सर्वथा भिन्न भौगोलिक बनावट के कारण हिमालयी क्षेत्र का अनादि काल से सामाजिक और राजनैतिक रूप से पृथक अस्तित्व रहा है। पुराणों में इस क्षेत्र को पाँच खण्डों के भिन्न नामों से उल्लिखित किया गया हैः
खण्डा पंच हिमालयस्थ कविता नेपाल कूर्माचलों।
केदारोय, जलधरोय रूचिरः कश्मीर संज्ञोन्ति।।
इस उल्लेख में व्यक्त प्रथम खण्ड नैपाल में भी इसी नाम के पृथक राज्य के रूप में विद्यमान है। कूर्मांचल और केदारखण्ड नाम के दो खण्ड अब एक राजनीतिक इकाई उत्तराखण्ड नाम से तथा तब का जलन्धर नाम का भाग हिमांचल प्रदेश के रूप में जाना जाता है। पश्चिमी हिमालय का क्षेत्र जम्मू-कश्मीर के रूप में प्रसिद्ध है। लगभग एक सी भौगोलिक बनावट के कारण इन सभी प्रदेशों की भाषा-बोली भी लगभग समान है जो कि इंडो आर्यन भाषायी वर्ग के अन्तर्गत आती है। प्रसिद्ध भाषा-विद ग्रियर्सन ने इन सबका पहाड़ी भाषा कहकर वर्गीकृत किया। हिमालय के ये सभी क्षेत्र स्वर्ग-भूमि, देवभूमि या पुण्य भूमि के रूप में प्रसिद्ध है। डा0 शिवानन्द नौटियाल के शब्दों में -''हिमालय की मखमली गोद में बसे इस प्रकृति के अनोखे भूभाग में कला ही कला है.... इस प्रदेश के एक भाग से दूसरे भाग तक के गीत, नृत्य एवं कला एक जैसी है... गोरखनाथ और सन्त परम्परा के साथ शैव एवं वैष्णव प्रभाव भी समस्त पर्वतीय प्रदेश पर हैं।
देश की वर्तमान प्रजातंत्रीय शासन-व्यवस्था में जहाँ एक ओर धर्म, जाति, लिंग-भेद आदि सत्ता-सुख के आदान बन गये हैं वहीं बोली-भाषा भी राजनैतिक स्वार्थ-साधन की वाहन बन चुकी है। इस जमीनी हकीकत को समझते हुये अब सभी क्षेत्रों के लोग अपनी भाषा के विकास के महत्व को लेकर काफी गम्भीर और सचेष्ट हैं। इस धारणा के वशीभूत हिमालयी क्षेत्र के लोग भी अपनी बोली-भाषा को राजकीय मान्यता दिलाने के लिये प्रयत्नशील हैं।
बोली को भाषा के रूप में स्वीकार्यता के लिये उसकी सर्वमान्य व्याकरणिक व लिखित शैली का होना परमावश्यक है जिसमें वाक्य-रचना एवं शब्दों के रूपों में स्वच्छन्दता न हो, अन्यथा जैसे कि कहावत है ''पाँच कोस पर बदले पाणी, बीस कोस पर वाणी'' का सच, इसे भाषा बनाने में अवरोध उत्पन्न करता है। इन प्रदेशों के बुद्धिजीवी मनीषी और साहित्यकार सभी अपनी भाषा-बोली के विकास के लिये अनवरत् रूप से प्रयत्न कर रहे हैं। विविध विधाओं में बड़ी मात्रा में साहित्य-सृजन करके मानकीकरण के लिये प्रयास हो रहा है। फिर भी अभी वाँछित सफलता नहीं मिल पा रही है। इस हिमालयी क्षेत्र की पहाड़ सी विराट समस्या के रूप-स्वरूप को समझने के लिये डा0 शिवानन्द नौटियाल द्वारा संकलित लोकगीतों की कुछ पंक्तियों को उद्धृत करना उचित लगता हैः
गढ़वाली गीत -''मीम बोल मेरी छैला! किलै छैं उदास।/ठंडो माठु कैक जौंला,लाखुड़ ल्यौला घास।।
कुमायुंनी गीत - ''बेडु पाको बारामासा, नरैण काफल पाको चैत, /युग-युग दिन रेना, नेरणा पूजा मेरी मैत...मेरी छैला।
हिमांचली गीत -''तेरे कुरते के लगे फड़के, दुनियां बतेरी सुन्दरा/मेरी नजरों में तूई खड़के/मुझे क्या मिलादा प्यार करके/पैली पैली तू रोज मिलदी अब मिलदी करार करके।।
जौनसारी - ''ओ होटलों फांडे जानकी मेली पातली/वाणी सीर ले होटलांे फांडे/ओ सीर लगी, सिरत जानकिए लागी पुटुड़िया पीड़ले सीर लागी।
उपरोक्त चन्द पंक्तियों से स्पष्ट है कि हिमालयी क्षेत्र की भाषा बोलियां किंचित भिन्न होती हुई भी आमतौर पर समान हैं। उन सभी में हिन्दी के शब्दों का प्रयोग तथा उसकी ओर झुकाव, शब्दों का उकार या आकार बहुला होना, अनेक शब्दों का समान अर्थ में प्रयोग, उर्दू या फारसी शब्दों का प्रभाव, गीतों की लय या ढौल-सब में लगभग समानता है लेकिन इन बोलियों के गीतों में विस्तार से जाने पर मानकीकरण का सभी में अभाव अवश्य खटकता है।
किसी भी भाषा के विकास व मानकीकरण के लिये निम्न आधारभूत स्थितियाँ आवश्यक होती हैः 1.भाषा को राज्याश्रय प्राप्त हो। 2.वह जीविकोपार्जन में सहायक हो। 3.उसका प्रभाव-क्षेत्र पर्याप्त विस्तृत हो। 4.उसका शब्दस्रोत पर्याप्त विशाल व विकसित हो। 5.वह वैज्ञानिक व प्रौद्योगिक प्रजाति के साथ कदम मिलाकर चलने में समर्थ हो अथवा अन्य भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करने या पचाने में समर्थ हो।
हिमालयी क्षेत्र की अधिकांश बोलियों का उद्गम इन्दो आर्यन वर्ग होने के कारण अपभ्रंश पाली और संस्कृत जैसी प्राचीन सम्पन्न भाषायें है। गढ़वाली बोली का क्षेत्र हिमालयी राज्यों के मध्य में होने के कारण सभी से कुछ न कुछ प्रभावित है। अतः इन सभी बोलियों के मानकीकरण के प्रश्न को गढ़वाली को केन्द्र में रखकर समझना उचित होगा।
गढ़वाली-भाषा के विकास के उद्देश्य से अनेक उत्साही शोधार्थियों एवं विद्वानों ने समय-समय पर इस समस्या पर चिन्तन एवं मंथन किया है। उनके द्वारा इस भाषा के उद्गम, विकास, वर्तमान स्थिति और भविष्य की रूप रेखा पर शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत किये गये और निरन्तर साहित्य की सभी विधाओं पर रचनाओं के द्वारा इसके भण्डार को बढ़ाने का प्रयत्न किया गया। विकास के पिछले लगभग दो सौ वर्षांे से शनैः शनैः गढ़वाली के लिखित साहित्य की जो अभिवृद्धि हुई है उसका पूरा ब्यौरा देना तो यहाँ सम्भव नहीं है फिर भी पर्याप्त साहित्य सृजन के पश्चात भी यदि यह पूछा जाय कि गढ़वाली भाषा के मानकीकरण की क्या स्थिति है तो प्रत्युत्तर में इस भाषा के उन्नयन के लिये निरन्तर कार्य कर रहे विद्वान मोहनलाल बाबुलकर को उद्धृत करना उचित होगाः-
''...आज तो लोग जिस इलाके के हैं वे उसी इलाकाई बोली में साहित्य रच रहे हैं। इस प्रवृत्ति के कारण आज गढ़वाली में जोे साहित्य रचा जा रहा है उसमें विखराव है, भाषागत मानक एकता नहीं है... इस विखराव से गढ़वाली भाषा का वास्तविक साहित्यिक रूप पाठकों के सामने नहीं आ पाया है...जिस तेजी से गढ़वाली में लिखने का कार्य हो रहा है, इस गति को देखते हुए अब बहुत दिन तक गढ़वाली के मानक स्वरूप के बारे में मौन नहीं रहा जा सकता।''
गढ़वाली भाषा का मानकीकरण का कार्य दो स्तरों पर किया जाना है- पहले क्षेत्रीय बोलियों के स्तर पर, यथा-नागपुरी बधाणी, राठी, सत्ताणी और श्रनगरी। टिहरियाली आदि में से किसी एक क्षेत्र विशेष की बोली को चुनना होगा। दूसरा, शब्दों के स्तर पर भी उपयुक्त शब्दों को प्राथमिकता देनी होगी। क्षेत्रीय बोलियों के स्तर पर अब अधिकांश विद्वान श्रीनगरी, टिहरियाली को मानक भाषा के रूप में गढ़ने के पक्ष में होते दिख रहे हैं और इस सम्बन्ध में मतैक्य बनता आ रहा है, दूसरा, शब्दों के स्तर पर उचित शब्दों का चयन और उनका व्याकरण सम्मत रूप निखारना अवश्य चुनौतीपूर्ण कार्य है।
यदि हम श्रीनगरी बोली को मानक गढ़वाली भाषा के लिये चयन कर भी लेते हैं तो भी शब्दों के चयन में अन्य दूसरी बोलियों को सर्वथा उपेक्षा नहीं कर सकते। सभी बोलियों के अच्छे व प्रभावी शब्दों के संयोजन से ही अच्छी साहित्यिक गढ़वाली भाषा उभर कर सामने आयेगी जिसका शब्द भण्डार स्वाभाविक रूप से विशाल भी होगा। इसके अतिरिक्त इस समबन्ध में सबसे बड़ी और व्यावहारिक समस्या पूर्वाग्रह की है। गढ़वाली भाषा के सक्रिय विद्वानों मंें स्वयं भी अपने क्षेत्र के प्रति अथवा वहाँ की भाषा/शब्दों के प्रति संस्कारगत पूर्वाग्रह नजर आता है जिससे उबरना कठिन समस्या है। वैसे अनुभव किया जा रहा है कि जैसे अपने क्षेत्र विशेष की बोली के लिये पूर्वाग्रह क्षीण होकर धीरे-धीरे श्रीनगरी बोली पर आकर मतैक्य बन रहा है, उसी प्रकार शब्द विशेष के प्रति भी दुराग्रह कम होगा। जैसे टिहरी क्षेत्र की बोली में किया पद-थै, थौ और थना के स्थान पर अधिकांश प्रकाशित हो रहे साहित्य में छ छौ छन क्रिया पदों का प्रयोग अधिकतर देखने में आ रहा है। क्षेत्रीय पूर्वाग्रह छोड़ने की यह प्रवृत्ति गढ़वाली के मानकीकरण के लिये शुभ संकेत है।
यदि इस भाषा के रचनाकार अपनी रचनाओं में शब्दों को अर्थवत्ता, लालित्य, श्रुति, मधुरता व सरलता को अपनाते हुये भ्रमपूर्ण अर्थवाले क्लिष्ट शब्दों को छोड़ सकंें तो मानकीकरण की गति तीव्र हो सकती है। यहां पर स्पष्ट करना अनुचूति न होगा कि छ,छन छौ क्रिया पदों में प्रयुक्त छ ध्वनि चूड़ियों की मोहक छन-छनाहट और पायलों की छम-छम में मधुरता भरने का कार्य करती है। दूसरी ओर अन्य शब्द थै, थौ, थमो, आदि संगीत के बजाय नृत्य के पदचापों की धमक को ध्वनित करते हैं। इस आधार पर कर्ण-प्रियता शब्दों के चयन का आधार हो सकता है। केवल गढ़वाली की क्षेत्रीय बोलियों में ही नई बल्कि अन्य पर्वतीय बोलियों में भी क्रियापद के रूप मूें छ, छन आदि ध्वनियों शब्दों का प्रयोग सर्वविदित है।
मानकीकरण के निमित्त हमारा सर्वप्रथम ध्यान ''गढ़वाल अथवा गढ़वाली'' शब्द पर जाना चाहिये जिसके पिछले तीन अक्षरों ढ़, वा, ल को अनेक रूपों में लिखा जा रहा है। यथा ढ़, ढ़/ व, वा। लि, ली/ ळि, ळी/ लि, ली। आदि इस प्रकार गढ़वाली शब्द अनेक प्रकार से बोला और लिखा जा रहा है क्या सबसे पहले हम इसी प्रारम्भिक या मूल शब्द का ही मानकीकरण न करें?।
हिमालयी बोलियों को साहित्यक रूप में विकसित करने के सन्दर्भ में उनके हिन्दीकरण करने अर्थात हिन्दी शब्दों के अधिक प्रयोग पर उंगली उठाई जाती है। गढ़वाली के सम्बन्ध में भी इस बिन्दु पर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वान गढ़वाली बोली में हिन्दी शब्दों के प्रयोग को अपनी बोली के मूलस्वरूप को विकृत करने के रूप में देखते हैं तो दूसरी ओर कुछ अन्य इस बोली को साहित्यिक भाषा के रूप में गढ़ने के लिये हिन्दी शब्दों के प्रयोग को आवश्यक मानते हैं क्योंकि (जैसेे कि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है)-''प्रत्येक प्राचीन जाति का संस्कार उसकी आत्मा, उसके प्राण, उसकी अपनी भाषा में बसते हैं।...उत्तर की एक विलक्षणता यह भी है कि यहाँ भाषायें किसी न किसी क्षेत्र के लोगों की मातृ-भाषाएं हैं। केवल हिन्दी ही ऐसी भाषा है जो सही माने में किसी भी क्षेत्र की मातृभाषा नहीं है। गढ़वाली और हिन्दी का मूल स्रोत एक ही भाषा संस्कृत है। अतः हिन्दी से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, उसके सौजन्य से गढ़वाली का हित ही होगा, अहित नहीं। यूं भी यह सामान्य अनुभव की बात है कि पढ़े-लिखे ही नहीं बल्कि निपट निरक्षर ग्रामीण लोगों में भी हिन्दी बोलने की प्रबल उत्कंठा रहती है। कन्हैयालाल डंडरियाल ने एक व्यंग कविता में इस सच्चाई को यूँ उजागर किया हैः-
भाई जी मैं ख्ुाणेकि, ब्वारी क्या खुजाई है।
कपाली हुंच्याई मेरि, खुपरि थिंचाई है।।
इस व्यंग में हिन्दी के प्रति आग्रह और मोह स्पष्ट झलक रहा है। इस स्वाभाविक प्रवृति के होते हिन्दी का विरोध उचित नहीं प्रतीत होता। यूं भी साहित्यिक गढ़वाली के लिये देश-काल और दीन-दुनियां की प्रगति के साथ चलने के लिये आवश्यक शब्द हम कहीं अन्यत्र से नहीं, हिन्दी से ही ले सकते हैं। यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये कि गढ़वाली बोली में अभी साहित्यिक भाषा के योग्य शब्दों का अभाव है।
गढ़वाली को लक्ष्य करके हिमालयी क्षेत्रों की बोलियों को साहित्यिक स्वरूप देने के विचार से ऊपर जो विचार व्यक्त किये गये हैं, उनमें मानकीकरण का प्रश्न सर्वोच्च प्राथामिकता का है क्योंकि यह प्रक्रिया सबसे कठिन है और इसी में सबसे अधिक समय लगता है। जैसे कि पूर्व में संकेत किया है कि गढ़वाली के साहित्यकार दो सौ वर्षांे के इतिहास में एक शब्द गढ़वाल या गढ़वाली का ही मानकीकरण नहीं कर सके और उसे गढ़वाली, गढ़वलि, गढ़वली, गढ़वळि, गढ़वाळी, गढ़वालि, जैसे अनेकों रूप में बोल और लिख रहे हैं। मानकीकरण की समस्या के निराकरण के निमित्त आदित्य राम दुदपुड़ी व मोहनलाल बाबुलकर, प्रभृति विद्वान गढ़वाल के सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों की ब्लाक स्तर से लेकर जनपद स्तर (अब प्रदेश स्तर पर भी) पर मीटिंगों का आयोजन कर विभिन्न बोलियों के शब्दों का चयन करने का सुझाव दे चुके हैं लेकिन यह सुझाव लोकतान्त्रिक होते हुये भी व्यावहारिक नहीं है, इस कारण इस सम्बन्ध में ऐसा कोई प्रयास हो भी नहीं सका, वास्तव में अब जबकि हमारा पृथक पर्वतीय प्रदेश अस्तित्व में आ चुका है जिसका जन भावनाओं के अनुकूल कार्य करने का उत्तरदायित्व है, उसे आगे आकर यह समझते हुये कि देश की शिक्षानीति में बच्चों की शिक्षा उसकी मातृभाषा में अनिवार्य रूप से होनी चाहिये जैसे कि देश के अन्य प्रदेशों यथा बंगाल में बंगाली, महाराष्ट्र में मराठी, राजस्थान में राजस्थानी, गुजरात मे ंगुजराती और पुजाब में पंजाबी आदि उन प्रदेशों की राज्य-भाषा और प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षा का माध्यम है, उसी प्रकार उत्तराखण्ड के दोनों खण्डों के विद्यालयों में भी शिक्षा का माध्यम बच्चों की मातृभाषा अर्थात गढ़वाली और कुमायुंनी होना चाहिये। यदि वह संवैधानिक उत्तरदायित्व राज्य सरकार पूरा कर सके तो मानकीकरण की समस्या का समाधान स्वतः ही हो जायेगा। क्योंकि पाठ्य पुस्तकें मानक भाषा के अनुसार ही तैयार होती हंै। इस प्रकार इन विलुप्त होती बोलियों को जीवनदान भी मिल जायेगा। शासन-प्रशासन को उसके उत्तरदायित्व का ज्ञान कराने का काम जागरूक जनता का होता है। सरकारें अपने कर्तव्य के प्रति कितनी गम्भीर एवं निष्ठापूर्ण होती है इस बात का अनुमान विगत माह (अगस्त 2009) में केंद्र सरकार द्वारा पारित शिक्षा का अधिकार सम्बन्धी कानून पारित करने में दिखाई गई जल्दबाजी और उसकी शिक्षा-विशेषज्ञों द्वारा व्यक्त आलोचना निराशा और आशंकाओं से स्पष्ट है। अंग्रेजी के दैनिक 'द हिन्दु' (30 अग0 09) में प्रकाशित वी0पी0 निरंजनाध्याय के लेख (फ्लॉस इन द राइट तू एडुकेशन बिल ) को निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैः-कांग्रेस सरकार (तत्कालीन) द्वारा 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति हेतु ऐसी शिक्षा व्यवस्था की अवधारणा की गई थी जिसमें एक निश्चित स्तर तक गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्रदान की जायेगी जो जाति, धर्म, स्थान या लिंग आदि के भेद के बिना देश के सभी छात्रों को उपलब्ध हो। 23 वर्षो के बाद दूसरी कांग्रेस सरकार ने इस स्वप्न को दफना दिया है।..... यह कानून शिक्षा के अधिकार का, संवैधानिक अवधारणा का और इस प्रकार 1968 की शिक्षा नीति (शिक्षा आयोग नीत) जिसे प्रं0 मं0 राजीव गांधी और 1990 में आचार्य राममूर्ति की अगुवाई में परिवार्धित किया गया था- जिसमें सबके लिये शिक्षा की व्यवस्था करने का प्रस्ताव था- को उलट दिया गया है''। हिमालयी क्षत्रों के सन्दर्भ में उक्त कानून में बराबरी के अधिकार के संवैधानिक निर्देश की अवहेलना की गई है। क्योंकि पहाड़ी क्षेत्रों के पिछड़े बच्चों को देश के अन्य बच्चों की भाँति अपनी मातृभाषा में कम से कम प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने की व्यवस्था नहीं है। यह नया अनिवार्य शिक्षा सम्बन्धी कानून वर्तमान स्थिति में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन ला पायेगा इसकी आज्ञा नहीं है। अतः यहाँ के लोगों को अपनी भाषा के विकास के लिये भी संघर्ष करना पड़ेगा।
‘‘भाषा का मानकीकरण’’