'अक्षर ब्रह्म है, ब्रह्मास्त्र भी !'
'अक्षर ब्रह्म है, बह्मास्त्र भी !' और हलन्त!! इसी वाक्य के ब्रह्म और ब्रह्मास्त्र शब्दों के चरण कमलों में नतमस्तक है -'हलन्त'! लेकिन 'हलन्त' न अक्षर है, न स्वर है और न ही व्यंजन। आप पूछ सकते हैं - अक्षरों के बीच हलन्त न स्वर है न व्यंजन फिर किस काम का है यह हलन्त? क्षमा करें श्रीमन! 'हलन्त' न ब्रह्मास्त्र है न स्वयं सिद्ध ब्रह्म! वस्तुतः शब्दों की महा यात्रा में पूर्णाक्षरों के बीच कुछेक थके अक्षरों का बोझ हल्का करने वाला महाबली है 'हलन्त'!
लेकिन श्रीमन्....! विडम्बना देखिये! 'हलन्त' सदैव अभिशप्त रहा है घुटन भरे भीतरी पन्नों में जीने के लिए। विश्वास न हो तो खतो-किताबत के समस्त इतिहास को खंगाल लीजिए! यकीन कीजिए कभी भी, किसी भी, पुस्तक के अग्रभाग में 'हलन्त' सुशोभित हुआ ही नहीं। किंतु इसे देवनागरी का अहोभाग्य ही कहिए कि किसी पुस्तक न सही किसी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर 'हलन्त' को जगह तो मिली। यदि.... इसी परिपेक्ष्य में श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं के बीच 'हलन्त' के वजूद को टटोलें तो निर्भीक तौर पर कह सकते हैं कि ज्वलन्त समस्याओं की सर्जरी और उनके निदान का एक मंच है 'हलन्त'! इसे संयोग कहें, दैवयोग कहें या इत्तेफाक! इसी पत्रिका का संपादन करते हैं - शाक्त! ! -कौन जनाब?- शाक्त!! शाक्त ध्यानी!! सरसरी तौर पर आप उपनाम ना भी जोड़ें तब भी मात्र 'शाक्त' नामोल्लेख करने पर भी आप शब्द शिल्पियों के 'ध्यान' में आ ही जाते हैं।
'हलन्त' के संपादक की भूमिका में ही यदि शाक्त जी से पूछें कि आखिर क्या है 'हलन्त'? आपकी सधी हुई कलम उत्तर देती है- 'शरीर से सुन्दर दिखने वाले शब्दों की अस्वस्थता चिंह्ति कर भाषा को अर्थवान बनाने का एक अभियान है...हलन्त। सामाजिक-राजनीतिक भाषा के संसार में जो शब्द स्वस्थ होने का ढ़ोंग करते हैं..उनके लिये डन्डासिंह है....हलन्त। परन्तु स्टीफन हौकिन्स या अष्टावक्र जैसी शारीरिक विकलांगता नहीं वरन् सत्ता के चाटुकारों और बौद्धिक माफियाओं की मानसिक विकलांगता के उपचार हेतु एक कागजी अस्पताल का नाम है.. हलन्त...और अस्पताल कभी बीमारी नहीं लाता। हलन्त, मानसिक दिगम्बरों की तीव्रता नापने वाला एक थर्मामीटर है, जिसे मुंह से नहीं, दूसरी साइड से लगाया जाता है, यह कष्टकारी भी है ..सावधान ..राष्द्र्र की उत्तरपीठ में आसन लगाये भगवान श्री बद्रीविशाल, श्री केदारनाथ जी भारत की इस भूमि को पुनः प्रक्षालित करें...इस महा अभियान में एक छोटी सी आहुति हलन्त की भी है..।'
यदि, अपनी ओर से एक छोटा सा जोड़ हम लगाते चलें तो कह सकते हैं कि एक ओर धीर गम्भीर तो दूसरी ओर तेज, कुशाग्र और फक्कड़ व्यक्तित्व का आइना है 'हलन्त'! क्योंकि आपने भागीरथी का वेग, अलकनंदा का शांत स्वभाव और तीखी चट्टानों पर खड़े देवप्रयाग के खुरदरे यथार्थ को करीब से देखा है। एक जगह आप लिखते भी हैं- 'गंगा का नामकरण देवप्रयाग -तीर्थ से आरंभ होता है...मैं भी देवप्रयागी हूं, इसलिये जीवन का गति-सिद्धान्त, बाल्यकाल से मुझे भी बहाता रहा है...अन्दर से, अपनों से, शहरों से, निर्जन से.. अभी तक...। ' बाल्यकाल से अभी तक! सफर, सफर और सफर!
एम.एस.सी. वनस्पतिशास्त्र का प्रमाण पत्र! अच्छे रोजगार की तलाश में एक महात्मा के साथ ठेठ कलकत्ता का सफर! निर्जन स्थल में ग्लास फैक्द्र्री! काम सुपरवाइजर! धीरे-धीरे क्षेत्रवाद का दंश! काले जादू की मानसिक उलझन अलग! कलकत्ता से लौटने पर दो साल तक अस्वस्थता का कहर! दो साल के अंतराल के बाद पुनः जीविकोपार्जन हेतु हरिद्वार, श्रीनगर में मेडिकल सुपरवाइजर की जी तोड़ मेहनत! इसी बीच बचपन से लिखने के ढब के कारण 'जनसत्ता' के कालम 'चौपाल' में समसामयिक विषयों के साथ लेखनी का सौभाग्य-संयोजन, चौपाल के संयोग से ही मातृतुल्य 'डा. शान्ता शर्मा' के सानिंध्य में जम्मू गमन! 6 साल तक वहां भी मेडिकल सुपरवाइजर का लेबल! उन्हीं के शब्दों में जीवन का गति-सिद्धान्त, बाल्यकाल से उन्हें भी बहाता रहा है...अन्दर से, अपनों से, शहरों से, निर्जन से... अभी तक..। आजकल 'हलन्त' के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों पर स्वतंत्र मंथन और उनके हल की ओर बढ़ते निर्भीक कदम! यदि इन चंद पंक्तियों के आधार पर ही आपके विगत को आंक लें तो लगता है गंगा के उद्गम से निकले इस कलमकार को तटबंध बहुत कम, थपेड़े ही अधिक मिले।'
उन तमाम थपेड़ों के अक्स जब-तब आपके शब्दों में भी उतरते रहे हैं। अनुभव सिद्ध कलम से लिखते हैं- ''इस देवभूमि और ऋषियों के जीवन से प्रेरित यहां के पढ़े-लिखे युवकों ने पेट भर गंगाजल और स्वच्छ हवा के सहारे चलने वाले पाचन-तंत्र का आविष्कार कर जीवन-यापन हेतु एक नये किस्म की उत्तर आधुनिक योजना तैयार की है... इस धृष्ट -योजना से सम्बद्ध होना अभी अपराध नहीं माना गया है। मैं भी वर्षों से इसी विशद्, स्वरोजगार-योजना से जुड़ा हूं .. यही मेरी सम्प्रति है....।'
लेखन की यह भाव भूमि उन्हें चौंका सकती है जिनकी दृष्टि आपके लेखन पर प्रथम बार पड़ी है। वस्तुतः आपकी सम्प्रति आपके वे पाठक हैं जिन्होंने समय-समय पर आपके धारदार संपादकीय आलेखों की धमक देखी है। दिवंगत चिन्मय सायर द्वारा मई 2008 को भेजे पत्र की पंक्तियां आज भी हू-ब-हू याद हैं- 'हलन्त! मैं पिछले 5 साल से हलन्त से जुड़ा हूं। कविता ही माध्यम है! वर्तमान में 'हलन्त' और 'शाक्त ध्यानी' इस धरती पर पत्रकारिता की बुलन्द आवाज हैं!!!' कतिपय पाठकों को इन शब्दों में भी अतिशय अतिशयोक्ति झलक सकती हैं। लेकिन 'हलन्त' के संपादकीय अंशों को पढ़कर यह तस्वीर एकदम स्पष्ट होती है कि राजेन्द्र यादव, श्रीकांत त्रिपाठी, ललित सुरजन के संपादकीय संस्कारों की फसल अभी मरी नहीं अपितु अभी भी हरी-भरी है। कुछेक बेबाक संपादकीय अंशों पर दृष्टि पड़ी। कलम उन्हें अक्षरशः उतारती ही चली गई -
-'बचपन में अपने लिए देश तिरंगे तक ही सीमित था। हेड मास्टर जी तब तिरंगे को आलमारी में, मकान की रजिस्ट्री के कागजों की तरह संभाल कर रखते थे। चार-पांच दिन पहले झंडा आलमारी से निकाला जाता, कपूर की सुगंध उड़ाने के लिये बच्चे, तिरंगे को चौमासे की धूप मे करारा करते। कड़वे तेल से झंडे का डंडा चमकाया जाता था....कवितायें-नारे रटे जाते थे..पैसंठ की लड़ाई के हीरो और अनेक शहीदों के चित्रों वाली बैठक से अभिभूत मास्टरजी जब स्कूल की प्रभात फेरी की अगवाई करते थे...वह रंग-बिरंगी कतार, गीत-नारे...बच्चों की उन ललकारों का स्मरण आज भी झुरझुरी पैदा कर देता है। अपने देश में स्ववन्त्रता -संग्राम के नायकों का यह पर्व लगता है, कहीं बहुत पीछे छूट गया है। अब देश के भावी नेता संसद में आंख मारते हैं।'
-'भारत जैसे देश में बसन्त को इस तरह कैमरे में कैद नहीं करना चाहिये। पत्र-पत्रिकायें, व्हाट्सअप, फेसबुक में बसन्त का जैसा अखिल भारतीय हो-हल्ला मच रहा है, वह असल में यूरोप का कैलेण्डरी स्वभाव है...बसन्त कोई 'वैलेन्टाइन डे' नहीं है भन्ते...! जो इन गिफ्ट कंपनियों द्वारा प्रायोजित उपटपटांग 'डेज' की तरह तारीख देख कर धमके और बाजार,में आतंक व्याप्त कर दे। इंटरनेट में जिस तरह बसन्त पंचमी पर फूलों-गुलदस्तों, बधाईयों का स्यापा खड़ा कर दिया है..उससे साफ दिखता है कि नई पीढ़ी का प्रकृति से संपर्क टूट गया है। और जो इक्का-दुक्का लोग भूल से विराट को पढ़ने की बात करते हैं, उन्हें साम्प्रदायिक कहा जाता है। तो कहो! बसन्त कौन चीह्नेगा..? '
- 'पलायन समस्या नहीं, हमारी शायद पुरानी आदत है। जहां से आये थे,पुनः वहीं जा रहे हैं....वरना जब मेरे भाई की लड़की जो वहीं गांव में ग्वारहवीं में पढ़ती है, दो मील पढ़ाई करने रोज भारी बस्ता उठाती है, बाघ का डर उसे भी है, सामाजिक असुरक्षा उसे भी घेरती होगी, गांव में तीसरे दिन पानी आता है पर भाई का पांच आदमियों का परिवार और बूढ़ी चाची हैंडपम्प से गुजारा कर रही है, बीमारी का डर और डौक्टर की आवश्यकता उन्हें भी है..तो ये बम्बई -दिल्ली में गढ़वाल सभायें बनाकर सामाजिक-सांस्कृतिक ठगी करने वाले टोपी धारी प्रगतिशील पहाड़ियों तुम्हारे पास पलायन के जितने भी तर्क हैं, वे न सिर्फ झूठे हैं, छलपंप्रच से भी भरे हैं। हां, आप सबके साथ एक कागजी ठग मैं भी हूं....पर मैंने पलायन के लिये वर्षों अपनी प्रादेशिक सरकारों के सामने जो पक्ष रखे हैं, उनसे लोग वापस आयेंगे' ।
-'गंगा नमामि के नाम पर अब गंगा घाटों पर ये 'काजू -सम्मेलन' बंद होने चाहिए और सरकार का डंडा दिखना चाहिए। अब वोट बैंक के चक्कर में साधु-संतों के डीलक्स आश्रम और कानपुर जैसे षहरों के चमड़ा और रासायनिक उद्योगों की 'बाट' लगनी चाहिए। गंगा यदि प्रशस्ति गान से साफ होती तो यह काम तो हमारे पुरखे बहुत पहले और बहुत ही भावुक तरीके से कर चुके हैं। ये कथानक नहीं होते तो गंगा कब की गंदा नाला बन चुकी होती।'
-आम जनता कई दशकों से भारत में पैसे का तमाशा देख रही थी। लम्बी विशालकाय ट्रक जैसे टायरों वाली कारों से कुछ गैंडे टाइप लोग उतरते हैं, बीच सड़क में कार रोक कर पुलिस को धमकाते हैं, बिना भाव-तोल के फल-शब्जी भरते हुये, ब्रांडेड कपड़ों के थैले लहराकर, धूल डड़ाते सड़कों को रौंदकर निकल जाते हैं। पासं-दस हजार के जूते, हजारों की जींस, जिनके पिछवाड़े उनके पांच सौ और हजार के नोटों से भरे बटुवे मध्यम बर्ग को ललचाते थे...मोदी ने सबको धो डाला।'
फक्कड़ स्वभाव के कारण 'शाक्त' कई बार अपने आपको ही घेरे में ले लेते हैं। एक अंक के संपादकीय में लिखते हैं- 'ससुराल आदिकाल से ही फोकटार्थियों का पर्यटन स्थल रहा है। सब सुविधाओं से लैस, एक विकसित पर्यटन स्थल। यथा सामथ्र्य पकवान, चकाचक बिस्तरे, और एक आवाज में मिलने वाली रूम सर्विस। पुराने खडूस टाइप जवाईंयों के लिये तो ससुराल तीर्थस्थल से कम नहीं होता था, दस-पन्द्रह दिन, फोकट का आनंद...विदाई पर पिठांई-पाणि अलग से। कहते हैं कि शिव जैसे गुरूघंटाल तक जो कि विवाह तक के लिये तैयार नहीं थे, पर जब ससुराल पहुंचे तो आवभगत का ऐसा ढंग कि डेढ़ महीने वहीं अपने भूत-प्रेतों के साथ डेरा जमा दिया...ससुराल जगह ही ऐसी है। यह सूत्र मैंने बहुत कुशलता से पकड़ रखा है। इस मंहगाई के जमाने में गर्मियों के दो-चार दिन अपनी ससुराल श्रीनगर जाता हूं, इस बार भी गया।'
-'ढ़ोल सागर के अनुसार शब्द में नाद, अनुभूमि और ज्ञान का मिलन होता है -' पार्वती उवाच-आउजी ! कौन है शब्द का रूप? कौन शब्द की शाखा?' ईश्वर उवाच- 'शब्द ईश्वररूप च, शब्द की सुरति साखा, शब्द मा मुख विचारंग, शब्द का ज्ञान आंखा, यो शब्द बजाई, हिरदया जाई बैठाई।' शब्द के तीन भाग हैं। पहले उठौण (प्रस्तावना) फिर बिसौण (विश्रान्ति) और तब कांसू (झाला) बजाया जाता है। इसके बाद जोड़, कृति, रहमानी, नौबत आदि संगीत की लम्बी विवेचना और लय ताल जानकारी के लिये संपादकीय पृष्ठ बहुत छोटा है। संगीत प्रेमियों को किसी औजी की शरण में जाना चाहिए। ग्रंथ के अनुसार सृष्टि के आंरभ में महादेव ने पार्वती जी के सोलह श्रृंगार किये और बत्तीस आभूषण पहनाकर छै राग, छत्तीस रागनियां और अड़तालिस रागपुत्रों को लेकर बत्तीस वाद्य यंत्र बजाये। आउजी गढ़वाल में सभी मंगल कार्यों के प्रतीक ही हैं।'
-'छिपकली को लगता है कि छत उसने ही संभाल रखी है। उसी भूमिका में कुछ लोग, संगठन, सरकारें अब हिमालय को थामने की सोच रहे हैं। वे सोचते हैं कि यदि साल में एक बार हिमालय दिवस के दिन सेमिनार करके हम सरकारी पैसों को नहीं पचायेगें तो हिमालय भरभराकर गिर जायेगा।'
-समय की ही तो बात है ..कल जिसका था, वो आज समय के दूसरे अंधेरे गोलार्द्ध में अपने दिन गिन रहा है,कल जिनके चेहरे दर्पण को चूमते थे, आज वहां झुर्रियों के जाल विचारों की मछलियां पकड़ रहे हैं। गुरू महाराज ने भी महाभारत को याद करके यही तो कहा कि 'वो हि अर्जुन दे बान सन वो हि अर्जुन दे हत्थ,समै समै बलवान समै समै समरथ...आदमी कभी समय से नहीं जीत पाया...तो समय को भजने के अतिरिक्त उसके पास विकल्प ही क्या है? जिन भारतीयों ने समय का असली चेहरा लोगों के सामने रखा, नियति देखिये, समय उनको भी खा गया। कहां गये पतंजलि, कहां कपिल गये,कहां समय की शल्य चिकित्सा करने वाले नागार्जुन खो गये? हम भारतीयों ने प्लास्टिक सर्जरी किये हुये समय के इस नये चेहरे की सबसे अधिक चमचागिरी की। ...भारतीय बड़े धुरन्धर थे इसी कारण उन्होंने इतिहास नहीं लिखे। पृथ्वी के चार-पांच हजार के वित्ते भर समय की उस महानिर्वात के सम्मुख क्या औकात! इमनें मूल्यों की बात की, इतिहास जीवित न भी रहे, मूल्य अगली पीढ़ीयों तक पहुंचें। इस कारण हमनें कथा गल्प का रौनक मेला लगाया। कलेण्डर का समय एक व्यवस्था है, उसे कोई तानाशाह बदल भी सकता है। भौगोलिक समय भारतीयों का समय है, यह अहोभाव है। पर शाश्वत समय, ईश्वर की तरह बड़ा जटिल है। जो समय को जान गया, उसका बेड़ा पार..साल में एक दिन उत्सव मनाना बुरा नहीं है, पर किसी की शांति भंग न हो, ताकि सनद रहे।'
कई संपादकीय आलेखों की हेडिंग ही बरबस ध्यान खिचंती हैं- फेस बुक के फेस, संस्कृति सरकारी नहीं होती, थोथे बाद क्वार के, नेता तुम्ही हो कल के, कपाली के दलाली,स्त्री देह के नये बाजार,कैबिनेट गई पानी में, लोक मंथन से निकला अमुत कलश, गूगल का रेवड़, स्वच्छता हमारा स्वभाव भी बने, नारी तू नारायणी, तिरंगा स्टीकर नहीं, पहाड़ पर गंगा, एक था उत्तराखण्ड। हलन्त में इनकी अनन्त सूची है।
'हलन्त' के पत्रोतर का काॅलम है- 'मंगलध्वनि'। 'मंगलध्वनि' में पाठकों की ध्वनि देखिए- संपादकीय सामायिक चेतावनी दे रहा है, संपादकीय में ललित निबंध सा आनंद प्राप्त होता है, संपादकीय पढ़ते हुये लगा कि रेखाचित्र पढ़ रहे हैं, भाषा विषयक संपादकीय पठनीय है, विचारणीय भी। इत्यादि-इत्यादि। एक स्थान पर 'मंगलध्वनि' में पाठकों के प्रत्युत्तर में शाक्त लिखते हैं - 'यह पत्रिका उन पाठकों की विशेष रूप से आभारी है जो दरांती की तरह पैने शब्द लिखकर हरी दूब में टहलती इस मखमली धूप के पैरों में कील की तरह गढ़ते हैं। आपके आक्रोश का यही लोहा मुफत का चना चबाते सफेद घोड़ों के जबड़ों की ताल बिगाड़ता है, उनके लिए असुविधा पैदा करता है....यह क्य कम है, जो मन में है, हमें लिख भेजिये।' वर्तमान में 'हलन्त' की गिनती उन गिनी-चुनी पत्रिकाओं में हैं जिनमें आंचलिक भाषाओं के लिये भी कुछेक पृष्ठ सुरक्षित है। इसके लिये 'शाक्त' और 'हलन्त' दोनों साधुवाद के पात्र हैं।
उत्कृष्ठ संपादकीय पारी के साथ-साथ आपने नाटक और काव्य में भी अपने भाव सृजित किये हैं। मानदण्ड, महापातक, त्राहीमाम, गंगा गाथा हिन्दी में तथा गढ़वाली में बळदनाथ एंव छत्रभंग में से अधिकांश मंचित नाटक हैं। हिन्दी में आत्मकथात्मक वृहद गद्य रचना 'मलमास' एंव 'ओ लड़की' 51 कविताओं की माला छपने को तैयार है। 'ओ लड़की' की चन्द पंक्तियां उदृत हैं- 'रोकने पर तू/बांध बन गयी/क्रोध से तनकर/दीवार बन गई/ अपने अन्तस की चमक से/तूने शब्द/आवेशित किये/शास्त्रों को पृष्ठ/सुवासित किये/तटबन्ध तोड़कर तूने/बर्जनाओं को पाठ पढ़ाये/आलिंगन में बधंक/प्रकाश के सूत्र खोले/स्वेच्छा से धार बनती/तारणहार बनती/पानी की छलार बनती है/बंधने पर नाद बनती है/समय आने पर/यहि लड़की../बाढ़ सी विकराल बनती है।'
वर्ष 2003 में आपकी 108 कविताओं का संग्रह 'वक्रतुण्डोपनिषद' पाठकों के सामने आया है। इसी संग्रह में आपकी माता तुल्य तटबंध डा. शान्ता शर्मा ने 'आशीर्वचांसि' में आपकी काव्य प्रतिभा में कुछ शब्द यूं दिये हैं- 'शाक्त ध्यानी मेरा मानस पुत्र है। उसने गणपति के आलोक तले, कविता के चकाचौंध-संसार में प्रवेश किया है। मानवीय भावों और बिम्बों की जुगलबन्दी के साथ कवि मूर्धन्य शब्द बोध मुझे चकित करता है..एक विज्ञान -स्नातकोत्तर का साहित्य में, इतने पैने तेवर के साथ प्रवेध करना ही स्वयं, इस शैक्षिक -ढ़ांचे पर एक सख्त टिप्पणी है।' संग्रह से कुछेक पंक्तियां पढ़ते हैं-
स्वार्थ बढ़ा और वृक्ष,घटा है/पशु-पक्षी,दर बदर हुये
छाल -जड़े तक नहीं छोड़ते/मन, सुसरा के उदर हुये।
लोक सहमता, लोकतंत्र में / कानून वृद्ध है, लूले हैं
नैतिकता, मरियल-बैल हुयी / ढ़ीली, तन्त्र की चूलें हैं।
इसी काव्य संग्रह की 108 पेज की समीक्षा करने के लिए भगवती प्रसाद नौटियाल कटिब थे। उनके द्वारा हलन्त के अक्टूबर 2018 के अंक तक 'वक्रतुण्डोपनिषद' की सारगर्भित समीक्षा का प्रवाह जारी रहा। किंतु आगे नौटियाल जी की अस्वस्थता के कारण यह कार्य अधूरा ही रह गया। अन्यथा किसी भी पुस्तक की वृहद समीक्षा का एक नया कीर्तिमान सामने आता।
गद्य ही नहीं पद्य में भी आप सदैव निर्भीक कलम चलाते रहे । कहते हैं- 'उत्तराखण्ड बनने के बाद कविता 'हमें क्षमा मत करना' को किसी ने छापने का साहस ही नहीं किया। लम्बे अंतराल के बाद यह कविता जनकवि 'अतुल शर्मा' के माध्यम से नैनीताल समाचार ने छपी।
एक मर्तबा 'हलन्त' का संपादकीय पढ़ते-पढ़ते ही शाक्त जी से पूछा-'आपने अधिकाशं संपादकीय बिना पैराग्राफ के लिखे हैं।' जबाब देते हैं- अमूमन संपादकीय एक ही विचार को आधार मानकर सीधी लाइन में लिखे जाते हैं इसलिए पैराग्राफ ध्यान में नहीं रखे जाते हैं। वैसे भी भाव बोध ग्राफ, पैराग्राफ में कहां रूक पाते हैं। दरअसल एक संपादन ही क्या किसी भी विधा में कलम के लिए विराम नहीं है।'
आपका कहना एकदम सही है। लेकिन हम जानते है डगर अगर कठिन नहीं तो सरल भी नहीं है। वर्तमान समय में जबकि अधिकांश श्रेष्ठ पत्रिकाएं बौद्धिक स्तर से नहीं अपितु आर्थिक कुपोषण की शिकार हैं क्योंकि बौद्धिक खुराक का महाभाग मंच, माला, और लिफाफों के हिस्से में चले जाते हैं। अस्तुः हम आपके साथ-साथ उन तमाम संपादकों को भी दाद देते हैं जो इन विषम परिस्थितियों में भी श्रेष्ठ पत्रिकाएं निकाल रहे हैं! शाक्त जी! आपकी यह बहुआयामी ऊर्जा सदैव बनी रहे!