तीसरा हाथ


यह २००५ की बात है। आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? उत्तरांचल शासन  के वे अधिकारी कुछ गम्भीर लग रहे थे। भिक्षाटन..!,पत्रकार भिक्खु बनकर ही यहाँ आता है... मैं अधिकारी को हंसाना चाहता था। परन्तु आशा के विपरीत उन्होंने दोनों हाथों की उंगलियां फसाकर मुझपर आंखे गड़ाई। आप पत्रकारिता को किस तरह देखते हैं? मुझे प्रशासन की कुरसी में बैठे 'टालू' अधिकारियों की ओर से ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी..अपन १५ वर्षों से उत्तरांचल राज्य की वीथिकाओं में भटक रहे हैं.. एक नवजात पत्रिका को 'कोंपल' की तरह संभालने में जिस अतिरिक्त सावधानी की जरूरत होती है, उसी कारण कभी किसी अधिकारी से इच्छा होने के बावजूद भी 'तू-तू मैं-मैं' नहीं की...एक लीक पकड़कर जो सर्वाधिक सुरक्षित और विधायक विषय हैं, उन्हें ही कलम से कोंचता रहा हूँ....हालाँकि अब त्रिवेंद्र सर्कार ने पत्रकारों की सचिवालय इंट्री  बंद कर दी है।  पारदर्शिता है बल.... 
पहली बार किसी ऐसे व्यक्ति से सामना हुआ था जो अपनी 'लेजर-रे' नजरों से मेरी इबारत पढ़ता लगा...मैं संभलकर बोलने लगा- सर..। पिछले दो वर्षों से मैंने अपने मासिक में अपने हिस्से की बात को टुकड़ों में प्रस्तुत किया है....अधिकारी संभवतः अपने मन की आग से मुझे अवगत कराना चाहते थे, ताकि मैं समिधा बनकर उनकी मेधा की अग्नि को पकड़कर 'हलन्त' को ऐसी यज्ञवेदि बनाऊँ कि उसकी सुरभि से भ्रष्टाचार के जीवाणु समाप्त हो जायं.....परन्तु ऐसा कभी नहीं हुआ है....बड़े-बड़े तुर्रम-खां आये....परन्तु समाज के विषाणु कभी समाप्त नहीं हुये। कलम के प्रति अधिकारी की निष्ठा को 'नमस्कार' भर कर सकता था।
अधिकारी ने मेरी बात आधी काटकर, बातचीत के सूत्र को सारथि की तरह 'रास' बना दिया वे धारा प्रवाह बोलने लगे उत्तरांचल में बड़े अखबारों ने जिस तरह पत्रकारिता के मानक तोड़े हैं..जिस तरह गुण्डे-मवालियों ने कलम-कैमरे से ब्लैकमेलिंग का धन्धा शुरु किया है, उसने पत्रकारिता को वेश्यावृत्ति जैसा बना दिया है। पत्र-मालिकों ने चुन-चुन कर सारे 'हाॅक्स' को इकट्ठा कर ऐसे सुसंगठित गिरोह बना लिये हैं कि वे अप्रत्यक्ष रूप से समानान्तर सत्ता चला रहे हैं...और पहाड़ी लोग 'तर' हैं कि उनकी 'देवभूमि' के चप्पे-चप्पे को खबर बनाया जा रहा है। उनकी लड़कियों के श्लील मनोभाव इस दो रुपये की लुगदी में बड़े निष्णात तरीके से अश्लील बनाये जाते हैं.. पहाड़ी खुश हैं कि राज्य बनने के बाद उनकी संस्कृति पंचसितारा हो गई  है....और यह देवभूमि? जिसका एक-एक पत्थर देवता बताया जा रहा है? उन पत्थरों का पहाड़ी का क्या करें? अपने सिर पर मारें ताकि वे स्वर्गिक आनंद ले सकें? सीडी उद्योग, सब्जियों की तरह हमारे पहाड़ों की, हमारी बहू-बेटियों की दुकान लगा रहा है.....और जाह्नवी? उसकी पवित्रता का हम क्या करें? जब देवप्रयाग और श्रीनगर के बीच के अधिकांश गांव रात भर जागकर मात्र एक घड़ा पानी भर पाते हैं...यह गंगा तो हमारी ऊर्जा, हमारी उर्वरता, हमारा सभी कुछ नीचे ले जा रही है, उस मुजफ्फर  नगर  में खेत सींचे जा रहे हैं, जहाँ हमारी शुचिता का, हमारे भलेपन का ऐसा अमानवीय तरीके से स्वागत किया गया था...? तभी चाय आ गई...अधिकारी का चेहरा तमतमाया हुआ था....मुझे शर्म आने लगी कि मुझे ऐसी विषम और लज्जाजनक  स्थिति में विज्ञापन मांगने की क्या सूझी...चाय में चम्मच हिलाते वे पुनः बोले.... 
पहाड़ियों को सिर्फ एक चीज आती है..और वह है पलायन..हम लोग मुगलों से बचकर न जाने कहां-कहां से आकर इन कन्दराओं में बसे...और जब मुसीबतें आयीं तो फिर मैदानों में भाग गये। हमारी छवि 'दुमका' के मेहनतकश मजदूरों की भी नहीं है, बल्कि हम लोगों के साथ "कोठी का नौकर" जुमला ऐसे ही जुड़ा है जैसे अभिनेत्रियों के साथ बालीवुड....हम निरन्तर भाग रहे हैं...आप गुड़गांव में देखिये श्रमिकों ने सिर दिये परन्तु सरकार से नाक रगड़वाये...और यहां तो वर्षों से अनेक स्तर पर अनैतिक शोषण हेाता रहा है और हम मन्दिरों में भजन-कीर्तन कर रहे हैं। पर्यटकों-तीर्थयात्रियों की टोलियों को देखकर खुश हो रहे हैं/  'तर' हैं कि हम देवभूमि के बासिन्दे हैं। गोरखों ने हमारी मन्डियां लगाई पर हम कुछ नहीं बोले..
चाय खत्म होते ही...उन्होंने घड़ी देखी.....उत्तेजित हो जाता हूँ...जीवन भर इन पहाड़ों को देखकर उत्तेजित रहा...पता नहीं, ऋषि- मुनियों को यहां शान्ति कैसे मिलती थी?...मेरठ में 'चीतल' वाला करोड़पति बन गया और हम लोग व्यासी में वही बासी तेल के पराठें बेच रहे हैं ...कोई कल्पना नहीं, कोई  योजना नहीं....हम भी क्या करें? हम फाइल की डोरियों से बन्धे हैं.....शासन दाढ़ भरने में लगा है...इन सब का एक ही उत्तर है बन्धु! तुम पढ़े-लिखे लोग कोई अलख जगाओ...नुक्कड़ नाटक करो, व्यवस्था को गरियाने से कुछ नहीं होगा...उदाहरण प्रस्तुत करो, बड़े गुण्डे अखबारों के विरुद्ध पत्रकारिता की अष्टभुजा मूर्ति गढ़ो, रंगमंच और सीडी का उत्तर अच्छी प्रस्तुतियों से दो.....कुछ तो करना ही होगा..अब वे थोड़ा मुस्कराये... मैं जानता हूँ बन्धु कि तुम अकेले कुछ नहीं कर सकते....परन्तु तुम देवप्रयाग के हो...देवप्रयाग की पुरानी पीढ़ी का स्मरण करो, चक्रधर जोशी, मुकन्द शास्त्राी जैसे प्राज्ञ लोगों की विरासत को आगे बढ़ाओ भाई...बद्रीनाथ की ओर देखो..
बद्रीनाथ का जिक्र आते ही मैंने एक विवादास्पद व्यक्ति के बारे में पूछा, तो अधिकारी सूक्ष्म हो गये... इतना ही कहूँगा कि जब फाइल बनती है तो उस पर अपराध पलता है। रिश्वत लेकर फाइल आगे बढ़ती है...लेकिन कुछ लोग ;विवादास्पद अधिकारी अपराध बुनने के लिए ही फाइल तैयार करते हैं। उन्होंने जीवन भर अपने सार्वजनिक जीवन में यही किया है, वे वही करेंगे, अधिकारी चुप हो गये...तभी इत्तिफाक से मन्दिर समिति का एक नेता टाइप व्यक्ति वहाँ पहुँच गया...वह किसी व्यक्ति का जिक्र करने लगा जो मन्दिर के विवादास्पद व्यक्ति का दायां हाथ है। दायें-हाथ की बात पर अधिकारी पुनः मेरी ओर देख मुस्कराया...
दायां हाथ और बायां हाथ...अब कटी भुजाओं वाले ये लोग दोनों हाथों को मिलाकर एक तीसरा हाथ इस्तेमाल करने लगे हैं...यह तीसरा हाथ, हाथ की तरह तो होता है, पर उसमें 'हाथपन' नहीं होता और बिना हाथपन का यही हाथ लोकतन्त्र का दुश्मन है...
कार्यालय के मुख्य गेट से बाहर निकलते मन प्रसन्न था और उद्विग्न भी....प्रसन्न था कि लोकतन्त्र का कोई एकाध खम्भा ऐसा तो है कि जिसे भ्रष्टाचार की दीमक कभी नहीं चाट सकती...प्रसन्न इसलिए भी हुआ कि यह अधिकारी जिस काष्ठ का बना था उसको आखिर पहाड़ की निष्कलंक हवा ने ही बड़ा किया है। उस एक कमरे से ही यदि राज्य की नीति-योजनायें भले कामों में लग सकें...वे अपने हिस्से की लड़ाई यूं ही लड़ते रहें...परन्तु मन उद्विग्न था कि उत्तरांचल की जमीन में जितने ज्वलन्त प्रश्न उग रहे हैं, वे कहीं भ्रष्टाचारी दैत्यों के सिंहासन में आरामदायक कुशन न बन जायं... और वे हमारी समस्याओं के मुखौटे हमें ही पहनाकर, इसे ही हमारी संस्कृति न बना लें....आखिर वे इस राज्य को आरामगाह ही तो मानते हैं।