थोथे बादर क्वार के


इस बार तो लोगों ने भादों का असली रूप देखा। नागरी व्यवस्थाओं को उनकी औकात बताता महाविराट का एक रिमझिम रूपक। नदियां सागर बनी, सड़के नदी, घर,घुटनों तक पानी में खड़े रहे ...ऊफ! बाहर काई, अन्दर फफूंद, विटामिन डी की मारामारी। पूरे महीने अपन बिना धूप के रहे। भादों गया और इस सत्रह तारीख से अपना प्रिय असूज यानि अश्विन, बोले तो...क्वार आ गया है। पर महीने के पहले दिन ही बादल फिर गरजने लगे, इतना गर्जन-तर्जन तो भादों में भी नहीं था। फिर अचानक मुझे रहीम का एक दोहा दृष्टिगत हुआ तो बादलों पर हंसी आ गई। रहीम ने अश्विन के गरजते बादलों की तुलना दिवालिया हो चुके सेठ से की है जो अपनी कंगाली में भी अपने पुराने ठाठ का राग अलापता रहता है-'थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात/ धनी पुरूष निर्धन भये, करैं पाछिली बात'। अब इन बादलों में पानी तो है नहीं पर पट्ठे गरजते कपिल सिब्बल की तरह हैं। रहीम आज होते तो क्वार के थोथे बादलों की तुलना राहुल से ही करते। सत्ता तो गई पर भाई लोग अभी भी मंत्रियों की ठसक में रहते हैं। खैर..शरद जैसी प्रिय )तु में सुरजेवाला जैसे सूजे हुये कांग्रेसियों का जिक्र कर मंुह का जायका क्यों खराब करें। वैसे मुझे रहीम जैसे संत का इस तरह क्वार के बादलों का मजाक उड़ाना अच्छा नहीं लगा। पानी से रीत चुके ये लाल-गुलाबी बादल तो शरद जैसी उत्सवी )तु के सुनहरे मुकुट हैं। अश्विन का महीना लगते ही मेरे कानों में रामलीला के हारमोनियम की आवाज गूंजने लगती है। वे बिना इंटरनेट के मूंगफली तोड़ने वाली रातें कितनी मोहक हुआ करती थीं। रामलीला के साथ ही साथ कितने वनवास, कितने बध होते रहते, कितने चेहरे सत्तारूढ़ होकर हृदय की राजगद्दियों में विराजमान हो जाते थे। आजकल तो अखबार इतने यौन अपराधों की खबरों से भरे रहते हैं, कि शरद और क्वार-कार्तिक की कुशल-क्षेम के लिये एक काॅलम भी नहीं बचता। तब कैसी रामलीला? किसकी अयोध्या? ऐसे समाज में राम तिरपाल में ही तो बैठेंगे? शरद की सारी गरिमा ही चली गई है। यह केवल गूगल का दोष नहीं है। बाजार ने इस बूढ़े देश के ऐन घुटनों पर प्रहार किया है, मोबाइल ने प्रत्येक आदमी को द्वीप बना दिया है। संचार तो है, संवाद भी है, पर नावों के सहारे अखिल सत्ताओं के सागर पार नहीं किये जा सकते। मेले, मंच, मौसम ही हम भारतीयों के जहाज थे, बाजार ने सब छीन लिया। अब हाथ में रखे इस चैड़े चप्पल पर उंगलियां फिराने से समाज नहीं बनते सर जी! प्रकृति को पढ़ने के लिये उसके साथ चार कदम चलना पड़ता है। मैं ऋतुओं का सिरमौर शरद को मानता हूं। बसन्त तो उन्माद और शरीर को मथने-रगड़ने की ऋतु है, यह तो डाक्टरों का बसन्त होता है। क्वार के इन दिनों देखो, गुलाबी ठण्ड, हर उम्र के चेहरे पर प्यार लुटाने को बेताब मन, भूख-पाचन टनाटन...बसन्त में तो प्रकृति कपड़े पहनती है जबकि लोग उतार रहे होते हैं, और अपने शरद में तो मन ऊन के गोलों की तरह रंग-बिरंगा, गुनगुना होने लगता है...ऐसी की तैसी बसन्त की, मुझे तो क्वार के इन सुनहरे बादलों का मुकुट पहनकर मौसमी मुख्यमंत्री बन प्रकृति के राहत कोष से सब कुछ लुटा देने का मन करता है। हमारे पुरखे कितने बड़े समाज शास्त्री थे कि उन्होंने सौ शरदों की कामना की, सौ बसन्तों की नहीं। असूज लगते ही कीड़े-मकोड़े सब समाधिस्थ होने लगतेे हैं, आधी आबादी वैसे ही कम हो जाती है...बंग्लादेशी और रोहिंग्याओं को भी उनके भूलोक भेज दिया जाये तो शरद एकदम डीलक्स ऋतु बन जाये। शरद ऋतु के नवरात्रों में धरा ऋतुगर्भा होती है। उसी महागर्भ के प्रतीक रूप में हर गृह 'घट स्थापना' करता है और जौ की हरियाली के रूप में धरती के प्रसव का उत्सव मनाता है...और इस देश के स्वनाशी वामपंथी, हिन्दुओं को वैज्ञानिक सोच रखने के उपदेश पेलतेे हैं। हिन्दुओं का विज्ञान कवितामय है, उनका दर्शन लोकगीत की तरह गाया जाता है, उनके ऋषि प्रकृति के उपकरणों से जीवन को खेल-खेल में सुलझाते रहे हैं। पर इन पर्व-उत्सवों के वैज्ञानिक पक्ष रखने की कोई आवश्यकता भी नहीं है। विज्ञान बाह्य स्थूल जगत का दर्शन है और धर्म अन्तर्जगत का विज्ञान, दोनों की तुलना करने से अच्छा है कि हम आंख बन्द करके इन नवरात्रों में अंकुरों की पदचाप सुनने की औकात पैदा करें, उन महान भारतीय मेधाओं का स्मरण कर जौ के हरियाल को माथे से लगायें। स्त्री के रणचण्डी बनने की कामना करें, यही आर्षज्ञान के प्रति नतमस्तक होने की भारतीय विधा है। हां, इन दिनों चांद को देखना न भूलिये, कुछ दिन तो गुजारो गोरे चांद के साथ। बाजार के कारण शरद की पूर्णिमा का भी विज्ञापन करना पड़ रहा है। जब पत्रिकाओं को नेताओं के इतने बदसूरत चेहरे छापने पड़ते हैं तो चांद का विज्ञापन कर अपनी प्रिय ऋतु शरद के बारे में दो शब्द कहके अपने उन पुरखे ऋषियों का आशाीर्वचन लेना साम्प्रदायिकता तो नहीं है न भन्ते..?