धीरे धीरे

गुस्से से 
लबरेज धुआं 
उठ रहा है
धीरे-धीरे
बढ रहा है 
गरीब का गुस्सा
धीरे-धीरे
भिंचे हुये ओंठ 
और तनी हुयी
मुट्ठियों की 
तादाद भी बढ़ रही है
धीरे-धीरे
जुल्मों सितम 
की इंतहा ने भीड़ को 
खड़ा कर दिया है
उनके खिलाफ
धीरे-धीरे
अबके भूख ने भी
उसकी जान नहीं ली
जंग के लिये 
वो खड़ा हो रहा है
धीरे-धीरे
लेकिन अब 
कुछ भी न होगा
धीरे-धीरे
जल्द बदलेगा
ताज औ' तख्त
चुनांचे, तब्दील हो चुका है
उसका गुस्सा बड़े बारूद में
चिंगारी अख्तियार कर चुकी है
शोलों की शक्ल
इन्कलाब के लिये