स्वच्छता हमारा स्वभाव कब बनेगा


मोदी जी ने देश भर में स्वच्छता अभियान चलाया है। स्वच्छता असल में एक स्वभाव है। तो फिर हमारा स्वभाव कूड़े-करकट के ढ़ेर देखने-फेंकने का आदी कैसे हुआ? ऐसा भी नहीं है कि अपना घर, अपना शरीर, अपने कपड़े-रसोई हम साफ न करते हों...पर इस निजी सफाई के जो उत्तर उत्पाद हैं, उन्हें हम सार्वजनिक बना देते हैं। हमारे शहर-कस्बों, और गांवों के किनारे जो कूड़े-कचरे के ढ़ेर हैं, वे आखिर हमने ही तो लगाये हैं। समस्या कूड़ा नहीं है, समस्या है, हमारी मानसिकता...सार्वजनिकता का अभाव और राष्ट्रीयता के प्रति हमारी उदासीनता...मोदी जी का यह अभियान, यह आह्वान इसी मानसिकता को बदलने के लिये है। कहने को तो नगरपालिकाओं, आॅफिसों में सफाई कर्मचारियों के बड़े तामझाम हैं, मशीनों और फण्ड के ढ़ेर हैं...पर यह भी सच है कि यदि आम आदमी की सोच न बदले तो कोई भी विभाग, कोई भी संस्था, कितनी ही चुस्त-दुरूस्त क्यों न हो, वह इस कूड़े और गंदगी का निस्तारण नहीं कर सकती। इस बात को गांधी जी ने बहुत पहले ही पहचान लिया था...वे आने वाले भारत की आबादी और उससे होने वाली समस्याओं को साफ-साफ देख सकते थे। इसी कारण गांधी जी ने स्वतंत्र भारत की जो तस्वीर बनाई थी, उसमें आत्मनिर्भरता, देशज उद्योगों के उत्थान के अतिरिक्त स्वच्छ भारत की वकालत पहले नम्बर पर थी। अपना पाखाना स्वयं साफ करना, सार्वजनिक स्वच्छता के उनके अभियान...आदि, स्वतंत्र भारत के उनके 'सपनों के देश' के ही अभियान थे। गंदगियों के ढ़ेर अनेक बीमारियों के स्रोत हैं...और जिस देश की एक बहुत बड़ी संख्या के पास न घर हों, न स्वच्छ जल हो, न पौष्टिक भोजन हो, वह कूड़े के ढ़ेर पर बैठकर सुरक्षित कैसे हो सकती है? गंदगी से होने वाली बीमारियों से हस्पतालों पर दवाब बढ़ेगा, दवा उद्योग लूट मचायेगा और अन्ततः इसका असर देश की आर्थिक प्रगति पर पड़ेगा। इसलिये गांधी ने अपने ही जीवन का उदाहरण देते हुये जहां एक ओर स्वच्छता को जनान्दोलन बनाया वहीं उन्होंने इसी बहाने छुआछूत पर भी आक्रमण किया। हलांकि शौचालयों की नई तकनीक के कारण यह सामाजिक समस्या लगभग समाप्तप्रायः हो गई है पर औद्याोगिक उत्पादों का कचरा एक नई सामाजिक महामारी के रूप में समाज के समक्ष चुनौती बना हुआ है। इसीलिये मोदी के सामने स्वच्छता की जो चुनौतियां हें, उसका आकार-प्रकार जरा दूसरे किस्म का है। 
अब आम मध्यमवर्गीय परिवार में शौचालय सम्बन्धी कोई समस्या नहीं है...पर प्लास्टिक और अन्य औद्योगिक उत्पादों का कचरा उससे भी बड़ी समस्या है। आम आदमी पौलीथीन बैग, गुटके-शैम्पू और खाद्य सामग्रियों के पाउचों को जिस तरह घर से बाहर फेंक कर शहर को गंदला रहा है, वह विस्फोटक रूप ले रहा है। लोगों का स्वभाव ही बन चुका है कि अपना घर तो साफ हो पर सरकारी संस्थान, सार्वजनिक स्थान, बगीचे, रेल-बस स्टैण्ड...इन्हें साफ रखने-देखने की लालसा किसी में नहीं है। सार्वजनिक स्वच्छता को हम दूसरे का दायित्व समझकर आंखें मूंद लेते हैं। हमारी यह प्रवृत्ति कौन बदलेगा? शायद यही मोदी जी की भी चिन्ता हैै।
गांधी जी की तरह मोदी जी भी मात्र सत्ता हस्तांतरण को राष्ट्र के लिये कल्याणकारी नहीं मानते। गांधी जी की लड़ाई ब्रिटिश हुकूमत से थी। पर मोदी जी को उन्हीं लोगों से लड़ना है जिन्होंने कि उन्हें सत्ता में बिठाया है...उन्हीं संस्थानों-अफसरों को फटकारना है, जिनसे उन्हें काम लेना है। इस कारण मोदी जी के सामने सामाजिक चुनौतियां गांधी जी से कहीं अधिक हैं। स्वच्छता को राष्ट्रीय आन्दोलन बनाने के पीछे मोदी के मन्तव्य स्वच्छता से कहीं अधिक बड़े हैं। वे इस अभियान को चलाकर देश की जनता को सत्ता के संचालन का भागीदार बनाना चाहते हैं। यह जनता और सरकार के सहभागी होने का एक प्रयोग, एक आकलन है। यदि जनता की ट्यूनिंग एक बार सत्ता प्रतिष्ठान से होती है, तो राष्ट्र प्रगति और विकास के नये आयाम छू सकता है...जनता इन सुधारों का नेतृत्व करे और सरकार मात्र संरक्षक की भूमिका में हो...कहते हंै कि अमरीका में स्कूल की किताबें एक क्लास द्वारा उपयोग के बाद आने वाले नये छात्रों में हस्तांतरित होती हैं, इससे हर साल लाखों टन की किताबों की छपाई से बचा जा सकता है। क्या संसाधनों की ऐसी बचत हम नहीं कर सकते? क्या हर साल बढ़ने वाले इस कचरे में हम कटौती नहीं कर सकते? इसी कारण विकसित देश रिसाइकिल हो सकने वाले उत्पादों पर जोर देते हैं तथा सभी उत्पादक, रिसाइकिल हो सकने वाले विकल्पों को तरजीह देते हैं ताकि कचरा कम से कम हो। और इस का कारण है पश्चिम की जनता का स्वभाव...वहां का आम आदमी सफाई को लेकर बहुत सजग है, वहां दण्ड का प्रावधान है, उत्पादकों पर सरकार, मीडिया और जनसंगठनों की नकेल है। यही मोदी जी अपने देश में चाहते हैं कि जनता सजग हो, तो देश में स्वच्छता का यह कार्यक्रम सफल हो सकता है...क्योंकि कानून बनाने से मात्र संविधान की पुस्तक की मोटाई तो बढ़ सकती है...होता कुछ नहीं है।
यह अभियान यदि एक बार पचास प्रतिशत भी सफल हो जाये तो भारत विकास के मार्ग पर दौड़ पड़ेगा। जिस तरह गांधी जी ने  चरखे-तकुली के बहाने ब्रिटिश हुकूमत और विदेशी कम्पनियों के साथ कई मोर्चों पर जनान्दोलन खड़े किये, जिस तरह लोगों ने खादी और खड्डी उद्योग को स्वतंत्रता आन्दोलन और राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक बनाया, उससे एक बार तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पसीने छूट गये थे...यदि अंग्रेजों के पिट्ठू नेहरू इस प्रतीकात्मक आन्दोलन के आड़े न आते तो भारत की जनता का आज यह स्वभाव न होता। वह राष्ट्र की प्रगति में अपना सुख देखता। गलियों में पड़े कूड़े के ये दैत्याकार ढ़ेर हर आदमी को परेशान करते। गांधी जी का जितना असर जनता में बाकी भी था, उसे कांग्रेस के साठ साल के शासन ने मिट्टी में मिला दिया। मोदी जी इस सफाई आन्दोलन के जरिये राजनीतिक सिंहासनों के चारों ओर जमा हुई गंदगी को भी साफ करना चाहते हैं। इसलिये वे आम आदमी की नब्ज टटोल रहे हैं...क्योकि जनता की भागीदारी के बिना न सड़क की सफाई हो सकती है और न संसद की...लोकतंत्र में कोई भी नेता चाहे वह कितना ही सक्षम क्यों न हो, कितना ही लोकप्रिय क्यों न हो, वह जनता की भागीदारी के बिना किसी भी राजनीतिक-सामाजिक बुराई से अकेले नहीं लड़ सकता...तो हम सभी समझ लें कि जो घर, जो मुहल्ला, जो संस्थान इस स्वच्छता आंदोलन के साथ नहीं है, वह राष्ट्र की प्रगति का विरोधी है...वह भ्रष्टाचारियों का ही सहयोगी है।....