नमस्तस्यै, नमो नमः


तारामण्डलों के उस पार फैले खगोल के महाविस्तार को देख, हमारे मनीषियों ने अन्तर्यात्रायें कर, उस महाचेतना को ही आद्यशक्ति कहा होगा। चेतना के विभिन्न स्तरों से निकला यह धार्मिक आविष्कार, भारतीय अध्यात्म का चिंतन बीज है... वैचारिक ऊर्जा की उसी पुरातन मिट्टी से हमारी संस्कृति के वटवृक्ष का निर्माण हुआ है।
पितृ श्राद्ध समाप्त होते ही आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र आरम्भ हो जाते हैं। 'पितृ श्राद्ध ' भूत हो चुके अदृश्य जीवन को हमारा प्रणाम है, और नवरात्रि की 'घट-स्थापना' एवं 'जौ' की हरियाली, ऋतुगर्भा दिनों की प्रतीक हैं। ऋतुएं वर्ष में दो बार ऋतुगर्भा होती हैं। बसन्त और शरद ऋतुओं के इन नौ दिनों को ऋतुगर्भा माना गया है। प्रकृति के इसी नौ दिवसीय रचनाधर्म को 'नवरात्र' कहा जाता है... जीवन के वर्तुल को परिभाषित करने का यह भारतीय ढंग है। शरद ऋतु का यह संधिकाल, शरीर में हलचल पैदा करता है...शरीर के विकार उभरने लगते हैं...आंतरिक रस-रसायनों और मनोवेगों का प्रकृति के साथ संघर्ष होता है...प्रकृति से सामन्जस्य बैठाने का यह संघर्ष, शरद में ही होता है। इसीलिए जहाँ बच्चों की उम्र की तुलना 'वसन्त' से होती है, वहीं वयस्कों के लिए 'सौ शरदों' की कामना की गयी है।
नवरात्रों के अनुष्ठान और साधना के प्रावधान अकारण नहीं हैं। शारीरिक वेग और व्याधियाँ, व्रत साधना से नियन्त्रित हों...धार्मिक चित्त वृत्ति का रंग, आहार-व्यवहार का परिमार्जन करे तो जीवन स्वयं ही त्यौहार बन जाता है...जैसे कि रजोधर्म के कारण ऋतुमती स्त्री, गर्भधारण के योग्य बनती है...'रज' रचना का केन्द्र है, ... उसी तरह सृजन के इस महायज्ञ में समिधा बनती स्त्री को हमारे मनीषियों ने उच्चासन दिया है...महाप्रकृति के समस्त रचनाधर्म को गर्भ देने वाली वह महाशक्ति, महामाया, स्त्री का वह विराट रूप, वह जगद्जननी ही नवरात्रों की आराध्य देवी है.....'क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा' इन पांच तत्वों के प्रतीक सुगंधी,  जलाभिषेक, दीप, धूप, आदि देवी को अर्पित किये जाते हैं। और पूजा के अन्त में नैवेद्य के निवेदन से प्रकृति के समस्त तत्वों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की जाती है... प्रकृति के विश्लेषण का यह लोक-दृष्टान्त, ये कर्मकान्ड, जीवन में संयम और परिमार्जन लाते हैं....ऋत् के अमृत से आनंदित समाज, साधना से सधता है, रचनाशीलता के आनंद से जुड़ता है।
शरदऋतु में गेहूं, जौ, चना बोया जाता है, वृक्षारोपण होता है...उद्योगों से निबटने के पश्चात ही कार्तिक के पावन-स्नानों की झड़ी लग जाती है/ मालवा और दक्षिण भारत में तो कार्तिक-शुक्ल की प्रतिपदा से ही नववर्ष का आरंभ माना जाता है, वहीं दीपावली में बही-खाते बदलकर, व्यापारी, नव-वर्ष की शुरूआत करते हैं...काल-गणना की यह भारतीय समझ अद्भुत है...बिना कलेन्डर के हजारों वर्षाें से अनपढ़ लोग भी प्रकृति और कालचक्र से बतियाते हैं...नदियों के किनारे होने वाले मंगल-स्नान, समय की वे भारतीय-सुईयां हैं, जिनकी टिक-टिक को हमारे लोग वर्षो से समझते रहे हैं... हमारे ये धार्मिक-स्नान सामाजिक मिलन के केन्द्र हैं...काया को क्षणभंगुर मानने वाला भारतीय-समाज नदियों के किनारे मात्र शरीर धोने नहीं आता, वह पानी में डुबकी लगाकर उन पवित्र जलतरंगों में जातीय-स्मृति के उस आरोह-अवरोह को सुनने भी आता है, जो मन के तारों को प्रतिवर्ष कसकर प्राणों को सुरीला 'वाद्य' बनाता है।
नवरात्रों में 'देवीपूजा' को रामलीला और कृष्ण की महारास लीला से रेखांकित करना, हम जीवंत-भारतीयों की उत्सव-प्रियता का प्रमाण है...सूर्य की तिरछी होती किरणें, अपनी गुलाबी ठंड से धमनियों को गर्माती हैं, यौवन कुलांचे मारने लगता है... वस्त्रों की भाषा बदलती है...रामलीला की चौपाइयां, हारमोनियम की धुनें, मन में अलग सी उदासी भरती है...शरद-ज्योत्सना की ठंडी-आग, यौवन के पृष्ठ जलाने लगती है...कृष्ण का महारास ऋतु-सम्पादित समाचार-पत्र की तरह प्रत्येक व्यक्ति की दिनचर्या में हस्तक्षेप करने लगता है, नुकीला होता शीत, जीवन को खटखटाता है, शरद शरीर को मांजता है...इसीलिये वयस्क जन, खीर के कटोरे चांदनी में रख उस ऋतु-अमृत से सौ-शरदों को देखने की कामना करते हैं...शरद से लेकर बसन्त के धमाल तक के ऋतुचक्र को हमारे देश मेें धार्मिक-पुस्तक की तरह पढ़ा जाता है। भौगोलिक-परिवर्तनों को पर्व-त्योहारों का नाम देकर हम भारतीय अन्तरिक्ष में बैठे उस अध्यक्ष की सत्ता को ही प्रणाम करते हैं ।
अष्टमी पूजन के उपरान्त दशमी तक जब कोई पुरोहित आपको जौ की हरियाल देगा...तो ध्यान रहे, यह रजोधर्मा जगद्जननी का आशीष है। ऋतुगर्भा हुयी प्रकृति का गुणसूत्र है...ये मामूली से दिखने वाले कर्मकान्ड उस गूढ़-दर्शन के संवाहक हैं जो प्रतिवर्ष प्रकृति की तरह हमारे समाज को भी नूतन करते हैं...इसीलिये कृतार्थ समाज नौ रात्रियों तक मां के चरणों में शीश नवाकर गाता है...नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नमः।