अनगढ़े रास्तों की कहानी

देवभूमि उत्तराखण्ड हिमालय की दिव्य धरती चिरकाल से ही संता,े सिद्धों, साधकों, प्रकृति प्रेमियों और मस्त यायावरों के लिए आकर्षण का केन्द्र रही है। हिमालयी क्षेत्रों की रहस्यमयी ऊँचाइयां सौन्दर्य रसिकों और साधकों को सदा से ही निमन्त्रण देती रही है। यही कारण है कि सामान्य जीवन में जकड़े ठहराव के बावजूद कुछ प्रकृति प्रेमी सब कुछ भुलाकर हिमालय के दिव्य पथारोपण के लिए चल पड़ते हैं और इस तरह शुरू होता है अनगढ़े रास्तों की लम्बी अनकही कहानियों का सुन्दर और रोमाँचकारी दौर जो हिमालयी ऊँचाइयों पर चढ़ते हुए चढ़ती श्वासों के साथ गहराता जाता है। नीरज नैथानी इसी घुमक्कड़ी परंपरा के एक अमीर फकीर हैं जिन्हें बार-बार हिमशिखरों से महाप्रकृति का निमन्त्रण मिलता रहता है। जिन्हें कल-कल करती नदियों झर-झर झरते झरनों और महकते बुग्यालों के बीच जीवन का वास्तविक अर्थ दिखाई देता है और जो आनन्द से आनन्द के लिए आनन्द तक की यात्रा बार-बार करते हैं। घुमक्कड़ी के चतुर सुजान नैथानी जानते हैं कि महाप्रकृति का अन्तर्दर्शन वही कर पाते हैं जो छोटे बच्चे जैसी निर्मलता और जिज्ञासा के साथ मां की तरह प्रकृति का दामन थामते हैं। प्रकृति के प्रति जिस व्यक्ति की दृष्टि निष्पाप नहीं है वह पूरी तरह रीता ही रह जाता है....।
भावना विचार और संस्कारों की दृष्टि से हम आजकल रीते लोगों के दौर में ही जी रहे हैं। आजकल सौन्दर्य और सौन्दर्य बोध दोनों संकट में हैं क्योंकि समाज में स्त्रैण सौन्दर्य की प्रतीक सनी लियोन बन गई है...नाचने का मतलब उछलना और गाने का मतलब चिल्लाना हो गया है और उछलने, चिल्लाने की इस दौड़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। मनोरंजन के चमकीले बाजार ने हिमालय के जोगियों और ऊटी के भोगियों दोनों को धर्मसंकट में डाल दिया है। एक को अपने जोग पर विश्वास नहीं है और दूसरे की आस्था उसके भोगवाद से डिग चुकी है लेकिन दोनों के लिए एक दूसरे के रास्तों में अभी पूरा आकर्षण बाकी है और इसी आकर्षण ने नारायण की माया को माया के नारायण में बदलकर बाजार का भस्मासुर खड़ा कर दिया है। हमारा एक ऐसा दौर है जिसमें फेस का तेज सरफेस पर आकर फेसबुक की प्रीफेस लिख रहा है इसलिए विचार के कातिल को खोजने के बजाय हम नकली लोगों को इस पूरी दुनियां को हाइब्रिड में बदलते देखना चाहिए...आजकल हमारी बस्ती का हर बच्चा मीटर बनने से पहले मील का पत्थर बनना चाहता है और कोई भी नींव का दुर्भागी डांग नहीं बनना चाहता। अगर मेरी बात सच नहीं होती तो डांग (श्रीनगर गढ़वाल का एक गांव जहां विश्वविद्यालय के विस्थापित विद्वान रहते हैं) में पुरातत्व विभाग के लिए दो चार डांग जरूर सुरक्षित रहते। खैर, श्रीनगर शोधार्थियों की भूमि है और      शोधार्थी एक बार ठान ले तो डांग में डांग तो क्या चावड़ी बाजार में कस्तूरा मृग विहार खुल सकता है...वैजनाथ में जिराफ की दुर्लभ प्रजाति खोजी जा सकती है।
यह हमारा परम सौभाग्य है कि पहाड़ के सभी डांग अभी डांग नहीं बने हैं अन्यथा अलकनन्दा के किनारे नीरज जैसा सरस सरल फूल नहीं खिलता। कैसे हैं नीरज नैथानी? आइए पड़ताल करें क्योंकि ये ताल ठोककर हड़ताल और पड़ताल करने का भी समय है। पच्चन के पास पहंुचने वाले इस प्यारे आदमी के दिल में बचपन की सारी मस्ती सारी बेफ्रिकी और सारी सरलता ज्यों की त्यों सुरक्षित है। यानि सबका नक्शा बिगाड़ने वाला समय नीरज नैथानी के इस खजाने को अभी तक छीन नहीं पाया है। ऐसे लाजबाब आदमी के बारे में क्या लिखूं? क्या कहूं? अगर मैं उन्हें गोरा कहता हूं तो यह सच का गला घोटने जैसा होगा और अगर काला कहूं तो नैथानी जी श्रीनगर कोतवाली में मानहानि का दावा कर सकते हैं। ऐसे में रिस्क कैसे लूं? राष्ट्रीय राजमार्ग पर अपने लिए नाकेबंदी क्यों करवाऊँ? खैर, सुना है जो नमक खाते हैं उन्हें स्वीटडिश भी खाना ही पड़ता है।
ये जुलाई के दम निकालते दिनों की बात है जब मैं चैरास का झूला पुल पार करके पांच घरों को नैथानी का समझकर नमस्कार करते-करते अंत में आखिरी घर पर पहंुचा जो सचमुच नैथानी जी का ही था। इस बार नमस्कार बोलने का टाइम नहीं मिला क्योंकि मेरे बिना कुछ बोले ही उनका झबरा (कुत्ता) प्रेम से सीने पर चढ़ गया और अपनी तीव्र घ्राणशक्ति से मेरी तहकीकात करने लगा। जब से झूला पुल के निकट का पक्का पुल झूला है तब से झूला पुल का नाम और भी सार्थक हो गया है। श्रीनगर आते-आते जब-जब पक्के पुल पर नजर जाती है तब-तब ऐसा लगता है मानो महाबली भीम ने जरासंध की दोनों टांगे चीरकर आर-पार खड़ी कर दी हों। पुल लगभग इतना बन गया था कि निर्माणाकर्ता संस्था के बाबुओं ने उद्घाटन के लड्डुओं के लिए अपने सुरसा जैसे मुंह का साइज तक हलवाई को दे दिया था किन्तु हा हन्त! हा हन्त बुरा हुआ अंत! उधर खण्डूडी जी का सपना टूटा और इधर उनके सपनों का पुल टूटा। हलवाई का दिल तो उसी दिन टूट गया था जिस दिन बाबुओं का झुण्ड अपने सहित उसकी जलेवी के कढ़ाह में टूट पड़ा था। राजनीति की जोड़ तोड़ की तरह इधर भी तोड़ फोड़ लम्बी चलेगी पहले पुल बनाने के लिए तोड़-फोड़ चलेगी....गोया, पुल न हुआ बाबरी मस्जिद हो गई।
मैं पांच दिन में एक ही बार दर्पण देखता हूं इसलिए नैथानी जी को मुझे पहिचानने में समय लगा....उन्हें सन्देह भी हुआ कि ये आदमी हिमालय में रहता है या कोयले की खान में! खैर खूब बातें र्हुइं...सामाजिक जन-जीवन की विवेचना हुई, मंैने खीर खाकर टूटे पुल की पीर मिठाई...चंद घड़ियों में प्रतिष्ठा की चाय तैयार हुई और लौटते समय नैथानी जी ने मुझे अपनी सभी प्रकाशित कृतियों की एक-एक प्रति उपहार स्वरूप दी। ये पुस्तके हैं डोंगी (लघु कथा संग्रह) हिमप्रभा (पर्यावरणीय काव्य संग्रह) लन्दन से लैस्टर (यात्रावृतान्त) और हिमालय पथ पर (पथारोहण वृतान्त)। सभी कृतियां रोचक ज्ञानवर्धक और साहित्यिक सौन्दर्य से युक्त हैं और नैथानी के मन की पीर बखूबी प्रतिबिंबित करती हंै। मुझे हिमालय पथ पर विशेष रूप से अच्छी लगी। इस पुस्तक में हिमालय के सुन्दर पथ पर आरोहण करते हुए लेखक ने पांच पथारोहण वृतान्तों का समावेश किया है। वृतान्त इतना जीवंत और रोमांचक है कि पढ़ते-पढ़ते मैं हवा के झांेकों, सर्द घने कोहरे के आगोश में आकर हिमालयी हिमपात से भीगने लगा...मनोहारी दृश्यावलियों पर रीझने लगा...। एक रोमांचकारी बानगी देखिए...''कुछ ही देर में हम पहले वाले बड़े ग्लेशियर के पास पहंुच गये फिर हम चारों एक दूसरे का हाथ पकड़े धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। थोड़ा आगे जाकर हमें हाथों को छोड़ देना पड़ा क्योंकि रास्ता बहुत संकरा था। कहीं-कहीं पर केवल पंजाभर रखने की जगह थी...नीचे बहुत गहरी खाई तक ग्लेशियर गया हुआ था। थोड़ा और थोड़ा और...बस किसी तरह कांपते दिल से हमने वह ग्लेशियर पार किया। हां, उस तरफ जाकर हम सभी ने एक साथ नीचे झांककर देखा, हम बहुत बड़ा खतरा मोल लेकर इधर आये थे। (हिमालय पथ पर पृ0 20)
पथारोहण जैसे साहसिक अभियानों के लिए इतना साहस जरूरी है। यकीकन मौत से टक्कर लेना बेहद जोखिमभरा काम है। पर एक बार खतरे को पार करके व्यक्ति की शक्ति और आत्मविश्वास दुगना हो जाता है। जिन्दगी और मौत की इस सनातन रस्साकस्सी में निःसन्देह भाग्य बहादुरों के साथ होता है। मानव के सफल साहसी अभियानों का इतिहास इस बात का साक्षी है। हिमालय पथ पर पढ़ते हुए ऐसे क्षण यदा-कदा आते रहते हैं जब लेखक की आशंकाओं के रहस्य का जादू पाठक को पूरी तरह अपने गिरफ्त में ले लेता है यथा-''हम जिस टाॅप पर खड़े थे उसके ठीक नीचे बर्फ पर दस- बारह ताजे पंजों के निशान बने थे। उसके बाद पैरों का कोई निशान नहीं दिख रहा था। हम सोचने लगे अगर ये हमारे साथियों के पदचिह्न हैं तो केवल थोड़ी दूर तक क्यों दिख रहे हैं, उसके आगे क्यों नहीं? हम कुछ और सोच पाते तब तक कुहरे ने उस जगह को भी ढक दिया व ऊपर उठते हुए हम उसको एक रहस्यमय धुन्ध में कैद करके दूसरी ओर बढ़ता चला गया। हमारा मन आशंका से भयभीत हो गया। आखिर साथी लोग कहां है? अभी बासु की कितनी दूर होगा? (पृ0 21) यह बेहद रोमांचक पथारोहण वृतान्त ''श्री केदारनाथ वासुकी ताल ट्रैक का है जो इस ग्रन्थ का प्रथम वृतान्त है। इसी प्रकार 'गोमुख-तपोवन-कीर्ति ग्लेशियर एवं डोडीताल ट्रैक पर यात्रा करते समय नीरज नैथानी की मण्डली जे0 किंग नामक एक प्रकृति प्रेमी आस्ट्रेलियाई नागरिक से मिली जिसने इस दल को गहराई से प्रभावित किया। आकर्षक नौकरी और भौतिक सम्पदा का मोह मुक्त पंछी जो किंग को बांध नहीं सके और 'तुम रखो स्वर्ण पिंजर अपना अब मेरा पथ तो मुक्त गगन'-कहकर यह प्रकृतिप्रेमी की अंतहीन यात्राएं करने में जुट गया। जे किंग की प्रकृति निष्ठा के बारे में नैथानी लिखते हैंः-''जब हमने उससे पूछा कि उसका परिवार बच्चे....क्या-क्या हैं तथा क्या उसे उनकी याद नहीं आती थी तो उसने बताया कि प्रकृति उसकी मां है और वह उसका बेटा। हमने फिर जिज्ञासावश पूछा कि उसका खर्चा कैसे चलता है तो उसने बताया कि फिलहाल तो चल ही रहा है फिर मैं जिस मां (प्रकृति) को इतना प्यार करता हूं वहीं मुझे आगे भी खिलायेगी, मां अपने बच्चे को भूखा नहीं मार सकती''। (पृ0 54) पुस्तक का एक अन्य आकर्षण हरि की दून ट्रैक (उत्तराकाशी) का जीवंत और रोमाचंकारी वर्णन है। पथारोहण के साथ-साथ लेखक ने यमुना घाटी की समृद्ध स्थापत्य कला जीवंत लोक संस्कृति और लोकपरंपराओं का चित्र गहरी अन्तर्दृष्टि के साथ प्रस्तुत किया है। एक-एक पड़ाव एक-एक बुग्याल तथा एक-एक रमणीक स्थल का वर्णन बड़ी सुन्दरता के साथ किया गया है। स्वर्गरोहिणी हिमशिखर की तलहटी से गुजरते  हुए नैथानी और उसके साथियों का प्रवेश एक ऐसे वन्य क्षेत्र में हुआ। जिसे किसी आतताई ने जला डाला था। इस नजारे को देखते ही पूरी मण्डली के नथूने गुस्से से फड़फड़ाने लगे...सागर की तरह शांत राजेश जैन बड़बड़ाने लगे...आनन्द का बसन्त वेदना के पतझड़ में बदल गया...सबके चेहरे गुस्से  से लाल, फिर नीले और अंत में अपने सदाबहार रूप यानी काले में बदल गए। ईश्वर का शुक्र है कि उस समय कोई लकड़ी काटने वाला या दूसरा कोई संदिग्ध व्यक्ति इस मण्डली के एक किमी0 वर्गाकार क्षेत्र में मौजूद नहीं था वरना उस बेचारे का जून में ही 'जिमि जवास परि पावस पानी' हो जाता। इससे पहले कि इस प्रकृतिप्रेमी पथारोहण दल के अश्कों का समुन्दर यमुना घाटी में बाढ़ लाता, जयकृष्ण पैन्यूली ने प्रैक्टिकल विजडम दिखाते हुए सभी से आग्रह किया कि जल्दी से जल्दी इस क्षेत्र से चला जाय। सुझाव पर युद्धस्तर से अमल हुआ और इस प्रकार वेदना का सावन पुनः दुगुनी तेजी से उल्लास के फागुन में बदल गया। सभी ने रहस्य रोमांच और आनन्द के सागर में गोते लगाते हुए हरि की दून घाटी में प्रवेश किया। हरि की दून घाटी पर कुदरत ने अपनी बेशुमार नीमतें न्यौछावर की हंै...घाटी के धवल हिमशिखरों को देखकर असंख्य फूलों की महक पाकर पक्षियों का कलरव, शांत बहती जलधाराओं का मौन समर्पण और कालीन जैसे फैले बुग्यालों की हरी चादर देखकर चित्तशुद्धि हो जाती है। सौन्दर्य से अभिभूत नैथानी लिखते हैं-
''पूरी घाटी में छोटे-छोटे विभिन्न रंगों के खिले हुये फूल बिखरे थे। सामने स्वर्गरोहिणी हिमशिखर चांदी सा दैदीप्यमान हो रहा था। घाटी के एक ओर रूपिन तथा दूसरी ओर बड़ासू गाड़ हिम निर्झरणियां मालाओं सी पिरोयी हुयी लग रही थीं। पूरी घाटी शांत व निस्तब्ध थी। बीच-बीच में उड़ते हुए पक्षियों का कलरव वातावरण को मधुर संगीत प्रदान कर रहा था.....अब समझ में आया कि क्यों हरि की दून बुग्याल पथारोहियों का स्वर्ग कहलाता है'' (पृ0 106-7)
पुस्तक का अंतिम अध्याय नंदा देवी राजजात वर्ष 2000 को समर्पित है। इस अध्याय में पूरी राजजात का जीवंत एवं रोमांचकारी वर्णन लेखक ने किया है। असीम जीवट सत्साहस अडिग संकल्प और ईश्वर की अन्नय कृपा से सम्पन्न होने वाली महायात्रा है मां नंदा की राजजात। वे लोग धन्य है जिन्हें इस साहसिक धार्मिक अनुष्ठान के लिए मां नंदा का निमन्त्रण मिलता है।
''हिमालय पथ पर'' ग्रन्थ में खोजकर भी कोई दोष/कभी मुझे नजर नहीं आया। इतना जरूर हो सकता था कि भूमिकाविहीन इस ग्रन्थ की भूमिका इन अभियानों में शामिल किसी एक व्यक्ति से लिखावाई जाती। पुस्तक छायाचित्रों से और भी सुन्दर बन गई है हालांकि कवर पृष्ठ की भांति अगर ये चित्र रंगीन होते तो सोने में सुहागा...नैथानी जैसे निर्मल सौन्दर्य रसिक अगर कुछ और होते तो गली मुहल्लों की गन्दगी सूंघने के बजाय लोग हिमालय के दिव्य बुग्यालों का रसपान करते। तब बियावान में खिलने वाले फूल की नियति केवल खिलकर मुरझाने तक सीमित नहीं होती। बिडंबना यह भी है कि हमारे समाज में फूल के पास जाकर उसे बिना तोड़े, बिना छोड़े उसका सौन्दर्य चुराने वाले नैथानी जैसे दीदावर गिनती के भी नहीं है तभी तो-
    हजारों साले से नरगिस अपनी बेनूरी ये रोता है,
    बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।।


पुस्तक......... हिमालय पथ पर (पथारोहण वृत्तान्त)
लेखक......... नीरज कुमार नैथानी
प्रकाशक....... ट्रांसमीडिया प्रकाशन, श्रीनगर गढ़वाल
मूल्य............250रू0 (पृष्ठ-175)
समीक्षक.......चरणसिंह केदारखण्डी