दिए जलते हैं


दीपावली पर संपादक लोग बहुत फलसफे झाड़ते हैं । 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' और 'असत्य पर सत्य की विजय'...इस त्यौहार के हिट वाक्य हैं । लक्ष्मी, गणेश के दर्शन पर सुसंस्कृत भाषण पेलने वाले अधिकांश बुद्धिजीवी तो नेताओं का पिछौड़ा धोकर उस पानी से अपना दीपक जलाते हैं। उनके अपने तमस और अपनी दीपावली होती है। इस बहाने साल भर मे वे हमारे ऋषियों पर भी पुष्पवर्षा कर देते हैं। मुझे लगता है कि यदि विभिन्न धर्मों और सबसे पहले सभ्य होने वाले भारतीयों की कहानियों को देखा जाये तो यह त्यौहार सूर्य के बाद अग्नि को नियंत्रण मे लेने का उत्सव है। जब चाहा अग्नि जला ली, जब चाहा मंद कर दी। रात उसके लिये अब भय का पर्याय नहीं रहीं। यह कम चमत्कार नहीं था। इसी कारण आज तक भ्रष्ट से भ्रष्ट भारतीय भी पण्डितों के सहारे अग्नि को पूजता है। ऐसा नहीं है कि रातें अब नहीं होतीं, होती हैं पर बिजली विभाग बीच-बीच में बिजली जलाकर उन्हें बहलाता रहता है। सब प्रतिष्ठित वैदिक देवता लुप्त हो गये पर अग्नि और सूर्य का जलवा आज तक बरकरार है। क्योंकि यह ऊर्जा पर अवलम्बित युग है,  हो सकता है कि भविष्य में पेट्रोल पम्प भी मंदिर की तरह आस्था स्थल बन जायें...क्या भरोसा इस समाज का...कैसे-कैसे बाबा भगवान बन बैठे थे। पर लोग ठीक ही कहते हैं कि पैसे वालों की तो रोज दीवाली होती है। कुछ लोग तीन हजार रूपये में महीने भर गृहस्थी धकेलते हैं तो कुछ लोग इतने का पान मसाला ही चबा जाते हैं...ऐसे फाइव स्टारी लोग क्या कार्तिक की अमावस्या देखकर नाचेंगे? उनके लिये दीपावली प्रदूषण फैलाने वाले ढ़पोर शंखियों का तमाशा है। अब वह सामुहिकता तो रही नहीं कि हलवा-पूरी-मिठाईयों के हुनर और उनके वितरण से सामाजिक शिल्प के कौशल उद्यीप्त हों, अब कालोनी कल्चर है...वे एक-दूसरे पर अपनी हनक दिखाने के लिये पटाखों का शोर करते हैं। अपना कद दिखाने के लिये लड़ियों की लम्बाई बढ़ाते हैं, दारू सूतकर मन का कचरा निकाल पूरे भारतीय समाज की वीथिकाओं को गंदगी से भर देते हैं। मोदी जी दस सहस्त्र वर्ष भी सफाई करवाते रहें, हमारा अन्तस तभी साफ हो सकता है जब हम कार्तिक महीने के अमावस में अपना अंधेरा देखने का प्रयत्न करें। घर की छतों को लड़ियों से भरकर आप रोशनलाल तो हो सकते हैं, पर इस त्यौहार का भारतीय तर्क आप कब समझेंगे? दीपावली हमारे विजयी समाज का प्रकाशोत्सव है। जो समाज न अपने धर्मगुरूओं से डरता है, न किसी किताब के आदेशों को ब्रह्मवाक्य समझता है, न किसी दल को समाज का प्रवक्ता मानता है, वही एक निडर समाज है। दूसरे की जमीन छीनकर विजेता बनने वाले लोग समाप्त हो जाते हैं, इतिहास देख लो, (वामपंथियों द्वारा लिखा नहीं) जो स्वयं पर विजय पाकर अहोभाव से भरा होता है, वही विजयी समाज होता है। पर ऐसे समाज एक दिन में नहीं बनते, सदियों के तर्क, अनुभव और चिंतन का नवनीत बीच चौराहे रखकर धोया-सुखाया जाता है। ऐसे ही भारतीय समाज बना है। यही वह समाज है जहां मूर्ति पूजक भी हैं और निराकार वाले भी हैं, कई तिलक, कई छापे, कई संप्रदाय, यहां सब धर्मों के शोरूम हैं। यहां परम्पराओं का खुला खेल होता है। ऐसा समाज जब कोई कर्मकाण्ड करता है तो उसमें सदियों के तर्क-वितर्क पंक्तिबद्ध  होकर अपना-अपना रंग जमाते हैं, जिसे जो अच्छा लगता है, करे!  मैदान सबके लिये खुला है। इसी खुलेपन का फायदा सोनिया एण्ड कम्पनी ने उठाया, उसने अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिये अगल-बगल से रद्दी लोग लाकर भारत भूमि में भर दिये, यही लोग अब हमारे समाज से प्रश्न करते हैं। हमारे विचारों को बुरके से ढ़कने का प्रयत्न करते हैं। इसी कारण कई लोग दीपावली पर बहुत उदास किस्म के संपादकीय लिखते हैं, इतिहास की कई सेकुलर मशालें खड़ी करके वे अपने पृष्ठों पर उजाला करते हैं क्योंकि उनके लिये इतिहास मुगलकाल तक ही है, उससे पहले उनके लिये भारत भूमि मात्र एक नंगा पहाड़ थी, मुगलों ने भारतीयों को ओढ़ना-खाना सिखाया और अंत में फिर गांधी जी पिता बनकर आये और भारत की नींव पड़ी। यह तमाशा वामपंथियों का है, पर दीपावली कोई पटाखों का तमाशा नहीं है, यह परा विद्याओं की चमक का त्यौहार है, यह ब्रह्माण्ड की अनगिनित ज्योतियों के रहस्य में नहाने वालों का उत्सव है। इसी आध्यात्मिक भाव से फिर सदियों कथानक जुड़ते गये...जिसने भी समाज कल्याण के लिये कोई असाधारण कार्य किया उसे हमने दीपकों की पंक्ति में खड़ा कर दिया...यह सांप्रदायिकता नहीं है, आप भी कोई कृष्ण कृत्य करिये...भारतीय समाज आप की कहानी भी दीपकों से जोड़ देगा। विजयी समाज यही करता है, वह किसी पोथी की मृत कथा को जीवित समाज पर हावी नहीं होने देता। हम भारतीयों ने सदियों ऐसे पुरूषों का इस समाज में विचरण देखा है, यही तो कारण है कि अनेक अभाव और भौतिक विपन्नता के बाद भी हम साल भर दीपावली की प्रतीक्षा करते हैं।