बद्रीविशाल :न भूतो न भविष्यति


अपने समस्त धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और रहस्यात्मक आकर्षणों के साथ भू वैकुण्ठ धाम श्रीबदरीनाथ एक बार फिर विश्वभर के श्रद्धालुओं के स्वागत के लिए तैयार है।    मध्य हिमालय की गोद स्थित हिन्दुओं के जिन चार पावन तीर्थों के कपाट शीतकाल में छः माह (नवम्बर से अप्रैल) के लिए बन्द किए जाते हैं, बदरीनाथ उनमें एक है। शेष अन्य तीर्थों में श्रीकेदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री शामिल हैं। ग्रीष्मकाल आने पर पुनः इन पावन तीर्थों के कपाट लोक दर्शन हेतु खोल दिए जाते हैं। वस्तुतः तीर्थ उस स्थान को कहते हैं जहां व्यक्ति का 'तारण' होता है। 
तीर्थ शब्द 'तीर' शब्द से भी निकला है, जिसका अर्थ होता है नदी का किनारा। उस नदी का किनारा जिसमें शाश्वत का वंदन -क्रंदन करता चिर 'नाद' होता है। नाद जीवन की शाश्वत गति, प्रगति और उपस्थिति का प्रतीक और प्रतिबिंब दोनों है। जिन तीरों (नदी तटों) पर ऋषि-मुनियों ने तपस्या करके संसार के तारण का मंत्र खोजा, प्रकारान्तर में वही स्थल 'तीर्थ' कहलाए। यही कारण है कि हिन्दुओं का कोई तीर्थ ऐसा नहीं जिसके निकट 'तीर' यानी नदी किनारा न हो। उत्तराखण्ड हिमालय की रहस्यमयी भूमि को 'देवभूमि' कहा जाता है। यहाँ चिरकाल से देवता रमण करते हैं...तपस्वी मंत्रों का श्रवण करते हैं...योगी, यति और मुनि आध्यात्मिक उन्नति के  शिखरों को छूते हैं। सात्विक   आध्यात्मिक स्पन्दन पाकर यहाँ निश्छल व्यक्ति के अन्तर्मन का देवत्व सहज ही प्रगट होने लगता है और जिस पुण्य प्रसूता भूमि में व्यक्ति के भीतर का देवत्व प्रगट होने लगता है, वही तो देवभूमि है। किन्तु यह देवत्व केवल उसी के भीतर प्रगट होता है जिसने तमाम उपाधियों और आवरणो का अहंकार त्यागकर स्वयं को छोटे बच्चे जितना निर्मल बना दिया हो...विचारों के बबंडर को ढोता, ज्ञान और तर्क के दंभ के साथ जो व्यक्ति बदरीनाथ आता है वह रीता ही लौट जाता है। यहाँ आना उसी का सफल है जिसके भीतर की भक्ति का सुर इस हिमालयी तीर्थ में गुंजित महानाद से मिल जाता है। आनन्द सरोवर में नहाता ऐसा रसिक अनायास ही बोल पड़ता है- अहा! जिंदगी का एक रूप क्या ऐसा भी है! 
बदरीनाथ उत्तर भारत में हिन्दुओं का सबसे पवित्र तीर्थ स्थल है। इस तीर्थ को लगभग आधा दर्जन नामों से पुकारा जाता है और प्रत्येक नाम के पीछे एक विशिष्ट धार्मिक व दार्शनिक आधार है। महातपस्वी नर-नारायण की कर्म स्थली होने के कारण इसका मूल नाम 'नर-नारायण आश्रम' है। एक कथा के अनुसार देवराज इन्द्र का अहंकार चूर करने के लिए भगवान नारायण ने यहाँ अलौकिक-अप्रतिम सुन्दरी उर्वशी को अपनी जंघा से उत्पन्न किया जिस कारण इसे 'उर्वशी पीठ' भी कहा जाता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार देवर्षि नारद केवल बदरीकाश्रम क्षेत्र में ही शाश्वत निवास कर सकते हैं इसलिए इसे देवर्षि 'नारद पीठ' भी कहा जाता है। वस्तुतः शीतकाल में कपाट बन्द होने के पश्चात् यह माना जाता है कि देवताओं के विचरण के लिए आरक्षित इस अवधि में देवर्षि नारद के द्वारा भगवान बदरीनाथ की पूजा सम्पन्न की जाती है। इस प्रकार नारद श्रीहरिविष्णु के पहले अर्चक हैं। यात्राकाल में भगवान बदरीनारायण का मुख्य पुजारी 'रावल' कहलाता है और श्रीमान् रावल को भी देवर्षि नारद का प्रतिनिधि माना जाता है। बदरीनाथ में भगवान नारायण माँ लक्ष्मी के साथ चिरकाल से विराजमान है इसलिए इस क्षेत्र को 'भू वैकुण्ठधाम' ;भ्मंअमद वद मंतजीद्ध भी कहा जाता है। 'बदरी' शब्द का अर्थ तुलसी भी होता है। एक पौराणिक कथा है कि जब माँ लक्ष्मी को बताए बिना भगवान नारायण चुपचाप बदरिकाश्रम क्षेत्र में आकर कठोर तपस्या करने लगे तो अपने पति की खोज करते-करते माता बदरिकाश्रम पहुँची और श्रीहरिविष्णु को कठोर तप मे रत देखकर उनके पीछे तुलसी का पेड़ बनकर उन्हें छाया और शीतलता प्रदान करने लगी। चँूकि 'बदरी' (यानी तुलसी रूप में माँ लक्ष्मी) ने अपने 'नाथ' (श्रीहरिविष्णु) के साथ यहाँ तपस्या की इसलिए कालान्तर मे इस क्षेत्र को 'बदरी नाथ' कहा जाने लगा। माँ लक्ष्मी के प्रति भगवान विष्णु के प्रेम को हम इस बात से समझ सकते हैं कि उनके मन्दिर में मुख्य प्रसाद के रूप में केवल तुलसी अर्पित की जाती है। बिना तुलसी का प्रसाद भगवान के द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता है। बदरीनाथ में आज भी मौजूद तलसी वन और लक्ष्मीवन, बदरी और उनके नाथ की अनूठी प्रणय कथा के साक्षी हैं। बारहपुराण की एक कथा के अनुसार सूर्यवंशी राजा 'विशाल' शत्रुओं से पराजित होकर भगवान विष्णु की शरण में बदरीनाथ आये और उन्हांेने अपनी कठोर साधना के  बल पर  भगवान को प्रसन्न कर लिया। राजा विशाल की तपस्या और तितिक्षा से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें वरदान दिया कि भविष्य मे इस तीर्थ को 'बदरीविशाल' के नाम से भी पुकारा जाएगा। श्रीबदरीनाथ कोई सामान्य तीर्थ नहीं है। यह धरती का एकमात्र भू वैकुण्ठ है। हिन्दुओं के साथ-साथ बौद्धों के लिए भी बदरीनाथ पूजनीय व महनीय हैं। बदरीनाथ गंधर्वराज चित्ररथ का क्षेत्र है...देवताओं के धनपति कुबेर की नगरी है...सतोपंथ तक जाने की आखिरी सीढ़ी है..तिब्बत से लगी भारतीय सीमा का प्रहरी है...गंधमादन पर्वत की तलहटी में स्थित होने के कारण दिव्य जड़ी-बूटियों का भण्डार है...सिद्धों, संतो, रहस्यदर्शियों और तत्वदर्शियों की तपोभूमि है...नाग, सिद्ध, यक्ष, गंधर्व और किन्नरों का क्रीड़ाँगन हैं...देवर्षि नारद का चिर निवास है...महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित 18 पुराणों की रचना स्थली है...भीम के पराक्रम का साक्षी है...पाण्डु पुत्रों के शौर्यपूर्ण साहसिक स्वर्गारोहण का पथ है...महावतार बाबा जैसे क्रियायोगी संत का शाश्वत निवास है...मैं प्रायः कल्पना मात्र से रोमांचित हो उठता हूँ कि देवताओं के लिए आरक्षित शीतकाल में जब कल-कल करती अलकनन्दा (जिसका मूल नाम अलखनन्दा है),दमकते नीलकंठ शिखर, झर-झर झरते वसुधारा प्रपात के दिव्य नाद और महकते बुग्यालों की        सुगन्धित बयार के बीच सम्पूर्ण बदरी क्षेत्र में जब यक्षों, किन्नरों और गंधर्वों के साथ देव कन्याओं का सम्मोहनकारी नृत्य होता होगा तो देवताओं को तक धरती के इस ऐश्वर्य पर ईष्र्या होने लगती होगी। कदाचित् इन्हीं सब विशेषताओ को देखकर पुराणों में कहा गया है कि 'बदरी सदृशं तीर्थो न भूतो न भविष्यत्'ि यानी बदरीनाथ जैसा तीर्थ न तो हुआ है न ही कभी होगा। बदरीनाथ रहस्यों की भूमि है...हिमालयी साधकों और यायावरों का यह एक सामान्य अनुभव रहा है कि बद्रीनाथ में उन्हें पलभर में उन्हें कोई दिव्य दृश्य दिखने लगता है और अगले ही पल वह दृश्य ऐसे गायब हो जाता है मानों कुछ हुुआ ही न हो, इतना ही नहीं, इस नारायण लोक में अकेले विचरने वाले तीर्थ यात्रियों के अचानक गायब होने या विक्षिप्त होने की घटनाएं प्रायः घटित होती रहती है। इस प्रकार सब कुछ सामान्य दिखता हुआ भी बदरीनाथ में कुछ भी सामान्य नहीं है क्योंकि यहाँ सामान्य असामान्य लगता है और 'असामान्य' सामान्य बनकर विचरता है इसलिए इस लोक मंे आने के लिए गीता की भाषा वाला अभ्यास भी जरूरी है और पूर्वाभ्यास भी। एक विशेष रोचक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भगवान बदरीनारायण की आरती नन्द प्रयाग निवासी एक मुसलमान श्री बदरूदीन अहमद द्वारा लिखी गई है। आरती को लिखते समय भक्त बदरूदीन किस हद तक नारायण मय हो गए होंगे, यह अनुमान हम उनकी इस अनूठी रचना को सुनकर ही लगा सकते हैं- 
 पवन मंद सुगन्ध शीतल हेम मन्दिर शोभितम् 
 निकट गंगा बहत निर्मल श्रीबदरीनाथ विश्वम्भरम् 
 शेष सुमिरन करत निशिदिन धरत ध्यान महेश्वरम् 
 वेद ब्रहमा करत श्रुति श्रीबदरीनाथ विश्वम्भरम्
 शक्ति गौरी गणेश शारद नारद मुनि उच्चारणम् 
 योग ध्यान अपार लीला श्रीबदरीनाथ विश्वम्भरम्...
सुबह शाम बदरिकाश्रम में जब यह आरती गूँजती है तो मानो सम्पूर्ण प्रकृति महोत्सव रचाने लगती है...उस समय सम्पूर्ण बदरी क्षेत्र नारायणमय हो जाता है... जीवन आनन्द पूर्ण और रसमय हो थिरकने लगता है... भागवत के तार भगवान से जुड़ जाते है और जीवन मे ध्यान की ऊर्जा उतरने लगती है...ज्ञान की सरिता संवरने लगती है...आत्मा की गहरी आंतरिक अनुभूतियों में गूंजित इस जीवन उल्लास का नित्य पान ही बदरीकाश्रम का वैभव है। वे धन्य हैं जिनके जीवन में इस आंतरिक बसन्त के द्वार खुलते हैं...जिनके किसलय में परम के सपने सजते हैं...जिनकी आँखों से ध्यान के आँसू झरते हैं। महायोगी श्रीअरविन्द लिखते हैं 'जो भगवान का चुनाव करते हैं उन्हें भगवान पहले ही चुन लेते हैं'। 
भगवान श्रीहरिविष्णु का एक नाम 'दुरावास' (जीवन में बड़ी कठिनाई से वास करने वाला) है और बदरीक्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है। बदरीनाथ आकर बड़े-बड़ों की आध्यत्मिक निष्ठाएं डगमगाने लगती है। इस पूरे नारायण लोक में भगवान नारायण की 'बहिरंगा योगमाया शक्ति' अपने प्रचंडतम रूप में कार्यरत् है जिस कारण शायद ही कोई यहाँ स्थिरमति रह पाता है। इस माया के प्रभाव से व्यक्ति को काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार जैसे शत्रुओं का आकर्षण अपनी ओर खीचनें लगता है और शंकर का उपासक कंकर समेटने में अपना बल विक्रम खोने लगता है। योगमाया रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श के अनगिनत प्रलोभनों के द्वार खोलकर साधक को नारायणकृपा से दूर करने की पूरी कोशिश करती है...'योगी' यहाँ भोगी बन जाता है और विरक्त आसक्त होने लगता हैं। 'मम माया दुरत्यया' (मेरी माया को जीतना अत्यन्त दुष्कर है)-गीता के इस भागवत वचन की व्यावहारिक प्रभावपूर्णता देखनी हो तो व्यक्ति को बदरिकाश्रम की यात्रा करनी चाहिए। जब कभी योग पथ पर बड़ा महात्मा, ध्यानी, ज्ञानी और सिद्ध बनने का भ्रम होने लगे तो व्यक्ति को सत्य की परख के लिए तत्काल श्रीहरिविष्णु के धाम बदरीनाथ आना चाहिए। माया के इन प्रलोभनांे से बदरीनाथ में वही बच पाता है जिसे 'वह' बचाता है और 'वह' केवल उसी को बचाता है जिसकी आसाक्ति और आसरा दोनों भगवान हों... जिसका मन निर्मल हो...जिसकी चेतना में सहजता रूपी सौन्दर्य के फूल खिलते हों...जो शिकायतशून्य हो...जो अखण्ड एकरस आनन्द से केवल उसका गीत गाता हो- ऐसे भागवत की मान सम्मान की रक्षा भगवान स्वयं अपना मान सम्मान की तरह करते हैं-
 तेषामेवानुकम्पार्थमहजज्ञानजं तमः। 
 नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वताः।।                                      (गीता/10/11)
अर्थात् जिन्होंने मेरे आत्मस्वरूप के अस्तित्व को ही अपने जीवन का आधार बना लिया है और मेेरे सिवाय सब कुछ जिन्होनें असार मान लिया है, हे अर्जुन! उन महान भागवतों के लिए मैं नित्य कपूर की मसाल जलाकर और उनके लिए स्वयं ही मसाल दिखाने वाला मसालची बनकर उनके आगे-आगे चलता हूँ। श्रीबदरीनाथ में योगमाया का अपने प्रचण्ड स्वरूप में कार्यरत् होना इस दिव्य लोक में भगवान श्रीहरिविष्णु की साक्षात उपस्थिति का जीवन्त प्रमाण है इसलिए साधकों को माया के इस चक्रव्यूह को असामान्य और अस्वाभाविक नहीं समझना चाहिए और श्रीहरि के प्रति एकनिष्ठ 'अव्याभिचारिणी' भक्ति के माध्यम से उनका कृपा प्रसाद प्राप्त करना चाहिए। 
समय के साथ-साथ तीर्थस्थलों का समाज भी बदल रहा है। एक सहृदय तीर्थयात्री देवभूमि उत्तराखण्ड के लोक जीवन में उपजे भौतिकतावाद के आकर्षण को देखकर आहत महसूस कर सकता है। बढती आर्थिक समृद्धि और आधुनिक जीवन मूल्यों के प्रभाव के कारण उत्तराखण्ड में स्थित देवालयों के निवासियों की निष्कपटता और सेवा भाव मे बड़ी कमी आयी है। उपभोक्तावाद का दानव उनकी सामाजिक चेतना को तेजी से कलुषित कर रहा है। यही कारण है कि जिनके पूर्वजों की परम्परा तीर्थयात्रा पथों और धर्मस्थलों पर प्याऊँ लगाने की रही है, वे पहाड़ी लोग आज दुगने दामों पर पानी की बोतलें बिकाकर अपयश कमा रहे हैं। तीर्थ स्थलो का यह अंध व्यवसायीकरण उत्तरा खण्ड की देव परम्पराओं के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। धर्म राष्ट्ररूपी वटवृक्ष का प्राण है और आज इस देश को धर्म की जितनी आवश्यकता है उतनी शायद भूतकाल के किसी भी कालखण्ड में नहीं रही है। ज्ञान, ध्यान, आध्यात्म और योग की चिरन्तन परम्परा का भारत आज गहरी प्रसव पीड़ा से गुजर रहा है। घरों, सड़कों और दफ्तरों में लोग बेहद गुस्से में हैं। हमारी मातृ शक्ति आहत है और छात्र शक्ति दिग्भ्रमित। हमारे चारों और एक वैचारिक और सांस्कृतिक मुर्दिनी सी छाई हुई है। राजनीतिक प्रतिष्ठानों और संवैधानिक संस्थाओं की साख मिट्टी में मिल चुकी है...राष्ट्र का जनमानस हर हाल में परिवर्तन चाहता है। यही कारण है कि देश के किसी कोने में जब अन्ना हजारे, बाबा रामदेव या अरविन्द केजरीवाल 'परिवर्तन का रथ' चलाते हैं तो लोग उनकी जय-जयकार करने लगते हैं। किन्तु इन रथों से कोई महारथी नहीं जन्मता  अलबता स्वार्थ की बू आने लगती है। इनका रथ विश्वास नहीं जगाता क्योंकि न तो यह पार्थसारथि का रथ है और न ही जगन्नाथ का। 
उठो बदरीनाथ! तुम्हारे सिवा कौन है जो समाज का मुक्तिदाता बन सके...तुम्हारे सिवा कौन है जो हमारे युवाओ के बुझे हुए चेहरे में फाल्गुनी उल्लास भर सके...युगों पहले तुमने श्रीकृष्ण बनकर कुरूक्षेत्र के मैदान में एक वादा किया था कि जब-जब अधर्म का दानव अट्ठाहस करेगा और धर्म का सेतु डोलने लगेगा तब-तब तुम हमारे जीवन की डोर थामने हमारे बीच आओगे और अधर्म के अन्धेरों का शमन करके धर्म को राष्ट्रीय चेतना में फिर से स्थापित करोगे। तुम्हारे आगमन की वह निर्णायक घड़ी लगभग आ गई है, क्या तुम्हे अपना वादा याद है?