बेजोड़ धनुर्धर
हे एकलव्य..!
यदि द्रोण न होते
गुरूकुल
गुरू दक्षिणायें न होतीं
यदि तुम अपना अंगूठा देने से
इनकार कर देते
तो तय था
तुम्हारे पराक्रम से
सुदर्शन चक्र संभालती
तरजनियां भी
मुड़ सकती थीं...
कुरूक्षेत्र के ठीक मध्य
आत्म विषयक
गीता प्रश्न नहीं
निषाद कुल के यशगान होते
संभवतः
कृष्ण तुम्हारे सारथि होते
श्लोक बनकर
कई पार्थ
प्रार्थी बन गये होते,
ऋचाओं के शिल्प
भग्न हो गये होते,
द्रोण जैसे गुरूघण्टाल
अपनी विद्या सहित
नग्न हो गये होते...
अरे निषाद बालक..!
श्रद्धा नाम की
वह विषाक्त लड़की
गुरूकुलों की
वह उत्तेजक गणिका
जिसे तुम द्रोण की
दुत्कार सुनकर भी
अपने साथ
अरण्य में ले आये
यह अन्धश्रद्धा न होती/तो
प्रत्यंचा पर क्रोध से तने
प्रतिभा के वे सिंहनाद
वे हस्तलाघव, युद्धकौशल
तेरे वे बाण सन्धान
छीन सकते थे-
अर्जुन से वह वीरता
द्रोण से उसकी गुरूता
प्रभु से उसकी प्रभुता
हे एकलव्य..!
श्रद्धा के वे कत्थक नृत्य
वे उत्तेजक पृष्ठ न होते
तो तुम
मूर्तिपूजक याचक न बनते
मिट्टी लोंधने नहीं बैठते
बल्कि निशाना साधते
महाचाप पर
भीषण टंकार करते
हस्तिनापुर से पांचाल तक
सभी सिंहासनों के पांव कांपते
हे भोले एकलव्य..!
वह श्रद्धा जिसने
तुम्हें अन्धा बनाया
उसे चैकन्ना कुन्तीपुत्र
ताड़ गया
नारायण के साथ
नरश्रेष्ठ बनकर
गुरू को भी
गुड़ कर गया
निशाना साधकर वही अर्जुन
समय आने पर
द्रोण से भी भिड़ गया
और तुम..!
तुम्हारी दुर्जेयता
वर्षों की मेहनत, लगन
तुम्हारा शौर्य
श्रद्धा-भक्ति के
कपोल कल्पित भवन
के मलवे में दब गया
मेरूदण्ड को धनुष बनाकर
वह श्रद्धान्ध धनुर्धर...
वह एकलव्य...
अंगूठा कटने के साथ ही
मर गया
परन्तु तुम भी सुन लो द्रोण..!
एक निश्छल निषाद से
दण्ड-विधान का
पाखण्ड रचकर
विद्या का सूत्र काटकर
तुम गुरूपद से गिर गये हो
परन्तु देखना...
एक प्राकृत योद्धा के
उन छलछला आये नेत्रों से
एक दिन डूब जायेंगे
सारे सिंहासन
एकलव्य के
पारस जैसे मन में
देखेगा इतिहास
अपना घिनौना मुंह
जातिद्वेष के ये बबूल
स्मृति को भेदेंगे
कल सैकड़ों अंगूठे
धनुष लेकर
प्रश्नों की बौछार छोड़ेंगे
परंपराओं के गाल पर
सरे आम तमाचा जड़ेंगे
तब आप क्या करेंगे..?
कबूतर की तरह
कर्मकान्ड की रेत में
मुंह छुपाने वाले गुरूओं..!
क्या आप कुछ कहेंगे..?
मान्यवर..!
अंगूठा काटने से आप
धनुष-बाण छीन सकते हैं
युद्ध छीन सकते हैं
अवसर छीन सकते हैं
परन्तु अन्ततः
लोक- सिंहासन पर
एक दिन
एकलव्य ही बैठते हैं...
सुन रहे हो न द्रोण...!