ढोल सागर


उत्तराखण्ड  के पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय द्वारा पिछले दिनों यहां के पारंपरिक ढ़ोल वादन का मेगा शो हुआ। जिन्हें ढ़ेाल की जानकारी नहीं है, उनके लिये यह शो था, पहाड़ी लोगों के लिये ढ़ोल एक सांस्कृतिक-धार्मिक नाद है। विशेष रूप से गढ़वाली समाज में  ‘दैतसंघार’ ;दैत्य संहारद्ध और ‘ढ़ोल सागर’ दो लोककाव्य श्रुति परंपरा द्वारा लोकजीवन में आज भी जीवित हैं। दैतसंघार, देवी महात्म्य ;दुर्गा शप्तशतीद्धका ही लोकरूप है। क्योंकि उत्तराखण्ड आदिकाल से ही शाक्तों, शैवों और नाथों की भूमि रही है, इसलिये विभिन्न अवसरों पर और खासकर नवरात्रों में देवी पूजा के निमित्त दैतसंघार का गायन लोकशैली ;जागरद्ध में होता है, इसे डमरू ;डौंरद्ध और कांस की थाली बजाकर भुजंग प्रयात छंद में गाकर देवी के विभिन्न रूपों का आह्वान कर नचाया जाता है। इसे सवर्ण भी बजाते हैं। जबकि ढ़ोलसागर जो कि ढ़ोल वाद्य एवं ढ़ोलवादक औजियों और ढ़ोल की जानकारी का गं्रथ था, जो कि अब लुप्त हो चुका है एवं जिसके कुछ अंश ही श्रुत परंपरा में औजियों के पास सुरक्षित हैं। इन्हीं औजियों से केशव अनुरागी, अबोधबन्धु बहुगुणा, राजेन्द्र धस्माना और सुन्दरलाल बाबुलकर आदि ने इस पर कुछ शोधकार्य किया है। ढ़ोल, गढ़वाली समाज का सबसे लोकप्रिय वाद्य है। कहा जाता है कि ढ़ोलसागर के रचनाकार कत्युरी राजा दुलाधामध्येशाह के गुरू खेणदास थे। ढ़ोल के साथ दमौ नामक छोटा वाद्य बजाया जाता है , जिसकी उत्पत्ति भी दमौसागर नामक ग्रंथ से बताई गई है। ढ़ोल और दमौ, दोनों की रचना प्रश्नोत्तरी शैली में है। जो कि शिव-पार्वती के बीच में होती है, पार्वती शिव को आवजी कहकर संबोधित करती हैं और शायद इसी कारण ढ़ोलवादकों को आज औजी कहकर पुकारा जाता है, शिव प्रश्नकर्ता पार्वती को गुनीजन कहकर पुकारते हैं, जो कि उभयलिंगी संबोधन है। ढ़ोलसागर में लिखित वादन शैलियों तथा तालों को चार भागों  अमृत, सिंधु, प्रराणि और मध्यानी में बांटा गया है। जिसके प्रवर्तक क्रमशः मानधाता के दरबारी वामदास, इन्द्र के उद्दीम दास, महेन्द्र के विदिपालदास, और विक्रमादित्य के कलाशिरोमणि भगवानदास माने गये हैं। प्रथम तीन शैलियों का केवल उल्लेख ही उपलब्ध है मात्र भगवानदास की मध्यानी शैली ही आज तक जीवित रह सकी है। इस मध्यानी शैली की भी चार सूचिका, बाकुली, संेदूरी और झाड़खण्डी उप शैलियां हैं। सूचिका और बाकुली शैली का प्रचार-प्रसार जहां कुमाऊँ और गढ़वाल में हुआ, वहीं सेंदूरी और झाड़खण्डी शैलियां जौनसार और हिमाचल की ढ़ोल कला में जीवित रहीं।  मध्यानी शैली में उल्लिखित तालों में बढ़ै, धुयंेल, थरहरी, चैरास,चामणी अनेक प्रकारों का जिक्र है। उत्सव-पर्व की मंगल बेला पर पुरोहित के सस्वर वेदपाठ की गरिमा ‘बढ़ै’  अर्थात बधाई नाम ढ़ोल वादन से दुगुनी हो जाती है। धुंयेल देवोपासना की ताल है। नरसिंग और काली की उपासना के समय इसको बजाया जाता है, यह उग्र ताल है। इस ताल की उपताल उल्टा चैक बजाने से गांव का समूल नाश तक हो जाया करता था जिसका असर कम करने के लिये पुनः सुल्टा चैक बजाई जाती थी। तीसरी ताल शब्द का सर्वाधिक उपयोग होता है इसके द्वारा उल्लास और आह्लाद की अभिव्यक्ति होती है। ढ़ोलसागर के अनुसार शब्द में नाद, अनुभूति और ज्ञान का मिलन होता है-
पार्वती उवाच-आउजी! कौन है शब्द का रूप? कौन शब्द की साखा?
ईश्वर उवाच-शब्द ईश्वर रूप च, शब्द की सुरति साखा, शब्द का मुख विचारंग, शब्द का ज्ञान आंखा, यो शब्द बजाई, हिरदया जाई बैठाई। 
शब्द के तीन भाग हैं। पहले उठौण ;प्रस्तावनाद्ध फिर बिसौण ;विश्रान्तिद्धऔर तब कांसू ;झालाद्धबजाया जाता है। इसके बाद जोड़, कृति, रहमानी, नौबत आदि संगीत की लम्बी विवेचना और लय ताल जानकारी के लिये संपादकीय पृष्ठ बहुत छोटा है। संगीत प्रेमियों को किसी औजी की शरण में जाना होगा। ग्रंथ के अनुसार सृष्टि के आरंभ में महादेव ने पार्वती जी के सोलह श्रृंगार किये और उन्हें बत्तीस आभूषण पहनाकर छै राग, छत्तीस रागनियां और अड़तालिस रागपुत्रों को लेकर छत्तीस वाद्य यंत्र बजाये। आउजी गढत्रवाल में सभी मंगल कार्यों के प्रतीक ही हैं। हलांकि अंग्रेज उन्हें दलित बनाकर चले गये हों पर पहाड़ के लोगों ने सदा अपने शुभकार्यों को ढो़लवादकों के बिना अधूरा ही माना है। यही नहीं देहरादून की बारातों में आज भी ढ़ोल वादन को पहाड़ी लोग अपनी पहचान मानतें हैं और करीब हर शादी में समाधिस्थ विद्या के इन पारंगतों को स- सम्मान बुलाते हैं। मैं सस्कृति मंत्रालय और सतपाल महाराज को बधाई देना चाहता हूं कि उन्होंने एक सार्थक पहल करते हुये इस विद्या और इसके पारंगतों का सम्मान करने की सोची है। ठीक है कि उन्होंने इस समागम का नाम ‘नमो नाद’ रखा, जो कि दुधारी अस्त्र की तरह दो मुंह रखता हो, पर राजनीति में यह भी संगीत की तरह ही आनंद दायक है। लेकिन इससे आगे भी सोचा जाना चाहिये। संगीत के इस ग्रंथ पर शोध हो, इसका संकलन हो और इसे उत्तराखण्ड की पहचान बनाया जाये, जो कि यह है। मुझे बचपन की याद है कि देवप्रयागी पंडो के गांव राणाकोट में एक बार ‘ढ़िंडू-बिस्सू’ नामक ढा़ेल-दमौ के सि( वादक नवरात्रों की पूजा में बुलाये गये थे। मैंने अपनी आंखों से उन्हें किसी पंडित की तरह देवी और अपने वाद्य यंत्रों की पूजा करते देखा, उसके बाद नौ दिन नौ रात तक मण्डाण देखा। सुना था कि वे अपने इन वाद्यों की ताल से बीमार लोगों के लिये दूर गांवों से वैद्य बुलाते थे, बीमारियां भगाते थे...इन सब बातों की पड़ताल हो, संस्कृति मंत्रालय जो पिछले पन्द्रह वर्षों से नुक्कड़ नाटकों के   वाम विचारों की आरती उतारता रहा है, संस्कृति विभाग का पैसा इन हिन्दु द्रोहियों के देशविरांधी विचारों पर कब तक लुटाया जाता रहेगा? विभाग अब जरा सीधा हो जाये और जिन लोगों ने राज्य निर्माण के लिये अपने पुत्र-भाई खोये उनकी सुने, पहाड़ के लोगों ने केवल देहरादून का घूंघट सजाने और सचिवालय के इन लाॅट साहबों का थोबड़ा देखने के लिये अपने प्राण नहीं दिये थे। वे भारत के सांस्कृतिक मानचित्र पर अपने लिये एक प्रतिष्ठित कोना चाहते हैं। सतपाल महाराज कांग्रेसी जरूर रहे हैं पर उनके मन में पहाड़ को लेकर एक अतिरिक्त उत्साह है। यह नमो नाद उसी उमंग का एक हिस्सा था...शायद।