चमन लाल प्रद्योत का साहित्य


शिल्पकार, उत्तराखण्ड का शिल्पी समुदाय है। मिथकों व इतिहास से लेकर आज उत्तराखण्ड का जो वर्तमान स्वरूप हमारे सामने है, वो इसी कलात्मक समुदाय का कढ़ा और गढ़ा है। इसे आबाद करने से लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक समृद्धि तक पहुँचाने में इसी समुदाय का अमूल्य और अविस्मरणीय योगदान है। गहन कुहासे में घिरा 'कृति व कर्म' प्रधान इस कलावन्त समुदाय का इतिहास हमें हिमालय के 'किरातों' तक ले जाता है। उत्तराखण्ड के शिल्पकार इन्हीं किरातों के वंशज माने जाते हंै। बहुत सम्भव है इनके 'कर' और 'कृति' के कमाल से ही 'किरात' शब्द उपजा हो। रामायण और महाभारत काल में किरात भूमि से प्रसिद्ध उत्तराखण्ड, की यह आदि जाति मानी जाती है। ईसा पूर्व चैथी सदी में यूनानी राजदूत मैगस्थनीज ने भी क्षेत्र में इस जाति का वर्णन किया है। हिमालय के पहले ऐतिहासिक वंश कत्यूरी राजाओं के दौर में बने बताये जाते, यहाँ के अद्भुत निर्माण कौशल वाले मन्दिर इसी शिल्पी समुदाय की देन हैं। जागेश्वर, बैजनाथ, हिमालय में एक और खजुराहो-द्वाराहाट से लेकर केदारनाथ, बदरीनाथ, बाराहाट, लाखा मण्डल, महासू मन्दिर आदि तमाम स्थापत्य कलायें हमें इन शिल्पियों के अद्भुत शिल्प से साक्षात्कार कराती हैं। सीढ़ीदार खेतों से लेकर खेती के सारे संसाधन, नौले, भव्य देवालय, वेदिकायें, प्रतिमायें, नक्काशियां, ताम्र-लौह शिल्प समेत लोक संगीत, लोक वाद्य और यहाँ की लोक परम्परायें तथा परम्परागत चिकित्सा पद्धतियां, जल एवं पर्यावरण संरक्षण व संवर्द्धन इसी समुदाय की समृद्ध विरासत हैं।
श्री चमन लाल प्रद्योत का शिल्पकार साहित्य हमें इसी शिल्पकार समाज और सही मायने में उत्तराखण्ड के गौरवशाली अतीत के दर्शन कराता है जो पूर्वाग्रहों से परे, एक बड़ी ऐतिहासिक सच्चाई को जानने-समझने की दृष्टि देता है। मौजूदा इतिहास को खंगाले जाने और नये सिरे से लिखे जाने की जरूरत महसूस कराता है। कुल मिलकर अनासक्त भाव से किया गया यह ऐतिहासिक सत्यानुसंधान है, जो आने वाली पीढ़ियों और शोधकर्ताओं के लिए बेहद उपयोगी साबित होगा। श्री प्रद्योत एक संवेदनशील, सरोकारी साहित्यकार होने के साथ-साथ एक चिन्तक और समाज सुधारक भी हैं। शिल्पकार साहित्य उनकी देखी और भोगी संत्रास भरी विकट स्वानुभूतियों का परिपक्व निचोड़ है, जो जाति विशेष से ऊपर उठकर मानवोचित हकों की बात करता है। समतामयी समाज का भाव जगाता है।
उनका चिन्तन बताता है कि शिल्पकार उत्तराखण्ड समाज की थाती हैं, धरोहर हैं। देवभूमि के प्रणेता हैं। उनके बनाये देवालय, मन्दिर समूह और उनकी विलक्षण स्थापत्य कला और शिल्प ने ही 'देवभूमि' नाम को साकार किया है। आज भी चकित करते उनके इन भव्य निर्माणों से हम गौरवान्वित हो रहे हैं, तो वे हमसे अलग कैसे हैं? उनसे हमारा जीवन, हमारा समाज सदियों से चलता आया है, तो वो हमारा हिस्सा क्यों नहीं हैं? जिनसे जुड़कर हम कभी आबाद थे और आज कटते ही पलायन को मजबूर हो गये, तो वो हमारी 'नाभिनाल' के बजाय अस्पृश्य क्यों हैं ? ये सारे सवाल मन को उद्वेलित करते हैं। दकियानूसी से पर्दा हटाकर मानवोचित पहल की ओर ले जाते हैं। उत्तराखण्ड के शिल्पकार, शिल्पकार उन्नति की दिशा, शिल्पकारों को समझने की दृष्टि, शिल्पकार आन्दोलन और ईसाई मिशनरी, शिल्पकार एवं आर्य समाज नाम से श्री प्रद्योत का शिल्पकार साहित्य, समतामयी व सर्वसहिष्णु समाज की दिशा में नया और अन्वेषी काम होने के साथ-साथ आम जन से लेकर नीति-नियन्ताओं की आँखें भी खोलता है। दुर्लभ और शोधपरक दस्तावेजों पर आधारित यह साहित्य हमें नव-समाज के सृजन की ओर ले जाता है। समतामयी समाज की जो अलख एक सदी पहले जयानंद भारतीय, खुशीराम, मुंशी हरिप्रसाद टम्टा सरीखे समाजिक चेतना के संवाहकों ने जगाई थी, उसे व्यवहारिक धरातल पर आगे बढ़ाने का काम श्री चमन लाल प्रद्योत ने किया है। उनका दर्शन है कि समाज के वंचित व उपेक्षितों को आगे बढ़ाना समाज का महत्वपूर्ण दायित्व है। यह बगैर सबके सहयोग और सद्इच्छा के सम्भव नहीं है। लेकिन खुद की कोशिश भी उतनी ही जरूरी है। वह कहते हैं, जो व्यक्ति व समाज अपनी उन्नति के लिए स्वयं तत्पर नहीं रहता, उसे भगवान भी मदद नहीं करते। 'उत्तराखण्ड के शिल्पकार' पुस्तक इसी सरोकार से ओतप्रोत उत्तराखण्ड के उद्यमशील व अन्वेषी शिल्पी समुदाय से हमारा परिचय कराती है। शिल्पकारों के इतिहास और वर्तमान से जुड़े ज्वलंत सवाल उठाती है। उनके जवाब खोजने के साथ-साथ सम-सामायिक सन्दर्भों से जोड़ती है। साथ ही आगे की राह सुझाती है। शिल्पकार संसार की आद्य प्रौद्योगिकी से लेकर वर्तमान शिल्पी दुनिया से साक्षात्कार कराती है। शिल्पी समुदाय के अतीत से लेकर वर्तमान सामाजिक व्यवस्था, उसकी अप्रतिम योगदान और आन्दोलनों का खुलासा करती है। साथ ही समाज से लेकर सरकार तक की रीति-नीतियों से पर्दा हटाती है।
'शिल्पकार उन्नति की दिशा' पुस्तक शिल्पकार समाज की वस्तुस्थिति सामने लाती है। इस समाज के उत्थान व समग्र विकास के निमित्त व्यवस्था का दायित्वबोध कराती है। नई सोच, नई दृष्टि विकसित करती है। इतिहास को नये सिरे से खंगाले जाने और उसे उसकी समग्रता में सामने लाये जाने की जरूरत महसूस कराती है। यह पुस्तक शिल्पकार समुदाय के गौरवशाली अतीत का आईना भी है। यह बताती है कि हमारी बस्तियाँ पूर्व में अर्थव्यवस्था की लिहाज से किस तरह स्वावलम्बी थी। परम्परागत चिकित्सा, जल संसाधन से लेकर सामाजिक व्यवस्था, भूकम्प रोधी निर्माण तकनीक पर्वतीय विषम भौगोलिक   परिस्थितियों में आज भी प्रासंगिक हैं। उनका परम्परागत तकनीकी ज्ञान का समुचित उपयोग अपेक्षित है। इसमंे इस समुदाय की उन्नति ही नहीं पूरे पर्वतीय समाज की उन्नति समाहित है। पर सर्वाधिक जरूरत इस समुदाय को सम्मान और समता का मानवोचित हक दिलाने की है। यह सब समाज, सरकार और खुद शिल्पकार समुदाय के सामूहिक प्रयासों से ही सम्भव है। पुस्तक के आलेखों का लब्बोलुआब भी यही है।
'शिल्पकार आन्दोलन और ईसाई मिशनरी' यह पुस्तक ब्रितानी हुकूमत में शिल्पकार समाज की दयनीय स्थिति और समाज में व्याप्त वर्ग भेद की पराकाष्ठा को भी सामने लाती है। अन्त्यज और अस्पृश्य बना दिया गया यह समाज किस तरह उपेक्षित व उत्पीड़ित होकर अपने धर्म छोड़ने को मजबूर हो गया और ईसाई धर्म अपनाने पर विवश हो गया उसका पूरा खाका खींचती है। साथ ही यह सोचने पर भी विवश करती है कि समाज में व्याप्त दकियानूसी परम्पराओं से निजात पाये बगैर हम उन्हें सम्मानित व समतामयी दर्जा नहीं दे सकते। एक दलित समाज को बराबरी, सम्मान, शिक्षा व रोजगार के सिवा और क्या चाहिए। अंग्रेजों के आते ही जैसे उन्हें अपने दिन फिरने की उम्मीद जग गयी। हालांकि अंग्रेजों की यह पहल भी उनकी मजबूरी भुनाने की ही थी मगर समाज की मुख्यधारा में आने का मौका मिलना ही शिल्पकार समाज के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी इसी ऐतिहासिक अवसर ने इस समाज में चेतना के बीज भी प्रस्फुटित कर दिये जो आगे के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। यह पुस्तक इसी परिपेक्ष्य में कई ऐतिहासिक अनुद्घाटित तथ्य सामने लाती है। 'शिल्पकार एवं आर्य समाज' यह पुस्तक सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में यहाँ व्याप्त धर्मान्धता व असहिष्णुता की तस्वीर सामने लाती है। यह बताती है कि किन हालातों में समाज के उपेक्षित व वंचितों को आर्य समाज की शरण लेनी पड़ी। हकीकत में यह उत्तराखण्ड में आर्य समाज के प्रचार-प्रसार के बजाय बड़ी संख्या में ईसाई हो रहे मजलूमों को रोकने की कवायद थी। क्योंकि सब जानते हैं, आर्य समाज की शुद्धिकरण का मतलब साफ था कि जिन्हें शद्ध कर वे आर्य समाजी बना रहे हैं उन पर वे अशुद्ध होने का ठप्पा भी लगा रहे हैं। लेकिन इस पीड़ित समाज को तो कैसे भी हो इस हेय और अस्पृश्यता से छुटकारा पाना था इसलिए उन्होंने यह जलालत भरा सौदा स्वीकार कर लिया। इस तरह मिशनरियों का प्रभाव रोकने के लिए किस तरह आर्य समाज यहाँ फला-फूला इसका दुर्लभ ब्यौरा इस पुस्तक के रूप में सामने लाया गया है। पुस्तक उस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना को भी उद्घाटित करती है जिसमें आर्य समाजी लाला लाजपत राय यहाँ के शिल्पी समुदाय के विलक्षण शिल्प से प्रभावित होकर न सिर्फ शिल्पकारों को पहली बार जनेऊ धारण करवाते हैं, बल्कि नैनीताल के सुनकिया में आयोजित भव्य कार्यक्रम में 'शिल्पकार' नाम का सम्बोधन भी देते हैं। इस तरह आर्य समाज और शिल्पकार का पूरा ताना-बाना इस पुस्तक में है। इसके अलावा तमाम राष्ट्रीय नेताओं के यहाँ आगमन से लेकर यहाँ के प्रमुख दलित आन्दोलनों का ऐतिहासिक उल्लेख भी है।
'शिल्पकारों को समझने की दृष्टि' यह पुस्तक शिल्पकारों के शिल्प संसार से अवगत कराने के साथ-साथ यह सच्चाई भी सामने लाती है कि इस समुदाय के बिना उत्तराखण्डी समाज सूना और गतिहीन है। यहाँ की सामाजिक, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक समृद्धता इसी शिल्पकार समुदाय की देन है। सदियों से यहाँ की लोक परम्परा को यही समाज संजोये हुए हैं। आज पहली जरूरत उत्तराखण्ड समाज की धुरी रहे इस आदि समाज को समझने की है। यही इस पुस्तक का प्रमुख ध्येय भी है। तमाम पुरा-अभिलेख व लोक व्यवहार के साक्ष्यों से समृद्ध       शोधपरक आलेख यह साबित करते हैं कि शिल्पकार समुदाय पूर्व में न केवल सम्मानजनक जीवन यापन करता रहा है, बल्कि यहां की संस्कृति का ताना-बाना बुनने में भी उसका बेजोड़ योगदान रहा है। कृषि से लेकर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व धार्मिक क्षेत्र में उसकी सक्रिय भूमिका रही है। समाज में ब्राह्मण, पुरोहितों से इस समुदाय का योगदान अधिक आंका जा सकता है। शादी-ब्याह, खेल-मेले समेत तमाम सामाजिक संस्कार उनके बगैर अधूरे हैं। हमारे लोकगीत, लोग परम्पराएं, जागर उन्हीं की बदौलत आज जिन्दा हैं। ढोल सागर इनकी आध्यात्मिक एवं बौद्धिक प्रगति का परिचायक है। यहां की भाषा का एक बड़ा शब्दकोष इसी समुदाय ने जीवित रखा है। उनकी मौलिक सृजन क्षमता ने हिमाद्रि कला शैली को जन्म दिया। लेकिन इतने हुनरमंद और कौशल प्रवीण होने के बावजूद यह समुदाय आज हेय और अस्पृश्य क्यों है? इस पर भी पुस्तक मंथन करती है। इतिहास गवाह है, किसी समाज और राष्ट्र के निर्माण में कोई सत्ता या समय विशेष नहीं, पीढ़ियों की साधना काम आती है और शिल्पकार हमारी पीढ़ियों के साधक हैं और पर्वतीय समाज व पर्वतीय संस्कृति उनकी पीढ़ियों की साधना का प्रसाद।