धर्म हिंसा तथैव च

मुजफ्फरनगर की घटना कोई एक दिन में पैदा नहीं हुई। पिछले चार दशकों से जिस तरह मीडिया का सहारा लेकर देशी-विदेशी शक्तियां बहुसंख्यक समाज को अपमानित, लांक्षित करती रही हैं, उन्हें संयम, अहिंसा के उपदेश पिलाये जाते हैंै, भारतीय मीडिया दशकों से हिन्दु धर्म को लेकर इस तरह कुप्रचार करता रहा हैै। हिन्दुधर्म को किस तरह राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखा जाये, उसी प्रयास में यह धर्मनिरपेक्ष शब्द दशकों से इतना बिलोया गया है कि आम आदमी भी अब धर्म का नाम लेने में सकपकाता है। धर्म को इस विदेश संचालित मीडिया ने गणिका की तरह अपने पैरों की घुंघरू बना दिया है। जरा सा किसी धार्मिक व्यक्ति ने सत्ता के विरूद्ध मुंह खोला कि पूरा मीडिया पैर पटक-पटक कर धाड़ें मारने लगता है। इन पचास वर्षों में विशेषकर हिन्दुधर्म को एक खलनायक की तरह प्रस्तुत कर भांड मीडिया, भारत विरोधी शक्तियों के अंकुरण के लिये क्यारियां बनाने में लगा है। इस षडयंत्र का अनेक स्तरों पर आरोपण किया गया है। भारत की नई पीढ़ी को चर्च प्रायोजित स्कूलों से ही नारे रटा दिये जाते हैं...आस्थाओं की जड़ें हिलाई जाती हैं, मत-पंथ, संत-महंत बकवाद हैं, विज्ञान ही विकसित भारत का एकमात्र धर्म है...इन नारों की सीडी असल में बहुत ही षडयंत्रपूर्ण ढ़ंग से इस नये भारत के मुंह में डाल दी गई है। इस नई पीढ़ी को न अन्तर्जगत के प्रश्न चिन्तित करते हैं और न ही राष्ट्रीय गौरव इनकी प्रथमिकता में है। मैकाले की शिक्षा फैक्टरियों में निर्मित ये कठपुतले, स्विच दबाते ही नारे उगलने शुरू कर देते हैं। चर्च इन्हीं काठ के घोड़ों के पेट में सशस्त्र होकर बैठा है, मौका मिलते ही वह ईसाइयत का बाजार गली-गली लगा देगा। अभी केदार त्रासदी में 'इंडिया एवरी होम क्रूसेड' नामक संस्था की ओर से पीड़ित पर्वतों में चर्च के प्रचार से जुड़ी करीब पचहत्तर पुस्तकों का आवंटन किया जा रहा है...क्या त्रासदी को भुनाने का यह धत्कर्म कसाईयत नहीं है?
उन्नीसवीं सदी से ही ब्रिटिश मीडिया बहुत चालाकी से एक ओर अंग्रेजों की लूट को, धर्म, जाति और अर्थतंत्र के बंटाधार करने के समाचारों को छुपा रहा था और दूसरी ओर अंहिसा की वकालत करने वाली बकरियों को कैमरे के आगे कर रहा था। तिलक ने सबसे पहले इस षडयंत्र के विरूद्ध युवकों का आह्वान करते हुये 'गीता रहस्य' की रचना की। राज्य के संदर्भ में हिंसा-अहिंसा की यह बहस आगे बढ़ती कि तिलक का अवसान हो गया। भारतीय क्षितिज पर उनकी जगह गांधी आये जिनके हाथ में सदा गीता रहती थी पर बात वह बुद्ध की अहिंसा की करने लगे...गांधी जी के जीवन का यही अन्तर्विरोध आज तक भारतीय समाज की कुण्डली में बैठा हुआ है। इसी का परिणाम है कि आज समाज में खुलेआम हत्या, बलात्कार, आतंक का नंगा नाच होता है, हमारे सैनिकों के सिर काटे जाते हैं और पूरा मीडिया    अपराधियों का संरक्षक बन, अहिंसा का प्रसाद बांटने लगता है...यह शान्ति हमारे डीएनए में इस तरह समाहित हो चुकी है कि हमारी एक विधानसभा, आतंकी मदनी को रिहा करने की अपील करती है, हम चुप रहते हैं, संतो और उत्तराखण्ड के निरीह नागरिकों का अपमान करने वाला अपराधी मुलायम सिंह इस देश के प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न देखने लगता है? अभी जो मुजफ्फरनगर में हुआ, वह बहुसंख्यक समाज के आक्रोश को और बढ़ायेगा, रोज की इस गुन्डागर्दी से आम आदमी छटपटा रहा हैै। एक समुदाय खुलेआम संविधान की ऐसी-तैसी करता रहे तो मानवाधिकारी उसके संरक्षक बन जाते हैं और उसके विरूद्ध यदि बहुसंख्यक समाज अपना विरोध प्रकट करे तो भाई लोगों को बुद्ध याद आने लगते हैं। भई वाह! 
यदि गीता अथवा हमारे धर्मग्रन्थों का उपदेश आतंकियों, दुराचारियों के सम्मुख अहिंसक बने रहने का होता तो हमारे प्रत्येक देवता के हाथ में अस्त्र नहीं होता, कृष्ण ने क्यों पूरे कुरूवंश का नाश करवाया? क्यों राम ने दुराचारी राक्षसों को ठोका? क्या इसीलिये तो हमारे शास्त्र, मीडिया की हिटलिस्ट में हैं कि कहीं बहुसंख्यक समाज को अपने डीएनए का स्मरण न हो जाये? आधुनिक भारत में अपने धर्मग्रन्थों की ऐसी-तैसी करके बुद्ध-गांधी की इस अहिंसा रूपी बकरी को लोकजीवन के गले में बांधने वाला कांग्रेसी शासन, भारतीय चिंतकों का भी अपराधी है। महाभारत का वह प्रसिद्ध वाक्य जिसे गांधीजी की प्रेरणा से कांग्रेसियों ने सरकारी नारा बनाया, न केवल षडयंत्र है बल्कि यह सिद्ध करता है कि नेहरू ने किस तरह गोरों का एजेन्ट बनकर हमारे क्रान्तिकारियों के बलिदानों का अपमान किया। गांधी जी का यह नारा था...अहिंसा परमो धर्मः ..कि अहिंसा परम धर्म है। पर इस श्लोक की दूसरी पंक्ति जान बूझकर गोल कर दी गई...वह थी...धर्म हिंसा तथैव च...अर्थात धर्म के लिये की गई हिंसा भी परमधर्म है। परन्तु सावधान! यहां धर्म के लिये की गई हिंसा का अर्थ क्रूसेड या ज़िहाद नहीं है...हिन्दुओं में धर्म के बाह्य प्रतीक सैकड़ों हैं, पूजायें-पुस्तकें लाखों हैं, हिन्दुधर्म कोई एकेश्वरियों का अधिनायकवाद नहीं है...अतः उसमें जिस धर्म की रक्षा उल्लेख है, वह सनातन मानवीय मूल्य हैं जिनका बलात्कार कई सेकुलर नागरिक प्रतिदिन करते हैं और अपने धर्म या फिर विधान की अहिंसा के नारे के पीछे छुप जाते हैं। यदि राज्य के लिये अहिंसा ही परम धर्म है तो फिर शिवा, प्रताप और गुरूओं के खड्ग की निंदा करेंगे आप? सेना से अस्त्र वापिस ले लो...गजब का खेल चल रहा है...गांधी ने भगतसिंह की हिंसा की निंदा की...ठीक...पर जब 'गढ़वाली' ने निहत्थे नागरिकों पर अहिंसा का पक्ष लिया तो गांधी जी ने उसकी भी निंदा की...क्यों? क्या यह अहिंसा से अधिक ब्रिटिश राज की चिन्ता नहीं थी? 
क्षमा करें, यह हिंसा का महिमा मंडन नहीं है। मैं यह नहीं मानता कि आम नागरिक को हिंसा का सहारा लेकर स्वयं विधान बन जाना चाहिये। पर लोकजीवन से जुड़े संगठनों की ओर से यह संकेत सरकार को अवश्य जाना चाहिये कि यदि सत्तायें भेदभाव करके बहुसंख्यक समुदाय को हिंसा का चारा बनाकर अपना राजनीतिक खेल करेंगी तो वह विपत्ति में अपनी आत्मरक्षा के लिये शस्त्र उठाने में गुरेज नहीं करेगा। यदि अहिंसा इस राष्ट्र का नारा है तो देश के कई धार्मिक स्थलों में जमा किये गये हथियार जब्त हों या फिर यह अहिंसा का अखण्ड पाठ बन्द किया जाये। इस अहिंसा ने भारतीय समाज का आजादी के बाद जितना नुकसान किया है, उतना सैकड़ों वर्षों तक चले युद्धों ने भी नहीं किया। इजराइल जैसा देश जो उ0प्र0 के बराबर है, जो चारों ओर से की जा रही हिंसा से त्रस्त है, ने आत्मरक्षा के लिये यदि प्रतिहिंसा का सहारा नहीं लिया होता तो आज मिट चुका होता और उ0प्र0 सरकार तो हिंसक लोगों के साथ खड़ी होकर अहिंसक, उस बहुसंख्यक समाज को ही रेत रही है और जब बहुसंख्यक समाज इसकी प्रतिक्रिया में एक लाठी भी उठाता है तो मीडिया के सियार अपना रूदन शुरू कर देते हैं। गुजरात में इनकी 'हुआ-हुआ' पिछले दस वर्षों से रूकने का नाम नहीं ले रही है। अहिंसा किसी राज्य का धर्म नहीं हो सकता, यह व्यक्तिगत आकांक्षा है।