तन्हाईयाँ


 


“ तुम जानते हो तन्हाइयां बोलती हैं ?

नहीं ना ?

           हाँ....... तन्हाइयां बोलती हैं.....

           मन की सारी गिरहें खोलती हैं ।

इन तन्हाइयों से एहसास जनम लेते हैं...

एहसास शब्दों में ढलते हैं.....

शब्दों से वाक्य विन्यास होता है

और फिर बनते हैं----

               गीत,ग़ज़ल,कविता और शेर ।

मैं शब्द लिखती हूँ तुम अर्थ गढ़ते हो....

मैं एहसास लिखती हूँ तुम सिर्फ पढ़ते हो ।

            ये जरूरी नहीं कि इन एहसासों को मैंने जिया है,

     पर कुछ तो है जिसने मुझे छुआ है ।

मुझे तन्हाइयों की आवाज सुनाई देती है,

मुझे मौन के अर्थ समझ आते हैं,

मुझे अनकहे जज़्बात भी छूते हैं....

समझ पाओ तो इन जज़्बातों के अर्थ अनूठे हैं ।

       मेरे शेरों पर तुम वाह करते हो,

       मेरी ग़ज़लों पर आह भरते हो,

         मेरे गीत गुनगुनाते हो,

        मेरी कविता पर ताली बजाते हो ।

क्या इनके पीछे के मर्म को समझ पाते हो ?

        ये समझना सबके बस की बात नहीं,

         सबके एक जैसे जज़्बात नहीं ।

ये जज़्बात जब हद से गुजर जाते हैं...

खुशी और गम में ढल जाते हैं,

        फिर कलम चुप शब्द खामोश हो जाते हैं...

         सिर्फ एहसास रह जाते हैं ।

एहसास तन्हाइयों को जीते हैं

और फिर तन्हाइयां बोलती हैं....

मन की सारी गिरहें खोलती हैं ।”