धर्म का वैज्ञानिक मेला है --कुम्भ


कुंभ की स्नान शृंखला सदियों के भारतीय चिंतन की कथा है। नदियों में शरीर धोने के बहाने मानवीय चेतना के उद्दीपन की तकनीक है यह कुंभपर्व। ऋषियों ने शरीर को कुंभ ही तो कहा है। घटाकाश और विराट ब्रह्माण्ड एक ही है...हमारा शरीर जिस चेतना को घेरे हुये है, वह चेतना उस परमसत्ता की ही ईकाई है। आज का विज्ञान अपनी नई भाषा में इस भारतीय चिंतन का समर्थन कर रहा है। शरीर के अन्दर जो संचार व्यवस्था है, उसकी ईकाई हैं तंत्रिका तंत्र के न्यूरोन्स...ये न्यूरोन्स एक तरह के सूचना स्टेशन हैं जिनमें कि कुछ आवेशित कण होते हैं...जब मस्तिष्क हमारे शरीर को कोई सूचना देना चाहता है तो वह अपने संदेश इन आवेशित कणों द्वारा उस स्थान पर पहुंचा देता है जहां कि खतरा है या किसी ग्रन्थि को कोई हारमोन्स रिलीज करने का आदेश है या कुछ और...पर न्यूरोन्स को यह बोध कौन देता है? क्या ये आवेशित कण स्वतः सूचित होते हैं? आधुनिक वैज्ञानिकों का मत है कि न्यूरोन्स को संचालित करने वाले ये आवेशित कण बाहरी ब्रह्माण्ड में निरन्तर यातायात करते हैं। जब आदमी का जन्म होता है तो तीसरे हफ्ते उसके शरीर की एक कोशिका अचानक धड़कने लगती है...इसी क्षण को चेतना की प्रथम अभिव्यक्ति कहना चाहिये...और जब शरीर छूटता है तो ये आवेशित कण पुनः उसी ब्रह्माण्ड में समा जाते हैं...कभी-कभी जो मनुष्य मृत्यु से वापिस लौटते हैं तो वे किसी ऊँची और प्रकाशवान स्थान की बात करते हैं...वैज्ञानिकों का मत है कि ऐसा उन आवेशित कणों के कारण होता है जो कि मस्तिष्क को छोड़ कर ब्रह्माण्ड में जाते हैं और पुनः वहां की क्षणिक स्मृति के साथ लौटते हैं...क्या यह वक्तव्य हमारे ऋषियों के अनुसंधान से मेल नहीं खाता? क्या आज का विज्ञान हमारी कुंभकथा से भिन्न है? भाषायें अलग हो सकती हैं पर विज्ञान अब उस मोड़ पर पहुंचने ही वाला है जहां उसे भारतीय चिंतन की अति आवश्यकता होगी।
कुंभ कथा जीवन की इस गुत्थी को सुलझाने में विज्ञान की सहायता कर सकती है। सब जानते हैं कि अमर कोई नहीं होता। यदि हमारा जीवन अमर हो जाये तो जन्म का आकर्षण समाप्त हो जायेगा, जीवित रहना ही समस्या बन जायेगा। शरीर की क्षणभंगुरता के कारण ही कुंभकथा का इतना गहरा आकर्षण है। हो सकता है कि सामान्य मनुष्य के लिये इसका अर्थ, लम्बे जीवन की कामना हो पर भारत के प्राचीन वैज्ञानिकों ने उस समय की भाषा में शरीर और विराट सत्ता के बीच के सम्बन्ध को ही इस कथा के माध्यम से कहा है। सामाजिक समागम, और संचार के अतिरिक्त इस प्रतीकात्मकता का गूढ़ आध्यात्मिक अर्थ भी है। शरीर ही अमृत का घट है, पर माया अर्थात दृश्य जगत का आकर्षण इतना प्रबल है कि आदमी मृत्यु को भुलाये चला जाता है...अमृत कथा एक अर्थ में नश्वर जीवन के साथ उस अखिल सत्ता का भी स्मरण है जिससे कि मृत्यु और जीवन का पूरा वर्तुल समझ में आता है...गंगा ही उस निरन्तरता का प्रतीक बन सकती थी, उस परमसत्ता की प्रतिनिधि हो सकती थी, पानी में डुबकी लगाना, क्षणिक रूप में हमे जीवन से अलग करता है...यह मृत्यु का क्षणिक दर्शन है, यह एक क्षण के लिये शरीर से अलग होकर स्वयं को देखने की ऋषि तकनीक है...इसी कारण गंगा की डुबकी वैसा ही आनंद देती है जैसे प्रगाढ़ निंद्रा...यदि नींद बहुत गाढ़ी हो तो परम चैतन्य की उपस्थिति का आनंद आता है...यदि खुली आंख से आप थोड़ी देर के लिये मृत्यु का दर्शन कर लेते हैं, उसे समझ लेते है...तो क्या यह अमरता को समझना नहीं है?
वैसे मुलायम की मेहरबानी से सैकड़ों लोग तो इस कुंभ में परमसत्ता से मिला दिये गये हैं...जो कार्य हमारे ऋषि इतने वर्ष नहीं कर सके उसे सपा की आपराधिक पृष्ठभूमि वाली धर्मनिरपेक्ष सरकार ने पल भर में कर दिया। राजनीति के राहु हमारी इस अमृत आबंटन पद्धति को सदा से ग्रसते रहे हैं,  इनका सिर कौन काटे? ये हम ही तो हैं जो इन दैत्यों को सिंहासन सौंप रहे हैं...वीरभद्र सिंह ने करोड़ों के वारे-न्यारे किये तो हिमाचलवासियों ने प्रसन्न होकर उन्हें गद्दी सौंप दी...और अब वे रामदेव के दैवकार्य में बिघ्न डाल रहे हैं। मुझे लगता है कि एक बार फिर से हमें मंथन करना होगा...अपने स्वार्थों के वासुकी नाग को राजनीति के चारों ओर लपेट, इस संसद को ही मथनी बनाना होगा...इसी राजनीति से तब मक्खन जैसे सफेद लोग अवतरित हांेगे...भारत की जनता तब सही कुंभ स्नान कर सकेगी...वरना मुलायम और वीरभद्र को वोट देकर आप इलाहाबाद में क्या करने आये थे बंधु...!