वृद्धावस्था


वृद्धत्व जीवन की परिपक्व अवस्था है। तन वृ( हो जाता है, मन, बुद्धि , हृदय, चित्त और अन्तःकरण में परिपक्वता के कारण पारदर्शिता बढ़ती जाती है। अतः वृ(ावस्था पारदर्शिता सम्पदनार्थ वरदान है। जीवन में सहज रूप से जिस कार्य क्षेत्र में गहन अनुभव प्राप्त किये हैं, वे ही शिक्षा प्राप्ति के सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। ज्ञान और बोध की प्रक्रिया एक साथ चलती रहती है। नित्य के आचरण से हमे बोध और ज्ञान की अनुभूति सहज रूप से होती रहती है। धर्म निर्दिष्ट शु( अन्न सेवन से प्राण चेतना प्राणवान रहती है जिससे इन्द्रिय बोध यथार्थपरक रहता है। शब्द, स्पर्श, रूप, गंध एवं रस आदि इन्द्रियबोध के तथ्यमूलक यथार्थपरक भावस्रोत हैं। वृ(ावस्था में कर्मेन्द्रियों की सीमायें सीमित होती जाती हैं। प्राणतत्व, जीवचेतना तत्व तथा आत्मतत्व विशेष मुखर होते जाते हैं। चित्त में शिव भाव और ज्ञानेन्द्रियों में शक्तिभाव चेतना 'मम जीव इह स्थित' तथा 'मम सर्वेन्द्रियाणि वांग मनुः चक्षुः श्रोत्र जिह्वा घ्राण प्राणादि पायूपस्थानि' सुप्रतिष्ठित एवं सुवरदानमय है। नित्य संकल्प करने से अमोघ शक्ति प्राप्त होती है। इसी से मन उन्मेषक, परिष्कृत और यथार्थउन्मुख होता है और उसकी निश्चयात्मकता स्वतः दृढ़ होती जाती है। 
वृ(ावस्था में अन्तिम सांस तक स्वश्रयी जीवन और दायित्वबोध चेतना आवश्यक है। गंगा की तरह नित्य प्रवाहमान और बदलते युग परिवेश में अपनी पहचान संस्कृति मूलकता के साथ बनी रहे, आवश्यक है। किसी पर भी हम उपदेश का बोझ न लादेें। मात्र विशु( आचरण की सुवास पुष्प की तरह बिखेरते रहें। सार्वजनिक जीवन में कार्यरत रहने से आचरण के साबुन से युग का मैल स्वतः धुलता जायेगा। हां, भौतिकता की अपेक्षा आन्तरिक समृ(ि के जीवन दीप का टिमटिमाता रहना अपेक्षित है। फलतः हम कहीं भी बोझ नहीं बनेंगे। वरन सबका बोझ हलका करने में अपना यथाशक्ति योगदान देते रहेंगे। 'आवत ही हरसे नहीं, नैनन नहीं सनेह' अर्थात प्रसन्नता पूर्ण एवं स्नेहपूर्ण आचरण करेंगे तो वृ(ावस्था आनंदपूर्ण रहेगी। कटुता मन, कर्म, वचन से रचनात्मक रूप धारण कर लेगी। 
वृ(ावस्था सर्वाधिक उपयोगी हो सकती है। रचनात्मकता के संस्कारों से संस्कारित वृ(ावस्था संस्कृति का रूप धारण कर लेती है। 'सुमति कुमति सबके उर बसहिं' को वृ(ावस्था आत्मसात कर चुकी होती है। अतः सदा सुमति एवं परहित सेवीधर्म का निर्वाह हमारा कर्तव्य है। ऐसी वृ(ावस्था लोकमानस में सदा श्र(ापात्र रही है। आज भी मांगलिक अवसरों पर वृ(ों का आशीर्वाद प्राप्त करने की परम्परा समाज में विद्यमान है। इस संदर्भ में वृ(ावस्था समाज की धरोहर है। श्री काका कालेलकर 'सुभाषित सप्तशती' के संपादक श्री मंगलदेव शास्त्री विषयक भूमिका में लिखते हैं-उम्र में वृ( होते हुये भी शरीर से आपादमस्तक तरूण दीख पड़ते हैं। वेदों का गहन अध्ययन करते हुये भी उनमें जड़ता नहीं आई है। वृ(ावस्था को सुवासमय रखने हेतु सांस्कृतिक, सामाजिक, शैक्षिक, सेवाकीय, साहित्यिक, चिन्तनपरक...संस्थाओं की प्रवृत्तियों में अपनी तन-मन- धन शक्तियों का विनियोग दायित्वबोध के साथ करना श्रेष्ठ धर्म है। अधर्म, अन्याय, अनीति एवं मानवता विरोधी प्रवृत्तियों के सामने आवाज उठाना और रचनात्मक भूमिका का निर्वाह करना वृ(ावस्था का इष्टध्येय बना रहना चाहिये। वृ(ावस्था को सम्मानीय स्थान देने हेतु जीवन में सतत अध्ययन, चिंतन-मनन करते हुये स्वक्षमतानुसार सार्वजनिक सेवाकार्याें में यथाशक्ति योगदान देते हुये जीवन मूल्यों के संवर्धन में समर्पित रहें।
कायरता, स्वार्थपरता, दैववादिता, मृत्युभीरता, मिथ्या वैराग आदि स्त्रैणता में ढ़केलते हैं, पुरूषार्थ को क्षीण करते हैं। सदा आत्मविश्वास, स्वावलम्बन, चरित्र उत्कर्ष, मानवता का सम्मान, श्र(ाभाव, कर्तव्यपरायणता, श्रम और तपस्या द्वारा उत्कर्ष उन्मुख रहने से उदात्त भाव सदा आते जाते हैं...भारतीय संस्कृति के ये बीजतत्व हैं। इन्हीं के द्वारा उत्कर्ष और कल्याण का विस्तार होता है।



वृ(ावस्था का गन्तव्य हैः वसुधैवकुटुम्बकम्। जहां प्रकृति भिन्नता, परिवेश भिन्नता, अवस्था भिन्नता, जाति, धर्म, वर्ण, प्रदेश, भाषा आदि भिन्नतायें मानवता के समुद्र में संस्कृति की गंगा में समा जाती हैं। फलतः कुंठित मानसिकता के अवरोधों से ऊपर उठने का राजमार्ग है-सेवाधर्म को आत्मसात करना। इस संदर्भ में रामकृष्ण परमहंस को एक व्यक्ति ने अपना अभिप्राय दिया-हमें समाज को सुधारना होगा' तो परमहंस ने तुरन्त कहा-सुधारना हमारा काम नहीं, हमारा धर्म है सेवा करना। सेवाधर्म पालन से हृदय पावन, आत्मा प्रफुल्लित और मन निष्कलुष होने से परमात्मा की निकटता बढ़ती है। आचरण मूलक सेवा धर्म प्रेरक होता है। परमहंस जी का एक दूसरा प्रसंग अनुकरणीय है। एक व्यक्ति ने पूछा- साधु के लक्षण क्या है? तो परमहंस ने कहा-तुम्हीं बता दो। उसने कहा-जो मिला खा लिया, न मिला तो सह लिया। परमहंस ने कहा- ये लक्षण कुत्ते के हैं साधु पुरूष का लक्षण है बांटकर खाना, न बचे तो संतोष। यही आत्मचेतना जीवन का पाथेय है।
पुनरूत्थान विद्यापीठ के सौजन्य से 'ज्योतिष एवं वर-वधू चयन' कक्षाओं में मार्गदश्रन दायित्व का सौभाग्य प्राप्त हुआ। विवाह संस्कार आत्मचेतना और दायित्वबोध द्वारा  धर्म, काम और मोक्ष सि(ि में वरदानमूलक हें। ज्योतिष शास्त्र द्वारा वर-वधू चयन प(ति भारत की वैज्ञानिक सोच का परिणाम है। आज के युग परिवेश में समाज पुनरूत्थान में ये कक्षायें मील का पत्थर सि( होंगी। भारतीय संस्कार प(ति मन-बु(ि-चित्त परिष्कार का श्रेष्ठतम विधान है। उत्तम वृ(ावस्था हेतु सर्वश्रेष्ठ साधन है-नित्य श्रीमद्भगवद्गीता का मनन और उसका जीवन में यथाशक्ति पालन। कारण कि यौवन तक पहुंचते-पहुंचते रजोगुण प्रधानता के कारण चपलता, गतिशीलता, वेग स्थिति नियंत्रित करने की तीव्रेच्छा जूझने की वृत्ति, नेतृत्व, तमन्ना आदि की सक्रियता अधिक रहती है। पर आवेश, आवेग, अभिमान, अनुदारता आदि दिशाहीनता की ओर          धकेलती है। यौवन की देहली में कदम रखते ही प्रमाद, आलस्य, जड़ता, विषाद, ऐन्द्रिक लुब्धता आदि हावी हो जाते हैं। परन्तु रचनात्मक प्रवृत्तियां विवेकपूर्ण दिशा देती है। ऐसे जीवन के मोड़ पर वृ(ों की भूमिका आशीर्वाद स्वरूप सि( हो सकती है। रचनात्मक प्रवृत्तियां आत्मकेन्द्रित मनोवृत्ति को आत्मकेन्द्रित कर आत्मविस्तार की दिशा देती हैं। इस संदर्भ में महाभारत शान्तिपर्व का भीष्म पितामह और द्रौपदी प्रसंग हृदयग्राही है। मृत्यु शय्या पर लेटे भीष्म पितामह नीति-अनीति का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं। तब द्रौपदी कटाक्ष और व्यंग्य के साथ पितामह को पूछती है-मेरे चीरहरण की हृदयविदारक घटना के अवसर पर आपकी नीति-अनीति, धर्म कहां चला गया था? तब भीष्म शान्ति से कहते हैं-तब मेरे शरीर में दूषित अन्न से बना रक्त था, अब अर्जुन के बाणों से वह बह चुका है।' अतः अन्तःशु(ि, रक्तशु(ि, प्रााण शु(ि, मनशु(ि, बु(िशु(ि, चित्तशु(ि आदि उत्थान शु(ि हेतु परमावश्यक है। अन्ततः रसो वै सः, आनंद ही परमात्मा है। रोचक प्रस्तुतीकरण एवं अन्तरचेतना के गोमुख हैं- उपनिषद। पंचतंत्र और हितोपदेश सदा आबाल वृ( में रूचिकर हैं। इनके माध्यम से धार्मिक, नैतिक, दार्शनिक और राजनीतिक प्रतिभा का उन्नयन किया जा सकता है। वृ(ावस्था अनुभूतिपरक अनुभवों की     निधि है। उसका निवेश युवापीढ़ी में दीपस्तंभ सि( होगा। तपवृ(, ज्ञानवृ( और लोकउ(ारक नारद मुनि और बाल्मिकी तथा भगवान गौतम बु( और अंगुलिमाल दृष्टांत युगान्तकारी सि( हुये हंै।