आतंकवाद का उन्मूलन और मानस


वर्तमान युग में आतंकवादी तत्वों का हाहाकार विश्व में व्याप्त है। एक ओर विज्ञान के नये-नये अविष्कारों की चकाचैंध है, दूसरी ओर विश्व दुःख और अशान्ति की ज्वालाओं से दग्ध होता जा रहा है। मूल्यहीनता और मूल्यगर्भिता की टकराहट से विश्व बेचैन है। मानव मस्तिष्क और प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग रावण युग की तरह विध्वंशात्मक कार्यों में किया जा रहा है। 'रामचरितमानस' की पृष्ठभूमि में सही मानसिकता है। आत्मचेतना, आत्मसंघर्ष और आत्मशुद्धि जीवन मूल्यों की स्थापना का मनोवैज्ञानिक ठोस आधार  है। व्यक्ति चेतना, समाज चेतना, लोक चेतना और विश्व चेतना का आलोक, धार्मिक मर्यादा पालन के धरातल पर व्यक्ति को दायित्वबोध की ओर उन्मुख करता है। इसी दायित्वबोध ने गोस्वामी तुलसीदास जी को रामचरितमानस प्रणयन के लिये विवश किया।
राम का मिथक अनंतकाल से जनमानस में आस्था, भावना और दायित्व चेतना का सशक्त माध्यम रहा है। वैदिक काल से अद्यपर्यन्त भारतीय मानस में राम, दिव्य चेतना के संवाहक रहे हैं। रामचरितमानस ने मानव जीवन में व्याप्त त्रासदी से मुक्ति और आत्मनिष्ठा को व्यक्तिगत स्तर की अपेक्षा सामाजिक चेतना के रूप में उठाया है। राम अटल आस्था के केन्द्र हैं। मानस में आतंकवाद को अधर्म की उपज के स्प में प्रस्थापित किया गया है। धर्म, कर्मकाण्ड या संप्रदाय का बोधक न होकर कर्तव्य चेतना एवं 'सत्यं शिवं सुन्दरम' की गरिमा का उन्मेषक है जिसके आचरण में मानव जीवन के चिरंतन प्रश्नों का हल समाहित है। यहां राम धर्म संस्थापक हैं और रावण अमानवीयबर्बरता का प्रतीक...
युगदृष्टा और युग प्रर्वत्तक कवि तुलसीदास जी मानवता थे। उनके युग में धर्म के क्षेत्र में सवच्छन्दता, विचारधारा के नाम पर नित नये मतमतान्तर और सम्प्रदाय उदित हो रहे थे। जिनके मूल में प्रतिक्रियावादिता और नास्किता थी। विषम विधटन की स्थिति और व्यक्तिवादिता विकराल भावी को संकेतित कर रही थी। तुलसी जी की पैनी दृष्टि ने भावी भारत एवं मानवता को ठेस पहँुचानेवाली मानसिकता को भाँप लिया था। तत्कालीन समाज जीवन, राजनीतिक क्षेत्र और धार्मिक-जगत अपनी-अपनी डफली अपना राग की स्थिति में था। सर्वत्र अराजकता थी। असद् तत्व और विदेशी आतंकवादी बल देश पर हावी होते जा रहे थे। सामान्य जन संकीर्णता और संकल्प विहीनता में किंकर्तव्य विमूढ़ था। इस जड़ मानसिकता को ध्वस्त करने और आत्मचेतामूलक जीवन मूल्यों की स्थापना हेतु ''समन्वयय  का मंत्र'' दृढ़ संकल्प के साथ संतवर्य तुलसीदास जी ने दिया। राम सगुण रूप में विष्णु अवतार हैं और निर्गुण रूप में जड़ चेतन में व्याप्त ब्रह्मत्व-
व्यापक ब्रह्म निरंजन, निर्गुण विनोद।
सो अज प्रेम भगति, कौसल्या के गोद।।
शैव-वैष्णव मतभेद की विकृत मानसिकता दूर करने तथ्य उजागर किया, षिव राम उपासक हैं और राम षिव के 
''शंकर विमुख भगति मोरी। 
सो नारकी मूढ़मति''
इसी प्रकार ''ग्यान हिं भक्ति नहिं कछु भेदा
कथन द्वारा साधना मार्ग की अराजकता दूर करने हेतु ज्ञान जल में स्नान और हृदय में भक्ति को आवश्यक बतलाया।
मानस के सभी पात्र जीवन मूल्यों के वाहक हैं। इसीलिए महाप्राण निराला तुलसी की महान साधना को अपनी कविता में उठते हैं।
'देशकाल के शर से विंधकर
यह जागा कवि अशेष छविधर
इसका स्वर भर भारती मुखर होएंगी।
तुलसी ने समाज के सभी स्तरों की पीड़ा को भोग था, जनभाशा और विर्विध शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनका काव्य बहुजन हिताय बहुजन सुखाय है। जबकि अधिकांश युगीन कवि अपनी काव्यशक्ति का भौतिक सुख और लोकेषणा में उपयोग कर रहे थे। क्रान्तिकारी कवि तुलसी इसीलिए कहते हैं
कीन्हें प्राकृत जन गुणगाना।
सिर धुनि गिरा लागि पछिताना।।
कवि का राम धर्मनिष्ठ जन कल्याण में निरत है। राम मानवमूल्यों का मिथकीय रूप है। कवि ने राम से भी अधिक उनके नाम को महत्व दिया है। राम एक तापस निय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी।
कुमति सधीर में आतंकवादी तत्वों के दतमन और विश्वशान्ति के बीज तत्व हैं। राम स्वयं विश्व बंधुत्व अर्णव है। जिस प्रकार गंगा में जितनी भी सरिताएँ मिलती हैं सभी मुक्तिदायिनी बन जाती है। क्रूोंकि राम ने निषाद मील राक्षस वानर आदि सभी को गले लगाया और वे सभी राममय हो गये। इसलिये जो भी अंतर बाह्यय जीवन में प्रकाश चाहता है उन्हें निर्दिष्ट किया है राम नात मनिदीय धरूजीह देहरी द्वार
मानस में सर्वप्रथम आतंकवादी घटना दंमी प्रतापति दक्ष केे यज्ञ में घटित होती है। जिसमें सती यज्ञ में शिव अवमानना देख योगाग्नि में भस्म हो जाती है। बालकाण्ड के प्रारम्भ में तुलसीदास जी ने श्री राम को अवतार क्यों लेना पड़ता है? कारण बतलाते हुये लिखा है धर्म की हानि रोकने आतंक अन्याय अत्याचार और नीच अभिमानी तत्वों का नाश करने सज्जनों की पीड़ा दूर करने एवं मर्यादा स्थापिवत करने हेतु अवतरित हुए हैं-
तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा 
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।
इस संदर्भ में विष्णु के अनेक अवतारों की भूमिका का विरण दिया गया है। नारद में अभिमान अहंकार अंकुरण की स्थिति में विश्वमोहिनी स्वयंवर आयोजन और राम जन्म के कारणों का विवरण से है।
रावण के आतंकवादी शासन से समग्र पृथ्वी का कराह उठना बड़ा ही हृदय द्रावक है। रावण राज्य में-बाढ़े खल बहुत्यारे जुआरा। 
जे लंपट पर धन परदारा
मानहिं मातु-पिता नहिं।
साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।
अनाचार अत्याचारों का नग्न चित्रित करते हुए लिखा है।
जेहिं जंहिं देस धेनु द्विज पावहिं।
नगर गाउं पुर आगि लगावहिं।।
धर्मविहीन स्थिति में पृथ्वी धेनु रूप धरि ब्रह्मा जी के पास सत्यलोक में निज संताप सुनाएसि रोई'' तब आकाशवाणी हुई हरिहऊं सकल भमि गुरूआई।। अर्थात् विष्णु भगवान अवतार ले, पृथ्वी पर व्याप्त पापाचारों का नाश करंेंगे।
बालकाण्ड में ही राक्षसों के उत्पात से विश्वमित्र निर्विघ्न यज्ञ सम्पन्न करवाने महाराजा दशरथ से राजकुमार राम-लक्ष्मण की याचना कर ले जाते हैं ''पुरूष सिंह दोउ वीर हरषि चले मुनि भय हरन'' लेकिन आरम जाते हुए तड़का वध का संकेत मात्र है। जबकि आचार्य केशव के राम नारी वध करने से हिचकते हैं। विश्वमित्र बतलाते हैं नारी वात्सल्य मूर्ति होती है। जबकि ताड़का तो द्विज दोषी ने विचारिये, कहो पुरूष कहा नारि'' अर्थात् ब्राह्ममण समाज के स्तंम्भ होते हैं उनको मारने वाले का वध अवश्य करना चाहिए।
राम यज्ञ विध्वंश करने आये हुए सुबाहु का सेना सहित वध करते हैं और मारीच को बाण संधान कर सत जोजन जा सागर पारा'' अर्थात् रावण को संदेश दिया, आतंकवादी अधर्म कार्य बंद करो अन्यथा सुबाहु जैसी तुम्हारी स्थिति होगी। अहल्या को भी स्वर्ग के शासक इन्द्र के कुचक्र का शिकार बनना पड़ा। युगों से उपल देह धरि धीर राम जैसे पुरूष की राह देख रही थी। राम-चरण स्पर्श पाते ही 1गट भई तपपंुज। सीता स्वयंवर के अवसर पर भृगुपति केरि गरब गरूआई'' राम के प्रभाव से गदूर होती है। सीता जी द्वारा रामचन्द्र को जयमाल पहनाते ही आतंकवादी मानसिकता उभरकर सामने आती है। उदण्ड मर्यादाविहीन राजा कह उठते हैं-
लेहु छड़ाई सीय कह कोऊ।
धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ।।
तब तक आतंकवादियों का निकन्दन करने वाले परशुराम का आगमन होता है। उनकी उपस्थिति से ही उदण्ड राजा बाज झपट जनु लुकाने की स्थिति में आ जाते हैं।
अयोध्याकाण्ड में आतंकवादी मानसिकता देवलोक के कुकर्म में दृष्टिगत होती है। रानी कैकेयी मंदमति अजसपिटारी और अपनी ही दासी कुब्जा के प्रभाव में आ जाती है। जिसकी बुद्धि गिरा मति फेरि अनुसार द्वेषमय हो जाती है। फलतः रामचन्द्र जी का राज्याभिषेक वनगमन में परिवर्तित हो जाता है। निमित्त बनी मंथरा और कैकेयी षडयंत्र था देवलोक का।
अरण्यकाण्ड में आतंकवादी घटना सुरपति सुत धरि बायस बेषा और स्वर्ग के राजा का राजकुमार जयन्त सीता चरन चोच हति भागा लेकिन अन्यायी अत्याचारी राजकुमार राम केे अमोध बाण से कैसे बच सकता था। अन्ततः ण्क नयन करि तजा भवानी और सो भी आतंकवादी मानसिकता छोड़ शरणा गीत स्वीकार करने पर। अरण्यकाण्ड में अनेक अभशापित असुरों का राम ने वध कर उन्हें दुष्कर्म से मुक्ति प्रदान की। लेकिन जैसे ही उनकी दृष्टि-
अस्थि समूह देखि बन आगे।
पूछी मुनहि लागि अति दाया।।
तब मुनियों ने बतलाया 'निसिचर निकर सकल मुनि खाए' ये अस्थियाँ उन तपस्वियों की हैं जिन्हें निशिचर अपना भोजन बना चुके हैं। तब करूणामय राम अरुपूरित नयनों से प्रतिज्ञा करते हैं। 'निसिचर हीन करऊं महि भुज उठाई पन कीन्ह।।'मैं पृथ्वी को राक्षसों से मुक्त करूँगा मात्र दण्ड कारण्य नहीं समग्र विश्व को।
रामायण की कथा को महत्वपूर्ण मोड़ देने वाली घटना है- शूर्पणखा प्रसंग। रावण की बहन नागिन की तरह भयानक दृष्ट हृदय राम-लक्ष्मण को देखते ही कामवश हो जाती है। राम-लक्ष्मण उसके मोहजाल में नहीं फँसते तो भयंकर रूप धारण कर सीता पर प्रहार करे उससे पूर्व राम का संकेत पाते ही लक्ष्मण ने नाक कान बिनु कीन्हि। सूर्पणखा के भड़काने पर रावण के सेनापति खर दूषण औश्र त्रिशिरा विशाल सेना के साथ आक्रमण कर डालते हैं। राम के बाणों के सामने नहीं टिक पाते, उनका वध हो जाता है।
रामायण के कथानक को विशिष्ट मोड़ देने वाली घटना जब शूर्पणखा अपनी करूण दशा का कारण राम-लक्ष्मण को बतलाती हैं। शासक रावण को सीता हरण हेतु प्रेरित करते हुए कहती है।
रूप रासि विधि नारि संवारी
रति सत कोटि तासु बलिहारी।।
कामलोलुप रावण मारीच को कपट मृग बनने का आदेश देेता है। विश्वामित्र के यज्ञ में राम के प्रताप को मारीच देख चुका था। बिनु फर सर रघुपति माहि मारा। और सत जोजन आयऊँ बन माहीं।।
अतएव रावण के हाथ से वध होने की अपेक्षा दखिहऊँ परम सनेही के निमित कपट मृग कनक देहि मनि रचित बनाई और सीता के आगह पर उसका वध राम के द्वारा होता है। रावण की यह कपट लीला सीताहरण में परिवर्तित हो जाती है।
आधुनिक संदर्भ में सीताहरण नरेश मेहता के शब्दों में साधरण जन की अपहृत स्वतंत्रता अर्जन का है। गाँधी के अनुसार विभीषण तथा सुग्रीव सत्याग्रही हैं। रीछ, वानर, गिद्ध आदि जातियाँ स्व पहचान खो चुकी थीं। राम उन्हंें उनकी पहचान और गरिमा की चेतना देते हैं। रावण के आतंक की भयावहता की इन घटनाओं के परिक्षेम में कल्पना की जा सकती है। रावण का जब तक वध नहीं होता है उसका आतंक कपट और दुश्चक्र चरमसीमा तब बढ़ता ही जाता है। स्वर्ग मृत और पाताल लोकों का पीड़क विश्व के भीषण युद्धों में से एक राम-रावण युद्ध हेतु राम को विवश करता है। राम युद्ध को टालने शान्ति का प्रयास निष्ठापूर्वक करते है। नीति निपुण अगंद समझाता है तुम्हारे द्वारा हरण की गई सीता को राम सौंप दें। सब अपराध दमिहि प्रभु तोरा। कारण कि प्रभु राम शरणागत की रक्षा करते हैं। प्रभु का स्वभाव है आरत गिरा सुनत प्रभु अभया करैगो तोहि।। लेकिन दंभी रावण युद्ध की विभीषिका को विश्व पर लादता है। राम आतंकवादियों अनाचारियों अधर्मियों और दुष्टों का नाश कर तीनों लोकों में विश्व शान्ति स्थापित करते हैं।
रामायण में रूढ़िवादी समाज के आतंक से पीड़ित षबरी तथा किष्किन्धाकाण्ड के बाली सुग्रीव प्रसंग भी आतंकवाद से सम्बद्ध हैं परन्तु हृदय शबरी आत्मिक संघर्ष राम नाम का सम्बल पा अपने चैतन्य की रक्षा करती है, सामूहिक जड़ता से टकराती है। अन्ततः राम अनुकम्पा प्राप्तकर रामायण के शीर्ष पात्रों में स्थान बना लेती है। बालि सुग्रीव भी राम शरण में आत्मचेतना का अनुभव करने लगते हैं। मात्र हनुमान द्वारा लंका दहन शत्रुबल विनाश में वरदान मूलक है पर अनेक निर्दोष भी अग्नि के हव्य बने होंगे। उसे आतंकवदी कृत्य गिना जाएगा या नहीं। चिंतन का विषय है।
सुग्रीव लूटमार करने वाले तथा आक्रमणकारी तुलसीदास जी के समय तक देश के शासक बन चुके थे। भारतीयश् पराजय की मानसिकता में अपने सांस्कृतिक स्वाभिमान खो चुके थे। तुलसी ने उनहें जन-जन में बसने वाला दशरथ पुत्र वर राम दियश, जो वनवासी था, जिसकी पत्नी का त्रिलोक में राज करने वाला रावण हरण कर चुका था। राम हताश निराश हुए बिना आत्मतेज दीप्तकर प्राप्त संसाधनों का उपयोग कर सभी जातियों को संगठित कर प्रचण्ड शक्ति को जगाते हैं और आततायी-अत्याचारी रावण और उसके अनैतिक स्रोतों को नष्ट कर डालते हैं। तत्कालीन निष्प्राण जनमानस के हृदय में तुलसी के राम अधर्म का नाश और धर्म की स्थाना एवं आस्थाविहीनता में आस्था जगाते हैं। इस प्रकार राम शाश्वत मूल्यों के वाहक हैं। अतएव जब तक सृष्टि रहेगी तब तक राम आतमचेतना के वाहक रहेंगे। वर्तमान भौतिकता की दौड़ के कारण प्रथम विश्व युद्धोपरान्त शान्ति के प्रयास के नाम पर बनी लीग आॅफ नेशन्स का अस्तित्व ही मिट जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध की नारकीय पीड़ा से बचने 24 अप्रैल 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई। ऊपर से लादी गई विश्व शान्ति की दुर्गति हम इराक और अफगानिस्तान के मानव संहार में देख चुके हैं आज मानव मोबोक्रेसी (टोलाशाही) और ओटोक्रेसी (स्वैराधिकर) की चक्की में पिस रहा है। डेमोक्रेसी (प्रजातंत्र) मात्र एक मुखौटा बनकर रह गया है। राम की अवचेतना इस जड़ता को तोड़ने में सक्षम सिद्ध होगी। मानस का रामराज्य सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत रुति नीति।। 
रामचरित मानस में परिशुद्ध मानस शिवत्व का व्यंजक है। जिसे रचि महेस निज मानस राखा वही तुलसीदास जी का रामचरित मानस गंथ है। आज का विश्व शोषक शोषित वर्ग में बंट चुका है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ने समन्वय को नकारा है। फलतः नक्सलवाद आतंकवाद  कट्टरवाद आदि की दानवी निरंकुश मानसिकता से सारा विश्व झुलस रहा है। साधन साध्य का स्थान ले चुके हैं। साधन साध्य शुद्धि कल्पनातीत बनती जा रही है। ऐसी विषम स्थिति में मानस का सूत्र हरि को भजे सो हरि का होइ तथा हम चख्कर रघुवीर के लोक मंगल की कामना के सूत्र हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मानस की धर्मभूमि में गृह धर्म कुलधर्म समाजधर्म लोकधर्म और विश्वधर्म क्रमशः रेष्ठ बताया है। मानस में धर्म अपने शुद्ध और पूर्ण स्वरूप में दिखाई पड़ता है। राम पूर्ण पुरूष और पुरूषोत्तम हैं। अतएवं आतंकवाद को समूल नष्ट करने तथा विश्वशान्ति के अनुष्ठान में मानस द्वारा निर्दिष्ट मार्ग अमोध वर सिद्ध होगा।
सम्प्रति युगीन परिवेश नैतिक विकलांगता और आस्थाहीनता ने व्यक्ति को अंध बना दिया है। समाज ने वह अपने को काटता जा रहा है। पश्चिमी दृष्टिकोण व्यक्ति शुद्धि से समाज शुद्धि धारणा में उन्मुख होता जा रहा है। भारतीय जीवन दृष्टि बहुजन हिताय बहुजन सुखाय अर्थात् समाज शुद्धि से ही व्यक्ति संस्कार सम्पन्न सुसंस्कृत होता है। तभी वह समाज देश राष्ट्र और मानवमात्र हेतु सुखदायी और हितदायी होता है। आत्मसंस्कार वयक्ति में आत्मविश्लेषण का तटस्थ विवेक-प्रज्ञा जाग्रत करता है। गोस्वामी जी ने आतंकवाद के समूल निकन्दन हेतु इसी विवेक प्रज्ञा की भूमिका का निरूपण किया है।
वर्तमान संदर्भ में जन-चेतना इसी विवेक प्रज्ञा के विराट यज्ञ में समाज और जन चेतना की आहुतियाँ स्वयंभू आहूत होने पर तत्पर हैं जो गोस्वामी जी के शब्दों में साकार रूप लेगी 'संसृति रोग सजीवन मूरी'