आदमी होना वास्तव में सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ सौभाग्य है। जीतने, जूझने, जानने और जीवट प्रदर्शन की जितनी खूबसूरत संभावनाऐं लेकर आदमी पैदा हुआ है उतनी संभावनाऐं प्रकृति के किसी दूसरे प्राणी के हिस्से नहीं आयी हैं। सागर की लहरों से लेकर हिमालय की धवल निर्मलता तक, तितली की फड़फड़ाहट से लेकर भ्रमर दल की गुनगुनाहट तक, तैरते बादल से लेकर महकते बुग्यालों तक...सारा का सारा आनन्द आदमी के हिस्से आया है। ईश्वर ने प्रकृति और जीव-जन्तुओं को सुन्दर तो बनाया लेकिन उनकी सुन्दरता को निहारने, जीने, सराहने और उसे कलात्मक अभिव्यक्ति देने का हुनर केवल इंसान को बख्शा है। अपने शिल्प से, शौर्य से, साहित्य से, सृजन और गरिमामय श्रम से आदमी ने काल के कपाल पर ऐसी गौरवशाली इबारतें लिखीं हैं जिन पर उसके वंशज फक्र कर सकते हैं। जीवन की सृजन यात्रा में यकीनन आदमी ने कुछ रंगों को बदरंग भी किया है, अनेक बार उसने जीवन के सहज संगीत को रणभेरियों में बदला है, भूख और आतंक से थरथराते बच्चों में अज्ञान और अहंकार में डूबे आदमी की दयनीयता ही नजर आती है। लेकिन क्योंकि आदमी, आदमी है इसलिए उसे माफ किया जा सकता है। जो नहीं हुआ लेकिन होना चाहिए था उसी को घटित करने के लिए सजग वर्तमान गतिमान है। जीवन में अगर यह खूबसूरत अपूर्णता नहीं होती तो जीना मुश्किल हो जाता। अपने समय और समाज से अनगिनत मुठभेड़ें करते हुए यदि आदमी को सब कुछ हासिल हो जाता तो शायद उसे लगता कि कुछ भी हासिल नहीं हुआ। जीवन में सौन्दर्य उसके कारण है, जो नहीं है पर जिसे पाने की प्यास बाकी है। इसलिए सचमुच पहुॅंच गये हैं वे लोग जिनकी तलाश अभी बाकी है। विजेता बन गये हैं वे लोग जिन्होंने सबसे बडी निर्णायक लड़ाई अब लड़नी हैं।कृमंजिल पा चुके हैं वे बड़भागी यायावर जिनकी जुस्तजू कभी खत्म नहीं होती। असुन्दर की सुन्दरता और अपूर्णता की पूर्णता ने हमारे अस्तित्व की बागडोर को थामें रखा हैै। अपनी सबसे प्रतिष्ठित पुस्तक 'दि लाइफ डिवाइन' में श्री अरविन्द ने आदमी के अपूर्णता बोध को उसकी महानता से इस प्रकार जोडा है-'पशु अपनी जरूरतों की पूर्ति में ही सन्तुष्ट हैं, देवता अपने चकाचैंध में ही सन्तुष्ट हैं लेकिन आदमी तब तक स्थायी रूप से विश्राम नहीं कर सकता जब तक वह किसी उच्चतम आदर्श को न पा लें। सभी प्राणियों में वह महानतम इसलिए है क्योंकि वह सबसे ज्यादा असन्तुष्ट है, वह अपनी सीमाओं के तनाव को सबसे ज्यदा महसूस करता है।' ;पृ0 51द्ध। आदमी को जो होना चाहिए और अभी वह जो है, इसके बीच का फासला ही सीमाओं का तनाव है। अनेक अवसर पर यह तनाव प्रकृति की गोद में जाकर कम होता है क्योंकि प्रकृति हमें हमारे सबसे मौलिक स्वरूप से मुलाकात कराने में सहायक होती है।
मैं सौभाग्यशाली हूॅं कि मुझे प्रकृति के आॅंगन में विचरने का अवसर बार-बार मिलता रहता है। इससे बडी कृपा ईश्वर नहीं कर सकते इसलिए अब मेरी प्रार्थनाओं में सिर्फ आभार ही आभार होता है। सितम्बर के प्रारम्भ में जोशीमठ के निकट भ्यूंडार घाटी और हेमकुण्ड़ साहेब के दर्शन का सौभाग्य मिला। रहस्य और रोमांच की इस यात्रा में आनन्द के सहभागी बने श्री मंजीत सिंह जो राजकीय पी0जी0 काॅलेज जोशीमठ के अर्थशास्त्र विभाग में बतौर सहायक प्रोफेसर कार्यरत हैं। छात्र जीवन में मेरी तरह मंजीत सिंह भी कभी 'कामरेड' थे। शुक्र है हम दोनों क्रांति करने से बच गये। वैसे बराबरवाद का बुखार किसी के जीवन में समय से उतर जाये तो यह अपने आप में किसी क्रान्ति से कम नहीं। माओवाद और वामपंथ के नाम पर विश्वविद्यालय की गलियों मंे आज भी हजारों युवा 'हो बर्बाद- हो बर्बाद' का आत्मघाती दर्शन पढ रहे हैं। एक समरसता और आत्मिक सम्बन्ध होता है मनुष्य और प्रकृति के बीच, जिसकी सघनता का आभास यात्राओं के दौरान ज्यादा जीवन्तता और संजीदगी से होता है। 04 सितम्बर 2017 की प्रातः हम जोशीमठ से चले। मैं अपने स्वभाव के हिसाब से देर में पहुॅंचा। फूलों की घाटी और हेमकुण्ड साहिब का आधार शिविर गोविन्द घाट है। हेमकुण्ड साहिब में सिक्खों के दसवें गुरु गुरुगोविन्द सिंह ने अपने पूर्वजन्म में तपस्या की थी जिसका वर्णन उनके द्वारा लिखित आत्मकथात्मक कविता 'विचित्र नाटक' में मिलता है। हमारी यात्रा का एक उद्देश्य 2013 की आपदा के दौरान भ्यंूडार घाटी में मची तबाही का अवलोकन करना भी था। उक्त आपदा के दौरान खूबसूरत पुलना गांॅव पूरी तरह बह गया और यही नियति पुलना के वाशिंदों के ग्रीष्मकालीन पड़ाव भ्यंूडार गांॅव को भी झेलनी पड़ी। जैसा कि हर आपदा के बाद होता है, अब धीरे-धीरे जनजीवन सामान्य होने लगा है। नये आशियाने बन गये हैं, बच्चों के हाथों में एक बार फिर रंगीन गुब्बारे आ गये हैं और युवा मन के अरमानों का सिर फिर आसमानी है। यही आदमी होने की खूबसूरती है। कोई आपदा या आफत उसके हौसलों पर आज तक भारी नहीं पड़ी है। हर आपदा के बाद आदमी और मजबूत होकर उठा है।
भ्यूंडार घाटी सचमुच प्रकृति का एक दर्शनीय करिश्मा है। 1930 का दशक इस घाटी के भाग्य और भविष्य के निर्माण में मील का पत्थर साबित हुआ। 1932 मंे घुमक्कड़ तारा सिंह नरोत्तम स्थानीय निवासियों के साथ उस लोकपाल झील तक पहुंचे जहां आज हेमकुण्ड साहिब विराजमान हैं। धार्मिक गौरव की इस कथा में बाबा मोदन सिंह और संत सोहन सिंह के साथ- साथ पुलना गांॅव निवासी नन्दा सिंह चैहान भी महत्वपूर्ण पात्र हैं। 1936 से एक छोटे से गुरुद्वारे से शुरुआत हुई और आज हेमकुण्ड़ साहिब के भव्य गुरुद्वारे की अरदास देश-देशान्तर तक सुनाई देती है। जोशीमठ में सरदार बूटा सिंह और गोविन्द घाट गुरुद्वारे में बेहद संजीदा इंसान सरदार सेवा सिंह जी इस गौरव यात्रा को नित नई ऊँचाइयां प्रदान कर रहे हैं। 1930 के दशक की दूसरी महत्वपूर्ण घटना अंग्रेज पर्वतारोही, वनस्पति विज्ञानी और यायावर फ्रेंक एस0 स्माइथ का भ्यूंडार घाटी में विचरना है। बहुत से लोगों को मंजिलें भटक कर मिलती हैं और स्माइथ के साथ भी यही हुआ। आषाढ़ के आखिरी दिनों में 09 जुलाई 1931 को काॅमेट पर्वत का सफल आरोहण कर लौटते हुए ब्रिटिश पर्वतारोहियों का एक दल रास्ता भटक कर फूलों की घाटी में पहुँचा। दल में स्माइथ के अलावा आर0 एल0 होल्सवर्थ, ब्यूमान, कैप्टन बिर्नी, मिस्टर शिप्टन और डाॅ0 आर0 सी0 ग्रीन थे। घाटी में फूलों की विविधता और विस्तार से अभिभूत स्माइथ ने 1937 में दोबारा भ्यूंडार घाटी का भ्रमण किया और 1938 में 'द वैली आॅफ फ्लावर्स' पुस्तक लिखकर फूलों के इस संसार से संसार को परिचित किया। उनकी इस पुस्तक को पढ़कर ही 1939 में अंग्रेज वनस्पति विज्ञानी मिज जाॅन मार्ग्रेट लेग ने फूलों की घाटी का भ्रमण किया। यात्रा के पाँचवें दिन यानि 04 जुलाई 1939 को फूलों की घाटी मंे ही पैर फिसलने से लेग की मृत्यु हो गई। फूलों के संसार में हमेशा के लिए विलीन होकर वह इस नन्दन कानन का एक अनश्वर फूल बन गई। उनकी मजार घाटी में सैलानियों के आकर्षण और मूक श्र(ा का जीवन्त तीर्थ बन गई है।
2013 की आपदा के पश्चात गोविन्द घाट से पुलना तक हलके वाहनों के लिए मोटर मार्ग बन गया है। लगभग 12 बजे पुलना पहुँचकर हमने आपदा की निशानियों का अवलोकन किया और तत्पश्चात यात्रा प्रारम्भ की। भ्यूंडार घाटी में पैदल यात्रा मार्ग पर साफ-सफाई की व्यवस्था काबिल-ए-तारीफ है जिसका श्रेय मूलतः स्थानीय निवासियों की संस्था ईको विकास समिति ;ई0डी0सी0द्ध भ्यंूडार को जाता है। यात्रा पथ पर चलना कितना सुखद था उसे शब्दों मंे बांधना सम्भव नहीं है। गजब की हरियालीकृकृनाना प्रकार के पक्षियों का कलरवकृकृलक्ष्मण गंगा का नाद और भक्ति की शक्ति से उत्पन्न स्पन्दनों के बीच उत्तर दिशा में झरते झरने हमें उस आनन्द का आभास दिला रहे थे जिसे कभी यायावर स्माइथ ने इस रास्ते पर चलते हुए महसूसा था। शान्ति के शब्द से अभिभूत स्माइथ ने अपनी किताब वैली आॅफ फ्लावर्स में लिखा-'हम आसानी से समझ सकते हैं कि कुमाँऊ और गढ़वाल भारत के धार्मिक रहस्यवाद के लिए विशेषतः प्रसि( हैं। क्या हिमालय का कोई इलाका या दुनिया का कोई छोर सुन्दरता और वैभव में इस क्षेत्र का मुकाबला कर सकता है? ;पृ0 31द्ध'। हिमालय शान्ति, सन्त और सात्विकता का विलक्षण पालना है। सन्तों की उपस्थिति हिमालय का भव्यता के साथ दिव्यता प्रदान करती है। दिव्यता की इस भव्यता को पूरी तरह न तौलने के कारण ;जो तौलते हैं वो बोलते नहींद्ध ही आदमी उस पर रहस्यवाद का आवरण चढ़ाता है।
मंजीत सिंह स्वयं एक अच्छे कवि भी हैं और वे भी इस रहस्य से अछूते नहीं रहे। रास्ते में जंगल चट्टी आयी। चट्टी गुलजार थी इसलिए हम उसे मंगल चट्टी भी कहते तो शायद ही कोई बुरा मानता। हमने यात्रा पथ पर चलते हुए उस पुरानी अंग्रेजी कहावत का पूरा पालन किया जिसका हिन्दी तर्जुमा है-'धीरे-धीरे और लगातार चलने वाला ही आखीर में दौड जीतता है'। हम थके, लडखड़ाए लेकिन रुके नहीं। हमारे समय में सैल्फी राष्ट्रीय पागलपन बन चुका है। हमने संकल्प लिया कि हम इस पागलपन से दूर रहेंगे। खुद की आँखों से प्रकृति को निहारना हमें ज्यादा श्रेयस्कर लगा बजाय कैमरे की आँख से स्वयं को निहारना और काल्पनिक आत्ममुग्धता में जीना।
रास्ता सरपीला और उतार चढ़ाव से भरपूर था। लगातार चलते हुए दोपहर दो बजे तक हम भ्यंूडार गांव पहुँचे। चाय पी,कृभारतीय दर्शन पर तर्क-वितर्क किया और मुख पर पानी की छपाक मारकर लक्ष्मण गंगा पर बनाये गये उस तंगतड़ पुल को पार किया जिसे सरकार पिछले चार वर्षों में ठीक नहीं कर सकी है। भ्यंूडार गांव से घांघरिया तक सीधी चढ़ायी है यानी शक्ति, सामथ्र्य, जीवट और श्र(ा की एक और परीक्षा। मुझे इस परीक्षा में मंजीत जी से ज्यादा अंक मिले लेकिन जीवन की सबसे सफल परीक्षा वह है जिसमें सबको बराबर अंक मिले ताकि सब जीतें। किसी की हार से न उपजने वाली जीत सबसे बडी जीत है, किसी के दुःख से न उत्पन्न होने वाला सुख सबसे बड़ा सुख है। उत्तराखण्ड हिमालय की अपनी यात्राओं के दौरान मैंने अक्सर पाया है कि जहां दुकानदार सस्ते होते हैं वहां सामान महँगा होता है। भ्यंूडार घाटी भी इस मामले में अलग नहीं है। यात्रा पथ पर महँगे सामान के रूप में जो 'डाम' हम पर पड़े उसकी चर्चा करके मैं सफर में 'सफरिंग' पैदा नहीं करूँगा। समझदारों के लिए इशारा ही बहुत है और नासमझों के लिए पूरी पोथी लिखना भी बेकार है। हँसते, खिलखिलाते, गुनगुनाते और बड़बड़ाते हुए हम उस बडे़ खर्क पहुँचे जिसे अब विजिटर्स साइट सीइंग पोंइंट का नाम दिया गया है। और जहां हैलीपैड बनाया गया है। उत्तुंग देवदार और सुरई के पेड़ों ने ताली बजाकर हमारा स्वागत किया। 10 मिनट और चलकर हम घांघरिया पहुँचे। जहां यात्रियों के ठहरने की अत्याधुनिक और शानदार व्यवस्था है। फूलों की घाटी और हेमकुण्ड साहिब में रात्रि विश्राम की मनाही होने के कारण यात्री और यायावर शाम को घांघरिया ही लौटते हैं। इसलिए घांघरिया को आप गुलजार नगर आसानी से कह सकते हैं। ;मदमस्त नगर कहने के लिए हिम्मत चाहिए।द्ध घांघरिया में होटल प्रिया हमारा आशियाना बना। दो घंटे विश्राम के उपरांत हम गुरुद्वारे में प्रणाम करने गये और प्रसाद भी हमने गुरु के लंगर में छका। इसी बीच विद्यार्थी केशव से हमारी मुलाकात हुई। गुरुद्वारे के ठीक सामने स्थित अपनी मिठाई की दुकान से केशव ने हमें शानदार जलेबियाँ परोसीं। प्रेम और श्र(ा के स्वाद को सिर्फ महसूसा जा सकता है, बयाँ नहीं किया जा सकता। केशव के सुझाव पर ही हम ईको विकास समिति के नेचर केयर सेंटर में फूलों की घाटी पर आधारित सुन्दर वृत्तचित्र देखा। इसी केन्द्र पर मुझे फ्रेंक स्माइथ द्वारा दो अनमोल किताबें खरीदने का भी अवसर मिला जिनके सन्दर्भ इस लेख में हैं। काॅमेट पर्वत के सफल आरोहण के पश्चात 1932 में स्माइथ ने काॅमेट कान्क्वर्ड ;जीत लिया काॅमेटद्ध और 1938 में अपनी दूसरी यात्रा के उपरान्त द वैली आॅफ फ्लावर्स पुस्तक लिखी। दूसरी पुस्तक के लेखकीय में स्माइथ ने उन कम्पनियों का भी शुक्रिया अदा किया है जिन्होंने उनकी हिमालय यात्रा के लिए बिस्किट और चाॅकलेट की आपूर्ति की। यही हृदय की विशालता है और महान होने की शर्त भी। नेचर केयर सेन्टर में हेमकुण्ड साहिब और फूलों की घाटी पर भारतीय और विदेशी लेखकों की लगभग सभी पुस्तकें और छायाचित्र मौजूद है। हाल में एक पुस्तक 1939 में मार्गे्रट लेग के गाइड रहे नन्दा सिंह चैहान के पोते चन्द्रशेखर चैहान ने भी लिखी है।
05 सितम्बर को हमने तड़के ही अपनी यात्रा प्रारम्भ की। हमारे पास सिर्फ एक दिन का समय था और हेमकुण्ड साहिब, लक्ष्मण लोकपाल तीर्थ तथा फूलों की घाटी का भ्रमण कर हमें जोशीमठ वापस लौटना था। घांघरिया से हेमकुण्ड तक पहुँचने के लिए 07 कि0मी0 की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। प्रकृति आपसे श्र(ा और साहस की पूरी कीमत वसूलती है। एक-एक पग और डग का हमने हिसाब चुकाया। सदियों से आदमी को ऊँचाइयों से बेहद मोहब्बत रही है। जीत लिया काॅमेट पुस्तक के प्राक्कथन में फ्रांसिस यंगहजबंण्ड लिखते हैं-पर्वतों में ऐसा क्या है जो आदमी को इतना आकर्षित करता है?कृनिश्चित रूप से पर्वत में एक ऐसी शक्ति है जो आदमी के भीतर से श्रेष्ठ निकालती है।कृयही वजह है कि आदमी पर्वतों की ओर आकर्षित होता है और बदले में पर्वत उसे आदमी के रूप में ढ़ालते हैं। ;पृ0 15द्ध हेमकुण्ड पहुँचकर सात पहाड़ियों से घिरे सरोवर में स्नाान किया, पावन गुरुद्वारे में शबद कीर्तन सुना, लोकपाल तीर्थ के दर्शन किए और फूलों की घाटी में विचरने के लिए हम नीचे उतरे।
यद्यपि फूलों की घाटी के भ्रमण का सही समय 15 जुलाई से 15 अगस्त तक है जब घाटी का सौन्दर्य अपने शबाब पर होता है। फिर भी जितना बाकी था उतना कम से कम एक कवि के लिए कम नहीं था। हमने पुष्प भी देख्ेा और पुष्पावती नदी को भी निहारा।कृझरनों का पानी भी पिया और भँवरों का संगीत भी सुना। फूलों की इस घाटी में चारों तरफ वातावरण में खुशबू का बोलबाला था। मेरे साथी ने इस ऐतिहासिक विरासत ;जिसे यूनेस्को द्वारा 2005 में विश्व धरोहर का दर्जा दिया जा चुका हैद्ध के संरक्षण पर चिंता भी जताई। 2013 की आपदा से घाटी क्षेत्र को भी नुकसान हुआ है। क्योंकि भेड-बकरियों के चुगान पर प्रतिबन्ध है इसलिए 1982 ;जब इस घाटी को राष्ट्रीय पार्क का दर्जा दिया गयाद्ध से पूर्व की भाँति फूलों को प्राकृतिक खाद उपलब्ध नहीं हो रही है जिसका सीधा असर यहां की जैव विविधता और फूलों की पैदावार पर पडा है। सरकार को इस दिशा में सोचना चाहिए।
एक दिन में लगभग 30 कि0मी0 चलकर हम वापस जोशीमठ पहुंचे। जिन्दगी में ऐसा बहुत कम होता है जब खुशबू का आकर्षण ईश्वर की आकृति में बदलता है और ईश्वर का एहसास इतना खुशबूदार और खुशगवार होता है। घाटी से लौटकर भी खुशबू से पार पाना आसान नहीं है।
फूलों की घाटी में सुगंध की तलाश