राज्य धार्मिक हो


भारत का आग्रह सदैव एक धार्मिक राज्य का रहा है / धार्मिक होने की कल्पना हमारे यहाँ सेमेटिक धर्मों और उनसे उपजी सत्ताओं से एकदम उलट है/  धार्मिक राज्य अर्थात जहाँ शासन और शासित दोनों का आचरण पारदर्शी हो/ दया, क्षमा, औदार्य, सहिष्णुता जैसे तत्वों का सरक्षण ही हमारे विधान में एक धार्मिक राज्य की अनिवार्यता थी / धर्मसत्ता जहाँ ऋषि समाज के पास थी तो भौतिक राज्य का भार राजाओं के पास था/ दोनों में एक दूसरे के प्रति आदर और विश्वास था / दोनों सत्ताओं के बीच एक लक्षमण रेखा थी जिनके अतिक्रमण करने का अधिकार किसी के पास नहीं था/ 


बुद्ध के बाद धर्म  और राज्य के घालमेल की घटनाएं हुईं बुद्ध के चेलों का जब  सनातनियों से संघर्ष हुआ तो उन्होंने बौद्धिक युद्ध की जगह सत्ता के सरक्षण का छद्म मार्ग चुना / राजा को विश्वास में लेकर बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार, खाद-पानी सब कुछ राजमहलों से संचालित होने लगा / यह भारत में राज्य और धर्म की पहली दुरभि संधि थी/ आम जनता के मन पर इसका उल्टा असर हुआ और बौद्ध धर्म को इस देश से अपना बोरिया-बिस्तर गोल करना पड़ा / धर्म की सुचिता के प्रति भारत के लोगों का यह आग्रह आज तक है / बाबा रामदेव ने जब राजनीती में हस्तक्षैप कर कांग्रेस का विरोध किया तो आम जनता को एक सन्यासी का इस तरह लक्ष्मण रेखा लांघना अच्छा नहीं लगा / लोगों का तर्क था की कांग्रेस के विरुद्ध बोलने, लड़ने का अधिकार राज्य और लोगों का है। ..धार्मिक संस्थान इस लड़ाई से दूर रहे / रामदेव ने कुछ गलत नहीं किया पर भारतियों का धर्म को राजनीति से दूर रखने का आग्रह बहुत गहरा है, लोगों ने बाबा को लाला रामदेव तक कह दिया/  भारत के धार्मिक राज्य की कल्पना को धर्मनिरपेक्ष राज्य में बदलने का काम पश्चिमी राज्यों की देन है / पश्चिम में चर्च आरम्भ से ही शासन का रहा, और शासन को पालतू बनाकर  ने निर्मम अत्याचार किये जिस कारन सुधारवादियों को यह सेकुलर शब्द अपनी शासन प्रणाली में गढ़ना पड़ा / आरम्भ से ही यूरोपीय धर्मतन्त्र के सामने दर्शन और अध्यात्म की हैसियत नौकरानी की रही है जो कि आपस मे ंसंधि नहीं कर सके। इसलिए बौद्धिकता और चर्च में कभी संवाद नहीं बना सका। यूरोप के शासक वर्ग ने चर्च द्वारा खड़ी की गयी जड़ दृष्टि के सहारे ही एक औद्योगिक-साम्राज्य और उसकी संस्कृति का ढांचा बनाया/यूरोपीय समाज ने जिस रिलीजन को अपना धार्मिक प्रतिनिधि बनाया उसमें कुछ तर्कसंगत विश्वासों के लिये भी स्थान नहीं छोड़ा गया। वैज्ञानिक उपलब्धियों और धार्मिक विश्वासों के बीच सांप-छुछन्दर जैस्ी स्थिति बनने से पश्चिमी समाज किंकर्तव्यमूढ़ बना रहा। जो विज्ञान द्वारा ज्ञात हुआ वह उनके पुराने ढांचे के लिये अविश्वसनीय था...अधकचरे ढुलमुल और असमंजसता से भरा समाज विज्ञान और धर्म का विलय नहीं कर सका...प्रकृति के बाहर की प्रत्येक बात को अन्धविश्वास कहकर विज्ञानी समाज ने अपनी एक सांस्कृतिक-धार्मिक दृष्टि का निर्माण किया और उसी चश्में से भारतीयों के धर्मग्रन्थों मान्यताओं पर अपनी राय दी...स्वयं हमारे बुद्धिजीवी भी आज तक ऐसा कर रहे हैं...विज्ञान बाहर की यात्रा हैं...पदार्थो का दर्शन है...परन्तु मनुष्य ने जो आन्तरिक यात्रायें की है/उनके जो शिखर प्राप्त किये हैं, उनके कोई विश्वसनीय उत्तर विज्ञान के पास नहीं हैं....ईसाई दृष्टि असल में हमसे एकदम विपरीत रास्ते की दृष्टि है...इसीलिये दोनों सभ्यताओं में एक मूलभूत अंतर है...दृष्टि में इसी अंतर के कारण पूरब और पश्चिम के व्यक्तिगत और सामाजिक पुरूषार्थो में एक विरोधाभाष है....जिसे अपने शुरूआती दिनों में अंग्रेज विचारक भौंचक होकर देखते थे...इस कारण भी भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित करने से पूर्व संविधान निर्माताओं को अपनी नज़र से अपने धर्म और राज्य की सरंचना को समझना चाहिये था/


दीन दयाल उपाध्याय ने पश्चिम से आयात की गई इस थिरकती जीवन शैली को एक सिरे से नकारा / उन्होंने ब्रिटिश राज्य की शासन-प्रणाली, उनके राजनीतिक चिन्तन की खामियों को गहरे से पहचाना / उपाध्याय ने गांधी के  स्वराज्य, उनकी आर्थिकनीति, उनकी शुचिता को अंगीकार करते हुये भी गांधीवाद को सौ प्रतिशत टंच मानने से इन्कार कर दिया। दीनदयाल जी का मानना  था की देश को अब विशुद्ध भारतीय कल्पना के आधार पर संघटित करना चाहिए।  / वे डेढ़ हजार वर्षो के मुगल-शासन के कारण परतंत्र राष्ट्र के विकृत स्वरूप को स्वीकारना नहीं चाहते...यदि धर्म और संस्कृति के आधार पर राष्ट्र का विभाजन हुआ तो भारत में रह गये मुसलमानों की मुखाकृति पर जिस तरह भारत राष्ट्र के मूलभूत स्वभाव के स्वांग भाव पहनाने के प्रयत्न हुये, उन्हें दीनदयाल व्यर्थ मानते हैं। संस्कृतियों का जन्म संस्कारों से होता है। इसीलिये संस्कृति को औजार बनाकर समाज का एक तीसरा ही चेहरा बनाना मूर्खता है। धर्मनिरपेक्षिता की जगह धार्मिक राज्य की बात करते हुये उपाध्याय ने राज्य को ऋषिमूल्यों के प्रति उत्तरदायी होने के लिये प्रेरित किया...वे सिनेमा-तारिकाओं को विवेकानन्द बनाकर विदेशों मे ंभेजने का उपहास करते हुये इसे राज्य नियंताओं की संस्कृति और भारतीयता के प्रति नासमझी कहते थे...संविधान आर्थिकी राजनीति जैसे सभी आयामों को उपाध्याय की दृष्टि से यदि भारतीय स्वरूप दिया जाता...तो आज हमारी राजनीति इस तरह घोड़ा-मण्डी में नहीं बदलती...