ओ री लड़की!


वो लड़की...
पिता के आँगन  की चिरैया
उड़ती, फुदकती खिलखिलाती थी
मगर किराये के घर में रहती थी...
ये नहीं जानती थी
किराये में जरा 
प्यार दे दिया पिता को
फिर मां ने उड़ा दिया 
अपनी चिरैया को
कहा-पंखों को तोड़ दे
फुदकना, उड़ना सब यहीं छोड़ दे...
वो लड़की सहमी सी
बैठ गई दूसरे घोंसले में
उड़ती चिड़या को बांध दिया...
इक खूंटे से
सोचने लगी...अन्तर बहुत है
दोनों घरों के मकान मालिकों में...
वहां तो किराया कुछ भी न था
लेकिन यहां कुछ अलग था
किराया चुकता करने में
अपना सर्वस्व अर्पण कर डाला...
तन, मन, वचन, कर्म सब तो
समर्पण कर डाला
मगर जितना भी किराया दिया
कभी पूरा ही नहीं हुआ...
री लड़की...तेरा हर त्याग
अधूरा ही रहा।