भारतीय संस्कृति एवं पश्चिमी उपभोक्तावाद


एक विश्वव्यापी षडयंत्र के चलते विश्व संस्कृति की बात कही जा रही है, जिसमें कि पूरे विश्व की संस्कृति में एकरूपता हो, पूरा विश्व पश्चिममय हो जाए। सभी देशों, विशेषकर तीसरी दुनिया के देशों की धनी संस्कृति इस तथाकथित पाश्चात्य संस्कृति की छत्रछाया में पलकर अपनी आत्मा का परित्याग कर दे और धीरे-धीरे पश्चिम के नीति नियंता पूरब की पहचान मिटाकर इस दुनिया को विश्वग्राम में बदल दें। लेकिन पश्चिम के इस विश्वग्राम की परिकल्पना हिन्दु संस्कृति की 'वसुधैवकुटम्बकम' या सर्वेभवन्तु सुखिनः के मूल मंत्रों से संचालित नहीं है। यह तो संस्कृति सम्पन्न पूरब को अस्मिताविहीन बनाकर उसे उस भ्रम की स्थिति में लाना चाहते हैं, जहां भारत को अंग्रेजों की 300 साल की गुलामी ने ला खड़ा किया था।
समझने वाला तथ्य यह है कि भारतीय संस्कृति और विश्व संस्कृति है क्या? क्या पश्चिम के पास कोई ऐसी साँस्कृतिक धरोहर थी जिस पर वह गर्व कर सकता था? क्या अध्यात्मिक चिंतन के केन्द्र ऋषि- मुनियों के मंत्रों ने अमेरिका और पूरे विश्व को अपना आशीर्वाद दिया था? क्या धर्म की रक्षा के लिए युद्धभूमि में ही भगवत्गीता जैसे महाकाव्य की रचना के लिए पश्चिम के पास उर्वरा मिट्टी थी? क्या भाई के वनवास जाने का समाचार सुनकर छोटे भाई के द्वारा राजपाट छोड़ने की हिम्मत पश्चिम में थी? क्या सीता, गार्गी, मैत्रेई, अहिल्या, सावित्री, एवं शकुंतला जैसी तपस्विनी स्त्रियों की परंपरा वहाँ थी? यदि यह सब वहां होता तो एमर्सन से लेकर टी0एस0 एलीयट तक सभी साहित्यकार पश्चिम जगत के नैतिक अवमूल्यन पर बार-बार चेतावनी देकर भारतीय संस्कृति से अनुप्राणित होने की बात न करते। एलियट ने तो अपनी महान नौबेल पुरस्कार कृति 'द वैस्ट लैंड' का समापन 'हिमवत, गंगा, दत्ता, दयावधवम, दम्यते, ओम् शांति शांति शांति' कहकर कर किया और पूरे काव्य में पश्चिमी जगत में हो रही नैतिक मूल्यों की गिरावट को इंगित किया। पिटस, इएम फास्टर, कीपलिंग और अनेक पश्चिमी साहित्यकारों ने उस जगत को समस्या प्रधान, तो भारतीय भूमि को समाधान माना है। वहां अशांति और हिंसा है, तो यहां शांति और अहिंसा है। वहां फटाफट संस्कृति का बोलबाला है तो यहां भगीरथ की अखण्ड तपस्या का उदाहरण है। अमेरिका से पहले ब्रिटेन ने औपनिवेशिक शक्ति के रूप में उभरकर विश्व को कथित एकरूपता में बांधने का प्रयास किया। आश्चर्य करने वाला तथ्य यह है कि ब्रिटेन किसी फौज को लेकर भारत में नहीं घुसा अपितु ईस्ट इंडिया कंपनी के बहाने व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ाने हेतु उसने घुसपैठ की, लेकिन अंग्रेजों ने इतने वर्षों तक शासन सिर्फ हमारी संस्कृति के ताने-बाने को ध्वस्त करके ही किया। ह्वाइटमैंस बर्डन के झूठे उद्देश्यों से राज करने वाला ब्रिटेन हमको भ्रमित करने में सफल रहा।
सांस्कृतिक अस्मिता के तीन आवश्यक पहलू हैं जिसको अपनाकर हम अपनी संस्कृति के साथ अपने को पहचान सकते हैं, पहला वस्त्र, दूसरा भोजन और तीसरा भाषा। अंग्रेजों ने इन्हीं तीन पहलुओं पर जोरदार हमला किया और भारत का एक बड़ा जनमानस कुछ हद तक उस हमले का शिकार हो गया। कोट-पैंट, टाई, भद्र पुरूष की पहचान है, अंग्रेजी भाषा श्रेष्ठता एवं विद्वता की पहली गारंटी है और छुरी-कांटे से अंग्रेजी भोजन, सभ्यता की निशानी है। मैकाले के द्वारा प्रदत्त शिक्षा प्रणाली से हम स्वतत्रंता के बाद भी गुलाम पीढ़ियां पैदा करते रहे। यही कारण है कि आज भी कई अंग्रेजी पढ़े लिखे लोग शैक्सपियर को कालीदास से श्रेष्ठ मानने का भ्रम पाले हुए हैं। हमारी वेद-ऋचाओं को गडरियों के गीत कहकर नकारने वाले अंग्रेजों ने हमारी संस्कृति पर कई तरह से हमले किए। सबसे बड़ा हमला था कि भारत संस्कृतिहीन है और उसमें गर्व करने जैसा कुछ भी नहीं है। ब्रिटेन के औपनिवेशक शासन का अंत हुआ और यह भ्रम चकनाचूर हो गया कि 'अंग्रेजी राजसत्ता का सूरज कभी अस्त नहीं होता। धीरे-धीरे छोटे-बड़े देश ब्रिटेन के प्रभाव से मुक्त होते गए फिर बीसवीं शताब्दी में कई उतार-चढ़ाव दिखे, पूरा विश्व साम्यवाद और साम्राज्यवाद के दो ध्रुवों में बंट गया। आजादी के बाद हमारे शासकों का झुकाव साम्यवाद की ओर हुआ तथा देश की आर्थिक नीतियों पर साम्यवादी शिकंजा कसता गया। सब कुछ सरकारी होना चाहिए। इस मन्तव्य के साथ हमारी कर्मठता, हमारी पौरूषता और राष्ट्रीयता धीरे-धीरे समाप्त हो गयी। सरकार ही हमारी माई-बाप है, नेहरू की इस नीति ने उद्यमियों और स्वदेशी उद्यमों को हतोत्साहित किया। अपने उद्योगपतियों पर भरोसा न कर सरकारी विभागों को सार्वजनिक उपक्रम का रूप देकर रही-सही कार्यक्षमता भी जाती रही। जिस स्तर पर हर चीज का सरकारीकरण हुआ, उस स्तर पर राष्ट्रीय जवाबदेही कम होती गई। व्यक्तिगत हित राष्ट्रीय हित से ऊपर हो गया। कर्मचारियों और मजदूरों के हित सर्वोपरि हंै, की खोखली साम्यवादी दलीलों के चलते सरकारी खजानांे की लूट शुरू हो गयी। कम्युनिस्ट यूनियनों ने इस प्रवृति के तहत तथाकथित प्रजातांत्रिक तरीके से कारखानों में तालाबंदी शुरू कर दी। काम ठप्प और ऊपर सेे बेतुका नारा 'चाहे जो मजबूरी हो मांग हमारी पूरी हो।'
विश्व में साम्यवाद के पतन के बाद शीतयुद्ध की समाप्ति के चलते अमेरिका ने विश्वग्राम को संचालित करने और तथाकथित वैश्विक संस्कृति को प्रचारित करने का ठेका ले लिया। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में दुनिया एक खतरनाक भूमंडलीकरण से गुजर चुकी है। मौजूदा भूमंडलीकरण एक तरह से उसी की कड़ी है। सिर्फ नेतृत्व बदल गया, उस समय ब्रिटेन था अब अमेरिका है। अमेरिका की यह चैधराहट बाजार के बल पर है। पूरे विश्व की बेलगाम अर्थ शक्तियों का संचालन 'ह्वाइट हाउस' से होता है। उदारीकरण इतना खतरनाक है कि इसने पूरे विश्व की राजनीति, तकनीकी, संस्कृति और सभ्यता को अपने चपेट में ले लिया है और तथाकथित विश्व एकरूप  संस्कृति का जन्म हुआ। 20वीं सदी का अंतिम दशक निश्चित रूप से परिर्वतनकारी दशक कहा जा सकता है। इन दस वर्षों में पश्चिम उपभोक्तावाद की छाया हमारी संस्कृति पर पड़ी है। इसमें टेलीविजन और इलेक्ट्रिौनिक मीडिया की मुख्य भूमिका है। अर्थ के बहाने भूमंडलीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार अमेरिका का एकमात्र उद्देश्य है। भारतीय संस्कृति के लिए हीनता का भाव अंग्रेजों के द्वारा पैदा किया गया है। उसके पश्चात अमेरिका की तेजी से फैल रही विश्व संस्कृति की छाया, कहीं भारतीय संस्कृति को न लील जाय, यही 21वीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में हमें देखना पड़ेगा। पूरे विश्व में पूंजी और न्याय के मसीहा की नई भूमिका में अमेरिका ने पहले खाड़ी देशों में हस्तक्षेप कर अपनी चैधराहट जमाने का प्रयास किया, फिर अफ्रीका, मध्य एशिया और अब दक्षिण पूर्वी एशिया विश्व व्यापार के मानक वही तय कर रहा है। न्यूयार्क के स्टाक एक्सचेंज का प्रभाव मुंम्बई के शेयर बाजार पर पड़ता है। अमेरिका उत्पादक नहीं है, लेकिन पूरी विश्व व्यापार व्यवस्था का वह दलाल है। खरीदेगा भी हमसे बेचेगा भी हमको। अपनी शर्तों में षड़यंत्र के तहत उसने इस दलाल व्यवस्था को पूरे विश्व के लिए अपरिहार्य बना दिया है। इसके बाहर किसी के लिए कोई विकल्प नहीं है। अपनी अर्थ व्यवस्था को विश्वबाजार में खो देना ही हमारी मजबूरी है। यदि आप बाजार नहीं दे सकते तो यह दलाल आपको अपने समाज से   बहिष्कृत कर देगा। यदि किसी देश के पास थोड़ी सी संभावना है तो उसे उपयोग के बाद कर्ज दे देकर मार देगा। जब कोई देश अपनी परंपरागत तकनीकी भूलकर भूमंडलीकरण के इस मायाजाल में एक बार फंस जाता तो वह वहां से निकल नहीं सकता और ऊपर से उसके सारे सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक ढंाचे उथल-पुथल होने लगती है। अपना कहने मात्र के लिए उसकी संस्कृति होती है लेकिन तथाकथित विश्वसंस्कृति इस स्वदेशी संस्कृति को भी छीनने को आमादा है। पश्चिम मीडिया के प्रचार-प्रसार से जिस उपभोक्तावादी संस्कृति का जन्म हुआ, उसने हमारी पहचान हमसे छीन ली।
एक और षड़यंत्र के चलते 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक में सत्ता में आयी किसी भी सरकार ने भारत के अमेरिका का आर्थिक उपनिवेश बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पहले जीवन बीमा निगम, मार्डन फूड, फिर सेल, फिर राष्ट्रीय फर्टीलाईजर्स, अब एयर इंडिया और तेल कंपनियों को बेचकर हमने देश को गिरवी रखने का काम किया है। यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मायाजाल हमारे देश को बहुत जल्दी अपनी गिरफ्त में लेने वाला है। किसी भी वित्तमंत्री या सरकार के पास इतनी दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं है, जो इस देश को इस भ्रमजाल से निकाल पाये। विश्व में अपने सौंदर्य का परचम लहराने वाली भारतीय सुंदरियां इसी पश्चिम उपभोक्तावाद के षड़यंत्र की एक कड़ी मात्र हैं। जो एक तीर से दो निशाने कर रही हैं, शोषण की शिकार हैं, एक तो पश्चिमी सभ्यता के बाजार में प्रदर्शन की वस्तु बनकर तथा दूसरा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विज्ञापन का माध्यम बनकर। पश्चिम उपभोक्तावाद और भूमंडलीकरण ने भारत को क्या दिया, थोड़ा सा परिर्वतन जरूर महसूस होता है कि अब हमारे देश के भिखारी राॅबिन्सन और कसाटा आइसक्रीम के खाली पड़े डिब्बों में भीख मांग लेते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी का जो शोर-शराबा अमेरिका द्वारा मचाया जा रहा है वह भी पूरे विश्व को समेट कर उसकी सुरक्षा व्यवस्था खतरे में डाल अपना गुलाम बनाना मात्र है। कम्प्यूटर और इंटरनेट पंक्ति में खड़े उस अंतिम व्यक्ति के आंसुओं को पोंछ पाएगा? कोई नहीं बता सकता। हम तो बस अमेरिका के इशारे पर दौड़ रहे हैं, कब तक वह हमें दौड़ाएगा, कुछ नहीं मालूम। इस आर्थिक मारामारी में हमारे पास वक्त नहीं है कि हम अपनी संस्कृति की ओर नजर डालें और उससे अनुप्राणित हों।
नारी स्वतंत्रता आन्दोलन भी पश्चिम की ही देन है, जो भारत की युवा पीढ़ी को हमेशा आकर्षित करता रहता है। पश्चिम की नारी आंदोलन मंे आत्मा और विचारों की स्वतंत्रता कम और वाह्य प्रतीकों को ज्यादा महत्व दिया जाता है। जो कि व्यक्तिवादी प्रवृत्ति पर आधारित होकर नारी को परिवार से दूर कर अराजक स्वतंत्रता की ओर ले जाती है। इसके विपरीत भारत में नारी मुक्ति की नहीं शक्ति की कामना करती है, ताकि वह शक्ति के रूप में अपने पारिवारिक दायित्वों का सही निर्वहन कर सके। उसका 'स्व' परिवार और समाज के लिए होता है। वह विचारों में इतनी स्वतंत्र होती है कि गार्गी के रूप में वेदों की बहस में हिस्सा लेती है। वह आत्मा से इतनी शुद्ध है कि सीता के रूप में अग्नि परीक्षा से गुजरती है और जब-जब राष्ट्र की अस्मिता खतरे में पड़ती है, तो झांसी की रानी बन अंग्रेजांे से लोहा लेती है। लेकिन पश्चिम की उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव में दीपा मेहता जैसी और भी मुक्तिवादी नारियां भारतीय संस्कृति के मूल पंचतत्वों पर प्रहार करने से पीछे नहीं हटतीं। पहले अर्थ (मिट्टी), फिर फायर (अग्नि) और अब वाटर (जल), विदेशी धन से बनी इस फिल्मों में हमारी  संस्कृति को तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। साहित्य की आत्मा ही प्रतीकों पर निहित है। पवित्र गंगा को बस 'वाटर' करार देना हमारी पूरी संस्कृति को सस्ता बना देता है। आश्चर्य होता है, जब अमेरिका में जन्मा एलियट भारत मंे बहने वाली गंगा को अपनी कविता 'गैंजेज' में गंगा ही कहना पंसद करता है। वह मानता है कि गंगा में भारतीयों की आत्मा बसती है, इसलिए उसका अनुवाद नहीं हो सकता, वह सिर्फ गंगा है। अजर-अमर, संस्कृति की पोषक-वाहक, गंगा, जिसके तट पर भारतीय संस्कृति पल्लवित और पुष्पित हुई है, लेकिन दीपा मेहता भारतीय होने के बावजूद यह महसूस नहीं करती या करना नहीं चाहती कि बनारस में गंगा को वाटर कह देने से वह अमेरिका की विश्व संस्कृति का हिस्सा तो बन जाती है, मगर अपनी संस्कृति से दूर, कोसों दूर खड़ी नजर आती है।
विश्व को अनुप्राणित करने वाली भारतीय संस्कृति क्या आज अपने ही देश को प्राणवायु नहीं दे पाएगी। वसुधैव कुटुम्बकम की ज्योति को विकृत करने वाले अमेरिका को क्या हम सबक सिखा पाऐंगे? हजारों साल पुरानी हमारी यही संस्कृति तो थी, जिसने कृष्ण के रूप में, धर्म का शासन स्थापित किया गया। यही वह संस्कृति थी जिसने राम बनकर रावण का संहार किया था। कितने आक्रमण हुए, कितने आक्रांताओं को सबक दिया है। दुनिया के लोग इस संस्कृति की ओर एकटक देख रहे हैं। ऐसा महसूस हो रहा है कि भारतीय संस्कृति और भारतीयता हमें कह रही हो कि उठो तुम सूर्यवंशी राम के वंशज हो, इस देश से रावणों का नाश करो, तुम कृष्ण की संतान हो, सुदर्शन चक्र से इस उपभोक्तावाद के षड्यंत्र को तार-तार कर दो। दूरदर्शन के रंगीन पर्दे पर दिख रही मायावी सौंदर्य में मत पड़ो, दुर्गा का अवतार लेकर चंड-मंुड का संहार करो। भागीरथी ने साठ हजार साल की तपस्या कर अपने पुरखों को मोक्ष दिलाया था। क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए तपस्या नहीं कर सकते? बीसवीं सदी में क्या घटा, क्या नहीं घटा? इस पर रोने की जरूरत नहीं है। क्योंकि हमने गुलामी के वर्ष भी गुजारे और आजादी के बाद सरकारी निकम्मेपन के भी। हमें प्रयास अपनी संस्कृति से अनुप्राणित होकर आने वाले सौ सालांे के लिए करने हैं। स्वामी विवेकानन्द हमारे आदर्श हैं, हम आशान्वित हैं कि आने वाली सदी यूरोप की नहीं होगी। यह निश्चित रूप से अमेरिका की भी नहीं होनी चाहिए। यह अब एशिया के हाथ में है। एशिया में भी यह सिर्फ भारत की और हर स्थिति में भारत की ही होनी चाहिए। पश्चिमी जगत भारतीयों के दिमाग का उपयोग कर पूरे विश्व पर शासन कर रहा है। समस्या का समाधान इसी में है कि पूरे पश्चिम को ही अप्रासंगिक बना दिया जाए। यह हम और आप कर सकते हैं, भारत की महान जनता कर सकती है और यदि हमने आने वाली सदी को भारत की झोली में डाल दिया तो यह भारतीय संस्कृति की जीत पश्चिमी उपभोक्तावाद की पराजय होगी।