परसों कहीं से हारमोनियम पर रामलीला की धुन ने मन के तार हिला दिये हैं। देवप्रयाग में रामलीला उस समय नहीं होती थी जब देश भर में होती है, यही भारतीय समाज का विराट स्वरूप है...हमारी परंपरायें पत्थर की तरह ठोस कभी नहीं हुईं। रामतत्व होना चाहिये, लीला तो कभी भी हो जाये। नवम्बर तक, जब बद्रीनाथ के कपाट बन्द होते थे, पंडे लोग देवप्रयाग लौटते थे, कुछ जेब की गर्मी, कुछ शरद की जाती गुलाबी ठन्ड, रामलीला में उन्मुक्त मन से सब कुछ उंडेल दिया जाता था। स्कूल की छुट्टी के बाद बस्ता फेंककर हम सबसे पहले काली कमली की धर्मशाला में दौड़ लगाते थे...स्टेज के लिये कड़ियां-खम्भे खड़े करने से लेकर, पर्दे-तलवारें, धनुष -मुगदर सारे आयुध, उपकरणों के दर्शन करके ही मन शांत होता था...रिहर्सल रूम में हलांकि बच्चों को दुत्कार दिया जाता था, पर कान लगाके हम राम-लक्ष्मण, सीता, रावण के पात्रों का पहले ही घर पर खुलासा कर देते थे। शेष रहस्योद्घाटन के लिये घन्तू शंकर विद्यार्थी कक्षा पांच की मदद ली जाती थी। घन्तू शंकर रामलीला आयोजन के जन्मजात स्वयंसेवक थे, किसी बच्चे की क्या मजाल कि रामलीला के खड़ताल को छू भी ले। कक्षा पांच उनकी काल्पनिक पढ़ाई थी और तखल्लुस भी। दरियां, हारमोनियम, तबले जैसे अति संवेदनशील उपकरण घन्तू भाई की देखरेख में अन्दर बाहर होते थे। बदले में रामलीला कमेटी उन्हें भोजन-चाय देने के अतिरिक्त कुछ रामलीला के पात्रों को उसके लिये आरक्षित रखती थी...जैसे सोने का हरिण, सोया हुआ कुम्भकरण, हनुमान की मार खाता हुआ प्रधान राक्षस...इन मूक पात्रों के अतिरिक्त सीता स्वयंवर का एक राजा बन, घन्तूशंकर हर साल डमी धनुष को तोड़ देता था...यह भी एक स्पेशल पुरस्कार घन्तू की मेहनत को दिया जाता था। देवप्रयाग की दूसरी रामलीला भगवान राम के मंदिर की कांख में फैले अहाते में होती थी, जिसे धीरज नेगी जी ने पहाड़ की पहली रामलीला कहा है। देवप्रयाग के दर्शकों को यह अतिरिक्त सुविधा होती। जिस दिन बाह बाजार में वनवास हो, रामविवाह जैसी स्त्रैण लीला हो तो मंदिर प्रांगण में चले जाओ। हलांकि मेरे पिता ने कभी भी हमको दो-तीन दिन से अधिक लीला का भागीदार नहीं बनने दिया, वे रात के दस बजे तक तकुली लेकर बैठ जाते, नन्हें दर्शक नेपथ्य से गूंज रही रामलीला की चैपाईयांे और गणेशा की पैरोडी सुनकर कसमसाते रहते। रामलीला के दो दृश्यों के बीच पब्लिक 'कौमीक-कौमीक' चिल्लाती, इसका अर्थ होता कि गणेशा कुछ सुनाये, या फिर हारमोनियम मास्टर ओमप्रकाश ध्यानी और बुदद्दू तबलची किसी गढ़वाली गाने पर धुन काटें। यदि गणेशा किसी पात्र के वेष में न हुआ, दूसरे यदि कभी पेट्रोमैक्स की तकनीकी कमी के कारण अंधेरा हुआ तो गणेशा फौरन लालटेन लेकर नेपाली गीत शुरू करता हुआ मंच पर प्रकट होता था। उसके स्वांग में प्रवासी नेपालियों का दर्द होता, अपने देस को याद करते गीत होते, देवप्रयाग में रहने वाले करीब दो-ढ़ाई सौ नेपाली, गणेशा को दिल खोलकर ईनाम देते...प्रवासी होकर रहना और उनका दर्द आज समझ में आता है, तब पहाड़ के लोग नेपालियों को देख हंसते थे। पर रामलीला का असली आकर्षण था, हारमोनियम और तबले की जुगलबंदी, बुदद्दू भाई पेशे से चर्मकार थे, पर देवप्रयागी पंडों की रामलीला बिना उनके तबले के अधूरी थी...आज भी कभी हारमोनियम सुनता हूं, तो यह रामोत्सव याद आता है, प्रभुलीला से इतर अपनी लीला भी चलती थी। यौवन की चैखट में पैर रखते बच्चे का शरद की गुलाबी ऋतु में बचना कहां संभव है...राम भी उन्हें नहीं बचा पाते..नेत्र विनिमय के वे तस्करी आदान-प्रदान, हनुमान जी द्वारा तोड़े गये फलों की लूट, मूंगफलियों की पड़पड़, सब मन में कौंधने लगता है। बच्चे तो इतवार के दिन सुबह-सुबह ही राम-लक्ष्मण के पात्रों को उनके मानवी रूप में देखने पहुंच जाते, होटल में चाय सुड़कते राम-रावण स्वर्ग से उतरे पात्र ही लगते थे।
राम ने कभी लीला नहीं की, वे स्वर्ण मृग के पीछे हमारी इच्छाओं की तरह भागे, वे सीता के लिये एक साधारण गृहस्थ की तरह रोये, माता, पिता, भाई-मित्र, वे जीवन भर एक आम आदमी की तरह इन कसौटियों पर अपने अलौकिक जन्म को घिसते रहे। समाज के नियम और मर्यादायें रामराज्य के कानून बने, कठोर राम ने कभी भी अपने मुकुट को अपने आंसुओं से गीला नहीं किया, वे कृष्ण की तरह चमत्कारी अवतार बन कर समाज में पूजित नहीं हैं, वे एक सद्गृहस्थ की तरह अपनी नित्यचर्या, अपनी करूणा, अपने उस मनुष्यत्व के कारण घर-घर में मंचित हो रहे हैं। इसलिये राम कभी भी समाज से विलग नहीं हो सकते। सुविधा के बिना पदाति राम उस रावण से लड़े जिसके प्रासाद देवताओं से भी अधिक भव्य और समृद्ध थे, उसकी शक्ति, उसकी सेना, उसके योद्धा ...पर राम के पास आत्मबल था। राम सत्य के पक्ष में थे, राक्षसों के आतंक-भय, और उन्माद के विरूद्ध खड़े होकर एक बालक ने जिस तरह अहंकार की लंका को ध्वस्त किया, उस कारण ही आज हर भारतीय अपने गांव-शहर में राम के जीवन का स्मरण कर उन्हें मंचित करता है, यह रावणों को, पैसे की धमक में आतंक फैलाने वालों को हम भारतीयों का सटीक उत्तर है।
लोकलीला में राम