बंजर होते केदार- खेत



जब भी प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रा की कृषि की बात होती है, तो उसे अनार्थिक कहकर उपेक्षित छोड़ दिया जाता है। वस्तुतः पहाड़ी खेती सदैव अनार्थिक नहीं रही है। गढ़वाल और कुमाऊं ब्रिटिश राज से पूर्व खाद्यान्न उत्पादन में पूर्णतः आत्मनिर्भर थे। सामान्यतः स्थानीय आवश्यकताओं के लिए यहाँ पर्याप्त अन्न उत्पादन होता रहा है। व्यापारिक पफसलों का सदा से ही पहाड़ों से मैदानी क्षेत्रों को निर्यात होता रहा है। यहाँ के निवासी खरीपफ उत्पादन का स्वयं उपभोग कर रवी पफसलों के उत्पादन का विक्रय कर सरकारी करों का भुगतान तथा अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। अल्मोड़ा तथा गढ़वाल गजेटियर-1910 के अनुसार 1867 ईú के दुर्भिक्ष के समय प्रत्येक गाँव के पास अपना पर्याप्त अन्न सुरक्षित था। किसी प्रकार के अन्नाभाव न होने के कारण न तो उसके चोरी होने का भय था न ही उसके बाजार में बिक्री की सुविधायें उपलब्ध थीं। इसलिए क्षेत्रा में दुर्भिक्ष के समय भी खाद्यान्न की कीमतों का स्तर कम व स्थिर था। कुमाऊं व गढ़वाल की स्थिति के सम्बन्ध में 1874 ईú में कुमाऊं कमिश्नर सर रामसे लिखते हैं,-- द कुमाऊंनीज़ आर बेटर ऑफ़ देन पिजेंटरी इन होल ऑफ़ इंडिया--- अल्मोड़ा गजेटियर-1911 में एक स्थान पर उल्लेख किया गया है कि-- द जमींदार ऑफ़ कुमाऊं वर प्रॉबब्ली द मोस्ट प्रोस्पेरेस रूरल  इंडिया ---अल्मोड़ा गजेटियर 1911 में उल्लेख मिलता है कि ब्रिटिश गढ़वाल खेती पर निर्भर अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ-साथ प्रतिवर्ष तीर्थाटन के लिए इस क्षेत्रा में आने वाले लगभग 50-60 हजार लोगों की खाद्यान्न की आवश्यकता को पूर्ण करता है। यहाँ का किसान मैदानी क्षेत्रा के किसानों की भांति खेती के लिए )ण पर आश्रित नहीं रहा बल्कि अपना खेती की जरूरत के लिए उसके पास अपनी बीज और पशु उपलब्ध रहते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रिटिश काल से पूर्व पहाड़ी कृषक आत्मनिर्भर था। यह अवश्य था कि पहाड़ी खेती हमेशा से श्रमसाध्य रही है।
आज खेती के अनार्थिक हो जाने का सबसे बड़ा कारण रहा है उसका छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जाना। उत्तरांचल सरकार के अर्थ एवं सांख्यिकी निदेशालय द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार सम्पूर्ण उत्तरांचल जिसमें उसका मैदानी क्षेत्रा भी सम्मिलित है, में 6.64 हजार जोतें एक हेक्टेयर से भी कम आकार की हैं। एक से दो हेक्टेयर की जोतों की संख्या 1.53 हजार ही है जबकि दो हेक्टेयर से अधिक आकार की जोतों की संख्या मात्रा 1.10 हजार है। उत्तरांचल में औसत जोत 0.93 हेक्टेयर है, जबकि राष्ट्रीय औसत 1.50 हेक्टेयर है। इसका ही परिणाम है कि एक औसत परिवार के लिए पर्याप्त खेती उपलब्ध न होने के कारण यहाँ के लोग दूसरे व्यवसायों में स्थानान्तरित हो गये हैं और उनके हिस्सों की जमीन या तो उपभोग में नहीं लाई जा रही है अथवा दूसरे कास्तकारों द्वारा उपभोग में लाई जा रही है, जिसके कारण इस भूमि में सुधार व उपचार की ओर ध्यान नहीं दिया गया है। जिसका सीधा असर खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है। सम्पूर्ण उत्तरांचल जिसमें तराई व भावर का क्षेत्रा भी सम्मिलित है, में वार्षिक खाद्यान्न उत्पादन लगभग 15 से 17 लाख टन तक ही सीमित है जो अखिल भारतीय खाद्यान्न उत्पादन का मात्रा एक प्रतिशत है जबकि उत्तरांचल की जनसंख्या देश की जनसंख्या का लगभग 10 प्रतिशत है। इससे स्पष्ट है कि उत्तरांचल खाद्यान्न उत्पादन के मामले में किस स्तर पर खड़ा है। कृषि के प्रति सरकार तथा यहाँ के लोगों का उपेक्षित भाव ही इसके मूल में है। पुरानी पीढ़ी के लिए उसके खेत व खलिहान उसके मन्दिर थे, उसकी उपासना की स्थली थे। वह रात-दिन उसमें अपना पसीना बहाता था। अप्रैल से अक्टूबर तक अपने पालतू पशुओं को लेकर अपने खतों में रात को गोठ लगाता था, जिससे पशुओं के मूत्रा व गोबर से खतों की उर्वरा शक्ति बनी रहती थी। जाड़ों में पफसल कटने के बाद खेतोें के उजडे़ हुये भीड़-पगार ;दीवालोंद्ध को ठीक करता था। किन्तु अब कहीं भी गोठ लगाने की परम्परा देखने को नहीं मिलेगी। जिसके कारण खेतों की उर्वरता नष्ट हो गई है। रही सही कसर लैन्टाना झाड़ियों ने पूरी कर दी है। अब गाँवों की तमाम कृषि भूमि को लैन्टाना झाड़ियों ने अपने आगोश में ले लिया है। खेत ही नहीं पुराने पैदल मार्ग भी अब लैन्टाना झाड़ियों के कारण दिखायी नहीं देते हैं। इन झाड़ियों के नीचे जंगली सुअरों ने अपना आश्रय बना लिया है। गाँव के नजदीक जहाँ खेती करना सम्भव रह गया है, वहाँ पर पफसल तैयार होते ही सुअर तथा अन्य जंगली जानवर तैयार पफसलों को नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार किसान का खाद, बीज व सारी मेहनत व्यर्थ चली जाती है। मैंने स्वयं देखा है अपनी पफसल को जंगली जानवरों से बचाने के लिए किस तरह लोग रात के घुप्प अंधेरे में भी अपने खेतों में छोटे-छोटे मचान बनाकर रात्रि जागरण कर रहे थे। उन परिवारों की तो और भी दयनीय स्थिति देखी जा सकती है, जिनके घरों में पुरुष उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे परिवार की महिलायें बेचारी रात को अपने बच्चो को घरों में अकेला सुला कर खेतों में चली जाती हैं। ऊपर से मानव भक्षी बाघों का कदम-कदम पर भय। बस थोड़े से अनाज के लिए अपनी जान को हथेली में लेकर चलना ही इनकी नियति है। इनकी व्यथा कथा जहाँ द्रवित करने वाली है, वहीं उनकी जिजीविषा के लिए नतमस्तक हुए बिना नहीं रहा जा सकता। ये महिलायें भी कभी उस महिला समूह की हिस्सा रही होंगी जिन्होंने हाथों में दरांती लेकर 'आज दो अभी दो' के नारे के साथ उत्तराखण्ड राज्य की मांग की होगी। क्या अलग राज्य मिल जाने पर इनके जीवन में जरा भी कोई बदलाव आया है? गाँवों में वे लम्बे-चैडे़ खेत जो कभी पफसलों से लहलहाया करते थे आज लैन्टाना की झाड़ियों से बंजर पडे़ हैं। गाँव में आधे से ज्यादा घरों में ताले लटके पडे़ हैं, अथवा टूटने के कगार पर हैं।
आज जहाँ सारा विकास उत्तरांचल के मैदानी भागों तक सिमट कर रह गया है। राजधानी देहरादून के कायाकल्प के लिए राजकोष का बड़ा हिस्सा व्यय किया जा रहा है वहाँ पहाड़ी गाँवों में जीने के लिए एक-एक सांस की कीमत चुकानी पड़ रही है। स्वतन्त्राता प्राप्ति के आसपास जन्मी हमारी पीढ़ी के लोग इस मायने में भाग्यशाली रहे हैं कि वे थोडे़ से प्रयासों से सरकारी नौकरियां हथियाने में कामयाब रहे हैं लेकिन इस पीढ़ी का यह दुर्भाय भी रहा है कि इस पीढ़ी के लोग अपनी जमीन से उखड़ कर जहाँ गये वहीं बस गये और अपनी बेरोजगार घूम रही पीढ़ी को विरासत में थमाने के लिए शेष रह गये हैं उजडे़ हुए खेत, टूटे हुए मकान, पराई भाषा और संस्कृति। भाषा और संस्कृति की चिन्ता जरूरी है लेकिन इससे पहले हमें अपनी जमीन की चिन्ता करनी आवश्यक हैं। यदि खडे़ होने के लिए जमीन ही नहीं रहेगी तो भाषा और संस्कृति का आधार भी नष्ट हो जायेगा।
अतः दूर भागती सरकारी नौकरियों के इस युग में अपनी भावी पीढ़ी को विरासत में थमाने के लिए हमें पिफर से अपने पूर्वजों की मेहनत से तैयार खेतों की सुध लेनी आवश्यक हो गई है। ु