप में प्रकट होने पर अग्नि सिर है, सूर्य चन्द्र आंखें हैं, दिशायें कान है, वेद वाणी है, वायु फेफड़े हैं, विश्व हृदय है, पृथ्वी पांव है।
जीवात्मा की तरह ब्रह्म के भी बहिः प्रज्ञ अवस्था में ये सात अंग है। अतः जाग्रत स्थान में जीव तथा ब्रह्म दोनों को सप्तांग कहा गया है। अंगों का काम संसार का भोग करना है। भोग का प्रतिनिधि मुख है, जीवास्था के पास भोग के 19 साधन है, मुख हैं जिनसे ये संसार भोगता है। 5 ज्ञानेन्द्रियां ़ 5 कर्मेन्द्रियां, 5 प्राण ये 15 बाह्यकरण तथा ़ 4 अन्तःकरण मन-बु(ि-चित्त-अहंकार ये 19 मुख हंै। जिससे जीवात्मा संसार का भोग करता है। वह ब्रह्म भी संसार के सम्पूर्ण प्राणियों के इन 19 मुखों से जाग्रत स्थान पर बैठ कर बहिः प्रज्ञावस्था में जीवात्मा की तरह इन प्राणियों द्वारा स्थूल संसार का भोग करता है।         सोऽयामात्मा अहमक्षर मोऽ कारो अधिमात्रं पादा मात्रा
   मात्राश्य पादा अकार उकारो मकार इति।। (माण्डु)
अर्थात अक्षरांे और मात्राओं से उस आत्मतत्व का वर्णन किया जाये तो उसे ओंकार कहते हैं। अक्षर  और मात्रा में कोई खास भेद नहीं है। अक्षर ही मात्रा है, मात्रा ही अक्षर है। वह अक्षर और मात्रायें अकार, 'ऊकार तथा मकार है। 
 जागरितस्थानो वेश्यानरोरकारः प्रथमा मात्रारप्तेरादिमत्वां
 द्वाप्नोति हऽवै सर्वान्कामानादिश्य भवति य एवं वेद।  (माण्डू)
अर्थात अकार प्रथम मात्रा है, यह जीवात्मा तथा ब्रह्म के जाग्रत स्थान की जिसका वैश्वानर शरीर कहा जाता है, प्रतिनिधि है। जो जाग्रत स्थान वाले जीवात्मा को तथा ब्रह्म को जानता है, उसकी उपासना करता है, वह सब कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। वह सब स्थानों में आदि स्थान मुख स्थान प्राप्त करता है। आदि का 'अ' ओंकार ही अकार है। ओंकार की आकार मात्रा का ध्यान जाग्रत स्थान के जीवात्मा तथा ब्रह्म का ध्यान है। उकार द्वितीय मात्रा है, यह जीवात्मा तथा ब्रह्म के स्वप्न स्थान की जिसका तेजस शरीर कहा गया है, प्रतिनिधि है। जो स्पन स्थान वाले जीवात्मा तथा ब्रह्यं को जानता है, उसकी उपासना करता है, उसका उत्कर्ष होता है, वह अपने कुल में तथा समाज में ज्ञान का विस्तार करता है। उत्कर्ष का उ ओंकार का उकार है। वह उभय स्थिति प्राप्त करता है। जहां दो पक्ष हों, वहाँ वह दोनो पक्षों में आदर प्राप्त करता है। उसकी दोनो पक्षों के लिये समान स्थिति हो जाती है। उभय का 'उ' ओंकार का उकार है। ओंकार की उकार मात्रा का ध्यान स्वप्न स्थान के जीवात्मा तथा ब्रह्म का ध्यान है। जो इस प्रकार उकार की उपासना करता है, उसके कुल में अब्रह्मवित-ब्रह्म को न जानने वाला नहीं होता है। मकार तृतीय मात्रा है यह जीवात्मा तथा ब्रह्म के सुसुप्त स्थान की जिसको प्राज्ञ शरीर कहा गया है, प्रतिनिधि है। जो सुसुुप्त स्थान वाले जीवात्मा तथा ब्रह्म को जानता है, उसकी उपासना करता है, वह सम्पूर्ण विश्व को मिनोति उसे माप लेता है, उसकी चाह पा जाता है। मिनोति का 'म' ओंकार का मकार है। वह विश्व की 'इति' उसका अन्त भी पा लेता है। जैसे 'म' स्पर्श-व्यजनों का अन्तिम अक्षर है, वैसे सुषुुप्तावस्था प्रकृति की 'इति' अर्थात् अन्तिम अवस्था है। जो इस प्रकार मकार की उपासना करता है, वह सम्पूर्ण संसार की था पा लेता है, अन्त पा लेता है।
अमात्रश्चतुर्थो अव्यवहार्थः  प्रपत्रचोपशःमः अशिवो अद्वैत एवमोकार।
आत्ममेव संविषत्यात्मतः आत्मानयः य एवं वेद य एवं वेद। (माण्डू)
अर्थात्ः मात्रा रहित ओंकार चतुर्थ है। जैसे शरीर की जाग्रत अवस्था, स्वप्नावस्था तथा सुषुप्तावस्था मंे से निकल कर जीवात्मा अपने चतुर्थ रुप में आ जाता है। जैसे प्रकृति की जाग्रतवस्था, स्वप्नावस्था, सुषुप्तिवस्था से निकल कर ब्रह्म अपनी तुरीयवस्था में आ जाता है। वैसे अ-उ-म् इन जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्त अवस्थाओं के प्रतिनिधि तीन मात्राओं से प्रथक ओंकार का अमात्र रुप भी है। जो ओंकार के इस रुप को जानता है वह बाहर न भटक कर आत्मज्ञान द्वारा अन्तरात्मा में प्रवेश कर जाता है। जिस वस्तु को हम नहीं जानते उसके जानने का एक ही उपाय है कि ज्ञात द्वारा हम अज्ञात को जाने। इस उपनिषिद में ब्रह्म को जानने के लिये ज्ञात से अज्ञात का आश्रय लिया गया है। हम अपने विषय में कुछ जानते हंै वह ज्ञात है, जो पिण्ड में है वही बह्मांड में है। अज्ञात को हम पिंड के ज्ञान से जान जाते है। अर्थात् जीवात्मा के ज्ञान से ब्रह्म का ज्ञान हो सकता है। ओउम् अपने आप में एक सम्पूर्ण मंत्र है, और संसार के जड व चेतन तत्वों में ओउम् की ध्वनि प्रवाहित हो रही है। ईश्वर में शब्द की उत्पति 'अ' से की है, ओउम् ध्वनि में स्वाभाविक रुप से ध्वनित हो रहा है। संसार की प्रत्येक बोल-चाल की भाषा में 'अ' अवश्य आता है जैसे राआम-सीताआ आदि। यदि हम कानांे को बन्द करके ओउम् की ध्वनि सुनेंगें और ओउम् के उच्चारण सें हमारे शरीर की सम्पूर्ण नस नाड़िया सक्रिय हो जाती हैं। बस आवश्यकता है ओउम् की ध्वनि संग जुड़ने की बस। आत्म शांति का मार्ग केवल ओउम् जप ही है।