आत्मवलोक

वह अन्तस् का तेजपुञ्ज, 
जिसको हमने खोजा घर-घर


चेहरे पर मुस्कान कठिन है,
अन्तस् ज्वालाओं का घर है।
मध्यार्क का प्रचण्ड ज्वाल न,
जीवन का यह प्रथम प्रहर है।


बालसूर्य की मोहक छवि भी
बाँध न सकी है उर को।
प्रातः का सुरभित समीर भी
बाँध न सका आभ्यन्तर को।


मुस्कान-हास की मणियाँ भी तो
अन्तस् से दीपित होती हैं।
अन्तस् के ही ओज-तेज से
नित प्रेरित-पोषित होती हैं।


नयनों में विषाद की रेखा,
भले किसी ने देखा, न देखा।
पर विषाद का प्रथम तुषार
बन गया हृदय की कालीरेखा।


इस विषाद को हर्ष बनाने,
हृदय-वीथिका पुनि सरसाने,
हृदय, हृदय से जूझ रहा है।
ग्रन्थि-ग्रन्थि को खोल-खोलकर,
अबूझ पहेली बूझ रहा है।


पीड़ा की पोटली लिये यह
फिरता हर अहरे, ताखे पर।
फिरता प्रति खूँटी-खूँटी पर
मिले मुक्ति जिसपर लटकाकर।


पर कोई अधिष्ठान न मिलता
किञ्चित् भी स्थान न मिलता।
सर्वशमन के इस सागर में
पीड़ाओं का अवसान न मिलता।


क्लान्त-श्रान्त हो, दिशा-भ्रान्त हो
जब हृदय आर्द्र हो उठता है।
जब सकल साहाय्य विमुख हो
असहाय हृदय रो उठता है।


उस नीरव-निर्वात घड़ी में
आत्मचेतना जगती है।
अपने उन्मीलित नेत्रों से
शक्ति-विभा वह भरती है।


शक्तिस्रोत जागृत होता
आत्मरूप प्रत्यभिज्ञा होती।
अन्तर्चक्षु-पट खुल जाते
चिरसुप्त-शक्ति जागती।


रहे शक्ति की भीख माँगते
द्वार-द्वार याचक बनकर।
वह तेजपुञ्ज कस्तूरी जिसे हम
लिये हुये थे निज आभ्यन्तर।


यह अन्तस् का तेजपुञ्ज
जिसको हमने खोजा घर-घर।
भटक-भटककर थके पथिक को
मिला अन्तस् के ड्योढ़ी पर।


आत्मचेतना ही सबकुछ है,
यही सत्य शाश्वत जगत् में।
शक्ति हेतु फिर हम क्यों भटकें
जब अन्तर नहीं लघु-महत् में?