आरक्षण का जिन्न फिर बोतल से बाहर



आरक्षण का जिन्न पुनः बोतल से सोशल मीडिया द्वारा नये स्वरूप में बाहर निकाला जा रहा है जिससे समाज के सद्भाव को फिर से बिगाड़ा जाय। उन्हें विश्वास है कि यदि समाज में उथल-पुथल का वातावरण बना रहेगा तो उनके खूंटे उतने मजबूत होते रहेंगे, जिससे वे सत्ता का निरन्तर सुख भोग सकें। समाज में समरसता कायम रखने का यह मुक्कमल इलाज नहीं है। इससे समाज में दरारें और घृणा का वातावरण और गहरा जायेगा। लोग सद्भाव संवेदना और शालीनता की परिभाषायें भूल जायेंगे। पूरा देश जाति, क्षेत्राीयता, वर्ग और धर्म के खेमों में बंट कर रह जायेगा। धीरे-धीरे देश इसी रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। भविष्य का भारत किस आकार का होगा किसी को पता नहीं।
आरक्षण की अवधारणा पर यदि संविधान के परिप्रेक्ष्य में चिन्तन करें तो संविधान की प्रस्तावना में देश के समस्त नागरिकों के सामाजिक न्याय देेने की बात स्पष्ट रूप से कही गयी है, जिसमें व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता की दृढ़ता का विशेष उल्लेख किया गया है।
आजादी से पूर्व भारत लगभग 250 वर्ष अंगे्रजों के व 750 वर्ष मुगल सल्तनत के अधीन रहा। गुलामी के इस दौर में देश के आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक ढांचे पर जो कुठाराघात किये गये उससे पूरा राष्ट्र पिछड़ेपन के अन्धकूप की ओर बढ़ता चला गया। सदियों के इस पिछड़ेपन को दूर करने के लिए यदि इस खामियाजे को किसी वर्ग विशेष को इसका दोषी मान लिया जाय तो यह उनके प्रति अन्यायपूर्ण होगा। पूर्व में जिस प्रकार की व्यवस्था और कार्यकलापों से समाज के आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक क्षेत्रा में जुल्म ढाये गये और जनता का भरपूर शोषण किया गया, यदि उसकी पुनरावृत्ति अब बदले की भावना से किसी वर्ग विशेष पर की जायेगी तो यह हमारे संविधान के मूल अवधारणा को नष्ट कर देगा। अब प्रश्न उठता है कि संविधान के अनुच्छेद 14-18 के अन्तर्गत समानता के मौलिक अधिकार के परिप्रेक्ष्य में आरक्षण क्या न्यायपूर्ण है? क्या इसके द्वारा उक्त अनुच्छेद का उल्लघंन नहीं होता?
आरक्षण व्यवस्था एक निश्चित समय के लिए की गयी थी। लेकिन राजनैतिक स्वार्थों ने इसे स्थायित्व प्रदान कर दिया। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण संविधान की धारा 334 व 335 में चर्चा की गयी है। दलित जातियों की पहिचान और आरक्षण व्यवस्था की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 340 में कर एक आयोग गठित करने की बात की गयी है। चूंकि संविधान में अनुसूचित जातियों, जनजातियों की सूची तथा नामावली और पिछड़े वर्ग की कोई सूची नहीं थी। अतः इस वर्ग की पहिचान एवं आरक्षण व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए महामहिम राष्ट्रपति द्वारा एक संवैधानिक पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया गया। 30 जनवरी 1953 को कालेलकर आयोग बनाया गया, जिसने 3 मार्च 1955 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की आयोग के अध्यक्ष श्री कालेलकर ने अपनी असहमति व्यक्त करते हुए तर्क दिया कि पिछड़ी जातियां अपने पिछड़ेपन के लिए स्वयं दोषी है, इसलिए सरकारी नौकरी में आरक्षण देना गलत होगा। सरकारी नौकरियां नौकरी के लिए नहीं बल्कि समाजसेवा के लिए होती हैं। जाति के आधार पर पिछड़ेपन की शिनाख्त करने से जाति व्यवस्था स्थायी तौर बनी रहेगी इसलिए आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए। कालेलकर के तर्क सशक्त तथा यथार्थवादी थे।
तर्क और कुतर्क के आधार पर राजनेताओं द्वारा आरक्षण का जिन्न जिन्दा रखा गया। इसी परिप्रेक्ष्य में 20 सितम्बर, 1978 को मोरारजी देसाई की जनता सरकार ने वीúपीú मण्डल की अध्यक्षता में द्वितीय पिछड़ी जाति आयोग का गठन किया, जिसने 31 दिसम्बर, 1980 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की इस आयोग का उद्देश्य भी सामाजिक शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग की पहचान कर उसके उत्थान के लिए दिशा निर्धारण करना ही था। अपनी रिपोर्ट में आयोग ने यह स्पष्ट किया था कि जातियां हिन्दू समाज रचना की आधारशिला हैं। आयोग ने हिन्दुओं के साथ अन्य धर्मों की कुल 3743 पिछड़ी जातियों को वर्गीकृत किया। मण्डल आयोग की मुख्य सिपफारिश थी पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों व शैक्षणिक में प्रवेश के समय 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाय जिस पर लगातार अमल किया जा रहा है।
मण्डल आयोग की रिपोर्ट 26 वर्ष पूर्व प्राप्त हुई थी सन 1990 में उसको लागू करते समय यह नहीं सोचा गया कि आबादी का कितना प्रतिशत हिस्सा पिछड़ा दलित एवं उपेक्षित है। मण्डल के आंकड़े सामान्यतः अनुमान पर आधारित थे। इस प्रकार अधूरे एवं अविश्वसनीय आंकड़ों को आधार मानकर कानून बना देना क्या संविधान की दृष्टि से सही है? मण्डल द्वारा सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से जातियों को पिछड़े क्षेत्रा घोषित करने का जो पैमाना रखा गया था। वह वैज्ञानिक दृष्टि से कभी मान्य नहीं हो सकता। पिफर भी संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप कुल आरक्षण की सीमा निर्धारित की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 16 ;4द्ध के अनुरूप 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं होना चाहिए तथा इस आरक्षण का लाभ केवल प्रारम्भिक नियुक्ति पर ही देय है।
जब एक संवैधानिक व्यवस्था कर दी गयी थी तो राजनैतिक पुरोधाओं द्वार बार-बार इसका उल्लंघन कर आरक्षण के जिन्न को बाहर क्यों निकाला जा रहा है? क्या उन्हें जमीन पर पसरा हुआ सच नहीं दिखायी दे रहा है? क्या वे अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए लोकतन्त्रा को तोड़-पफोड़ कर रख देना चाहते हैं? वे बार-बार अधर्म और अन्याय की बात पर क्या साबित करना चाहते हैं। जनता क्यों मौन है?
आरक्षण के पीछे राजनीति की जो मंशा है उससे व्यवस्था पर प्रश्न चिर् िंलग रहे हैं। समाज उसे संदिग्ध दृष्टि से देख रहा है। जिससे सामाजिक सद्भाव में कमी आयेगी। योग्यता और गुण के तिरस्कार का माहौल बनेगा। देश की राजसत्ता पर सभी का समान लोकतांत्रिक अधिकार होना चाहिए। यदि इस सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया के लिए नौकरियों में आरक्षण का राजनैतिक इस्तेमाल होता रहा तो इससे समाज में विकृतियां पैफलेगी, जिससे कुछ समूह भले ही मजबूत हो जाये पर देश तो अन्ततः कमजोर ही होगा।
यह जानकर आश्चर्य होता है कि आरक्षण अब राजनैतिक हथियार बन चुका है दलों द्वारा अधिक से अधिक आरक्षण की मांग का अन्त कहां होगा यह समझ में नहीं आ रहा है। आरक्षण के नाम पर शैक्षिणक स्तर की अनदेखी की जा रही है, 1995 में मध्यप्रदेश में ली गयी इंजनीयरिंग प्रवेश परीक्षा में अनुसूचित जाति/जनजाति के एक परीक्षार्थी ने 900 निर्धारित अंकों में से केवल 1 अंक प्राप्त करके योग्यता सूची में स्थान प्राप्त किया है, यह आरक्षण का ही चमत्कार है, इस श्रेणी में 20 आरक्षित सीटें थी किन्तु केवल 8 विद्यार्थी ही परीक्षा में बैठे अन्य 12 खाली सीटों पर जबरन बिना योग्यता देखे भरने की कार्यवाही की गयी। इस प्रकार मेडिकल प्रवेश के लिए कम से कम 62 प्रतिशत अंक प्राप्त करने थे जबकि अनुसूचित जाति/जनजाति, अन्य पिछड़े वर्गों के परीक्षार्थियों को क्रमशः 33 और 20 प्रतिशत अंक प्राप्त करने पर सपफल घोषित किया गया, लगभग यह स्थिति अन्य राज्यों की भी है। तकनीकी प्रशिक्षण देने वाली संस्थाओं में आरक्षण का यह एक कुरूप पक्ष है। आरक्षण की व्यवस्था को इस सीमा तक खींचना गलत है। जब प्रवेश परीक्षायें होती है तो न्यूनतम योग्यता की भी कोई सीमा रेखा होनी चाहियें, एक मानक तो तय करना ही होगा, यदि उस छात्रा का दाखिला होगा तो क्या वह इंजीनियरिंग/मेडिकल की पढ़ाई समझ पायेगा, मेडिकल के उपचार सूत्रों का प्रतिपादन कर सकेगा, एक अंक से कम और क्या हो सकता है। ऐसी स्थिति में उसे दाखिला देने से किसी का भला नहीं होगा न छात्रा का और न समाज का।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक फैसला दिया था कि अन्य पिछड़े वर्गों में जो परिवार आर्थिक/सामाजिक दृष्टि से उन्नति कर चुके हैं। उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए, लेकिन इस पैफसले पर किस सरकार ने पालन किया। केन्द्रीय सरकार तथा प्रायः सभी राज्य सरकारों ने ये कसौटियां तय कर दी  जो हास्यापद है। कोई पिछड़े वर्ग का व्यक्ति भारत का राष्ट्रपति बन जाय तब भी वह पिछड़ा ही रहेगा।
देश के आम चुनाव जैसे निकट आते जाते  हैं, आरक्षण का जिन्न बोतल से बाहर निकाल लिया जाता है, ताकि जनता को बरगला कर अपने पक्ष में किया जाय। इस प्रकार के तमाशे कब तक चलते रहेंगे, कब तक अपमानित होता रहेगा समाज का एक विशेष वर्ग।
आरक्षण की समस्या वस्तुतः अब बहुत जटिल हो गयी है। आरक्षण सुविधा प्राप्त करने का ठोस आधार क्या हो? एक परिवार के सदस्यों को कितनी पीढ़ियों तक यह सुविधा देय होगी आदि प्रश्न इस सम्बन्ध में प्रायः उठते रहते हैं। एक तथ्य विशेष रूप से विचारणीय है क्या यह आवश्यक है कि आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ व्यक्ति सामाजिक रूप से भी पिछड़ा हुआ है अथवा सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ व्यक्ति सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ है?
संविधान निर्माताओं ने आरक्षण की अवधि सीमा 2000 ईú तक बढ़ायें जाने की सुविधा प्रदान करने का प्राविधान किया था उसके बाद मानदण्ड आर्थिक बनाने की बात थी, उक्त अवधि के बाद आरक्षण की सुविधा सभी पिछड़े लोगों के लिए दिया जाना था परन्तु ऐसा नहीं किया गया। आरक्षण का दृष्टिकोण मानवीय न होकर राजनैतिक स्वार्थ हो गया है। इसलिए आरक्षण का जिन्न पुनः नये स्वरूप में बोतल से बाहर निकाला जा रहा है। राजनीतिज्ञ अपनी उदण्डताओं से देश की जनता से कब तक खेलते रहेंगे।