आदमी का आदम


सुना है- 
कभी दुनियाँ में सिर्फ आग थी- 
चारों ओर आग ही आग...
फिर हवा, पानी, मिट्टी 
और आकाश का आना हुआ 
और इस तरह, 
धरती का गुनगुनाना हुआ। 
आग के धधकते गोलों के बावजूद 
उस समय चारों ओर शांति थी...
फिर 'क्रांति' की सुगबुगाहट हुई 
धरती पर जीवन की आहट हुई 
उस आहट के अतिरेक में 
श्रेष्ठतम की छटपटाहट हुई 
और हड़बडाहट में 
अचानक आदमी हुआ
आदमी के होते ही 
जो नहीं होना था 
वह सब कुछ हुआ! 
पहले आदमी आदम था 
फिर आदम आदमी हुआ 
धीरे-धीेरे विकसित होकर 
आदमी लगभग आदमकद हुआ 
एक जमाने में-
आदमी सचमुच आदमी हुआ 
उस समय आदमी के भीतर-बाहर 
सचमुच आदमी ही धड़कता था 
आदमी थोड़ी देर के लिए 
केवल उसी समय आदमी था 
फिर आदमी को आदमी ने छुआ 
और आदमी थोड़ा कम हुआ 
आदमी के थोड़ा कम होते ही 
उसे दूसरे के आदमी होने का 
गम हुआ 
बस! यहीं पर 
ग्लोबल वार्मिंग का असर शुरू हुआ 
और इस सदाबहार दुनियाँ में 
'क्लाइमट चेंज' का खतरा शुरू हुआ 
इस खतरे की वजह से ही 
आदमी काला-गोरा, लम्बा-नाटा, 
पूर्वी-पश्चिमी, उत्तरी-दक्षिणी 
वर्मी, चीनी, जापानी, 
अफगानी, फिरंगी 
हिन्दू, यहूदी, 
मुसलमान और ईसाई हुआ 
यानी आदमी जैसा होकर भी 
आदमी, 'आदमी जैसा' न रहा। 
'आदम से आदमी तक 
और आदमी से फिर आदम!' 
सफर सुहाना है। 
दुनियाँ के लोगों! 
इन वीरान वन-प्रांतरों के 
बोलते सन्नाटों को सुनो...
तीसरी बार 
कोई आदमी नहीं होगा 
क्योंकि दूसरा आदमी 
पहले आदमी को 
निगलने के साथ-साथ 
निगल चुका है-
तीसरे आदमी के 
हिस्से की सारी हवा, 
सारा पानी, सारी आग
सारी जमीन और सारा आकाश...! 
सुनो रीढ़विहीन कंकालो!!
अब तीसरी बार 
जीवाश्म के भीतर 
बसेगी दुनियाँ 
और चाँद पर चटनी पीसेगा 
तुम्हारा विज्ञान 
क्योंकि तीसरी बार 
कोई दुनियाँ नहीं होगी 
कोई मानव नहीं होगा 
इसलिए कोई 
दानव भी नहीं होगा। 
अपने मकड़जालों को 
खूब सहेजकर 
संभालों बौद्धिकांे! 
पर आम आदमी को 
सिर्फ इतना समझाओ-
कि दुनियाँ 'से' मरकर भी 
दुनियाँ 'के' कारण 
नहीं मरता आदमी 
बल्कि आदमी के कारण 
मरती है दुनियाँ 
तभी तो- 
सारी दुनियाँ में खोजकर भी 
मुझे कहीं एक आदमी जैसा 
आदमी नहीं मिला 
लेकिन एक ही आदमी के भीतर 
देखी है मैंने 
एक लाख दुनियाँएं...
एक-एक कर 
खाक होती दुनियाँएं...