सोशल मीडिया और भारतीय समाज


सोशल मीडिया विगत दो दशकों की उपज है और जिस पैमाने पर इसने मानवीय संवाद, विचार विनिमय, आत्म अभिव्यक्ति और लोक विमर्श को प्रेरित,  प्रभावित और नियंत्रित किया है, वह गहन सामाजिक अनुसन्धान का विषय होना चाहिए। मोबाइल के आविष्कार ने जहाँ दो इंसानों के बीच संवाद की चमत्कारिक सुगमता उत्पन्न की है वहीं सोशल मीडिया ने उसे आकाशीय विस्तार दिया है। फेसबुक, आॅरकुट, ट्विटर, याहू, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और भारत सहित पूरी दुनियां में प्रकाश की गति से लोकप्रिय होता व्हाट्सप्प  सामाजिक संवाद को नित नए अर्थ प्रदान कर रहे हैं। इन माध्यमों की प्रभावपूर्णता से विज्ञ हर व्यक्ति अपनी सोशल विजिबिलिटी बढ़ाना चाहता है ताकि उसके विचारों से समाज अवगत हो सके। 
मानव चिंतन और शाश्वत प्रयोगधर्मिता की जिज्ञासा से निकला सोशल मीडिया अपने शुरुआती वर्षो में परी कथाओं जैसा विस्मय लेकर आया और देखते ही देखते इसने देश,  द्वीप और महाद्वीपों को अपने सम्मोहन में ले लिया। आज जहाँ सोशल मीडिया अरबों लोगों के लिए संवाद और सृजन को साँझा करने का माध्यम है, वहीं लाखों लोगों की रोजी रोटी का जरिया है। बदलते प्रतिमानों में  सोशल मीडिया बाजार के भीतर का बाजार है जो न केवल संवाद और विमर्श को नियंत्रित कर रहा है बल्कि दुनियां की राजनैतिक; 2016 में राष्ट्रपति ट्रम्प का चुनावद्ध, राजनायिक और आर्थिक परिस्थितियों को भी जबरदस्त तरीके से प्रभावित कर रहा है। और यही समय है जब एक चिंतनशील समुदाय के रूप में हमें ठहरकर इस पर मंथन करना चाहिए। यह आलेख बहुत संक्षेप में सोशल मीडिया के बड़े-बड़े फायदों और प्रकारांतर में इसके कारण उत्पन्न संकटों / चुनौतियों और समस्याओं पर प्रकाश डालने का प्रयत्न भर है।
दो दशक पहले जब संचार क्रांति के रूप में सोशल मीडिया की शुरुआती दस्तक हुई तो दुनियां भर में इसे हाथों हाथ लिया गया। शुरआत में सोशल मीडिया युवावर्ग को सबसे ज्यादा भाया जबकि धीरे-धीरे उम्र और अनुभव के हर पायदान पर खड़ा वर्ग इसके सम्मोहन में आ गया। सचमुच ! लाखों लोगों को बौद्धिक और भावनात्मक रूप से एक साथ जोड़ने वाला, उन्हें परस्पर वार्तालाप में सहायक बनाने वाला यह प्रयोग अनूठा और संवाद के पारंपरिक तरीकों से बिलकुल भिन्न था। देखते ही देखते दिल के दरख्तों में कैद अनगिनत कहानियां हवा में तैरने लगी...भूले बिसरे चेहरे समय की मार झेलकर फिर स्मृति के पाथेय के सहारे स्क्रीन पर झिलमिलाने लगे...दम तोड़ते रिश्तों को धाद मिलने लगी तो उनकी धमनियों में फिर जीवन की फड़फड़ाहट शुरू होने लगी दर्द-हास्य की, व्यंग्य की, वेदना की, गुस्से की, गफलतों की, अफ़सोस की और  ओज के बेशुमार अफ़साने फिर जिंदगी के आसपास गूंजने लगे ...सोशल मीडिया की ताकत ने फरवरी 2011 में अरब स्ंिप्रग की क्रांति को जन्म दिया और मिश्र, लीबिया और ट्यूनीशिया जैसे देशों में दशकों से गद्दी पर कब्ज़ा किये तानाशाहों की सल्तनत को उखाड़ फेंका। सोशल मीडिया की ताकत के दम पर ही 2018 में 'मी टू' ;मै भी पीड़ितद्ध आंदोलन चला और 50 -50 साल पुराने मामलों में ऐसे लोगों को यौन शोषण के लिए सजा मिली जो अपने अपने क्षेत्रों में ईईश्वर बन चुके थे और जिन्हें सजा देने की सोची भी नहीं जा सकती थी। सोशल मीडिया का वैश्विक स्तर पर दूसरा बड़ा फ़ायदा यह हुआ कि इसने हर आदमी को ओपिनियन मेकर, जर्नलिस्ट और थ्ंिाकर बना दिया। विचार और संवाद कुछ मीडिया घरानों ,चंद समाचार पत्रों, मुठी भर पत्रिकाओं के चुंगल से आजाद होकर विराट फलक पर उतर आया। आलोचना, आक्रोश और असहमति की नयी संवाद संस्कृति विकसित हुईई जिसने पारंपरिक मीडिया को निष्पक्ष और पेशेवर होने के लिए बाध्य किया। हम यह भी कह सकते हैं कि सोशल मीडिया के कारण अभिव्यक्ति की आजादी को सच्चे अर्थों में लोकतान्त्रिक चेहरा, हुनर और ताकत मिल सकी। तीसरा बड़ा फ़ायदा जानने, समझने और देखने को नए फ़लक और पलक देने वाले ज्ञान और सूचना के असीम और अगाध विस्तार के रूप में मिला। एक जन्म में मिलने वाली चीज़ एक क्लिक पर हाज़िर होने लगी। हज़ार अर्जियां जहाँ धूल खाती थीं, वही एक पोस्ट क्रांति करने लगी। दुनियां का एक-एक कोना सुलभ हो गया, दुनियां वैश्विक ग्राम की औकात में सिमट गयी। पुस्तकालय, संग्रहालय और वाचनालयों का सुदीर्घ श्रम बचने लगा। विद्यार्थियों और शोधर्थियोँ के लिए संचार और सूचना का विस्फोट होने लगा... उम्र के कारण हासिये पर जा चुके लोगों का जो एकाकीपन इंसान कम न कर सके, वह सोशल मीडिया ने किया। उक्त सभी प्रमुख कारणों से एक समाज के रूप में हम सोशल मीडिया के चिर ऋणी हैं...।
अब सोशल मीडिया के कुछ गंभीर नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा। सोशल मीडिया का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसके माध्यम से झूठ फ़रेब, अफवाह, षड्यंत्र, दुष्प्रचार, चरित्र हनन और मनोरोग की हद तक जा चुकी अश्लीलता का कारोबार सबसे आसान हो गया है। भारतीय समाज मूलतः भावनात्मक समाज है जो जल्दी भावुक होता है और भड़क जाता है। यही वजह है कि मामूली अफवाहों पर भी धार्मिक/ कबीलाईई / जातीय / सांप्रदायिक दंगे भड़क जाते हैं और हमेशा लड़ने के लिए तैयार बैठे लोग सड़क पर आ जाते हैं। देश और समाज के तौर पर इसकी हमें बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। समाज की इस नासमझी का धार्मिक और राजनैतिक तबक़े के लोग खूब लाभ उठाते रहे हैं। विवेक और समझ के अभाव में सोशल मीडिया जिन्दा बम बन जाता है, इसे समझने की जरुरत है।
सोशल मीडिया की दूसऱी बड़ी चुनौती आतंकवादियों द्वारा इसका व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल के रूप में आयी है। और यह चुनौती मामूली नहीं है। 2012-13 में ईईराक और सीरिया के चुनिंदा हिस्सों पर कब्ज़ा करके 'इस्लामिक स्टेट आॅफ़ ईराक और सीरिया' ;आई. एस.आई. एस.द्ध पूरी दुनियां के जहीन और पढ़े लिखे नौजवानों को अपनी ओर आकषर््िात करने में अगर सफल रहा तो इसकी एक बड़ी वजह सोशल मीडिया है। मानवता के खिलाफ सबसे शर्मनाक अपराधों को अंजाम देने वाला यह समूह भले ही आज मृत प्रायः हो लेकिन उसे मरा हुआ मान लेना गंभीरतम भूल होगी। इस्लामिक स्टेट एक मानसिकता है और तब तक जिंदा रहेगी जब तक मन में जिन्दा है, इसे समझने की जरुरत है। सोशल मीडिया का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग दुनियां भर में राजनैतिक दलों और उनके अंध समर्थकों द्वारा किया जाता है। चरित्र हनन और अफवाह की नई-नई थ्योरियां चलाना इसका शगल है। अमर्यादित भाषा में किसी की भी किसी भी बात पर आलोचना करने वाला गैंग यानी ट्राॅल्स सोशल मीडिया की एक बड़ी चुनौती है जिसका किसी के पास कोई समाधान नहीं है। 
सोशल मीडिया के कारण रिश्तों में दरारें बढ़ गई हैं क्योंकि आमने-सामने के संवाद के बजाय व्यक्ति इस आभासी संवाद को वरीयता दे रहा है। यह एक गंभीर सवाल है जिस पर मनस्विद और समाज विज्ञानियों को सर खपाने की जरुरत है। सोशल मीडिया ने ज्ञान को सुलभ तो किया लेकिन उसे सस्ता भी बना दिया है। पढ़ने, खोजने, जूझने और मौलिक अनुसन्धान की संस्कृति ख़त्म होती जा रही है। लगभग अधपढे और अनपढ़े लोग एक दूसरे से संवाद कर रहे हैं। सोशल मीडिया ने ध्यान चिंतन से लेकर अध्ययन के समय पर डाका डाला है। इसके कारण तकनीकी पर दयनीय हालत तक निर्भर मानसिक गुलामों की फ़ौज बढ़ी है और आत्मघाती तनाव में जबरदस्त उछाल आया है। आज हमारे आस पास का हर आदमी बिना बीमारी की इस बीमारी से पीड़ित है। 
निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया के फायदे और नुकसानों पर व्यापक रूप से विमर्श होना चाहिए क्योंकि यह सवाल हमारे चिंतन, जीवन और भविष्य का है। मेरीदृदृष्टि में ज्यादातर समस्याएं इसे ठीक से न समझने के कारण हैं और इसी वजह से उनका हल संभव है। यही सुकून का पड़ाव भी है।