एक अनमोल ग्रंथ -केदारखंड


विदुषी हेमा उनियाल की यह कृति केदारखण्ड (धर्म संस्कृति वास्तुशिल्प एवं पर्यटन) उनकी पूववर्ती रचना कुमाँऊ के प्रसिद्ध मंदिर (धर्म संस्कृति एवं वास्तुशिल्प) से कलेवर तथा प्रौढ़ता में गुरूतर तो है ही, उनके अध्यव्यसाय का एक जीवन्त प्रतीक भी है। यह दुःख का विषय है कि अपने ही संसाधसनों से 540 पृष्ठों के एक ग्रंथ की रचना के लिए उन्हें अठारह शोधयात्राएँ ही नहीं करनी पड़ी अपितु इसके प्रकाशन का व्यय भार भी स्वयं ही वहन करना पड़ा। जिस प्रकार कुमाँऊ के प्रसिद्ध मंदिर, कुमाँऊ मंडल के धार्मिक पर्यटन में रूचि रखने वालों के लिए एक सर्वसुलभ आधार भूत ज्ञानकोश है उसी प्रकार गढ़वाल मंडल की आध्यात्मिक यात्रा के जिज्ञासुओं के लिए केदारखण्ड एक अनमोल ग्रंथ है। गढ़वाल मंडल में सात जनपद हैं जब कि कुमाँऊमें छः जनपद। गढ़वाल क्षेत्र की यात्रा कहीं अधिक दुरूह है और धार्मिक स्थल कहीं अधिक भव्य। इसीलिए सवा सौ से अधिक धार्मिक स्थलों को नापने में उन्हें डेढ़ दर्जन यात्राएं अक्टूबर 2005 से मई 2010 के बीच सम्पन्न करनी पड़ी जिसमें इस देवभूमि के प्रति जीवन्त श्रद्धा न हो वह ऐसा कार्य कर ही नहीं सकता। केदारखण्ड गंथ में समहित 314 छायाचित्रों में से 304 स्वयं लेखिका ने खींचे हैं। शेष उन चित्रों को जिनमें हेमा जी स्वयं उपस्थित हैं, उनके सह यात्रियों ने खींचा है। यह तथ्य ही इस इस बात को मुखर करता है कि लेखिका की यह कृति आराम कुर्सी में बैठ कर तैयार की गयी रचना नहीं है। किसी भी तीर्थ स्थल में जब तक आप स्वयं पदार्पण नहीं करते उसकी भव्यता को नहीं भांप सकते हैं। जब तक आप श्रद्धालु बन कर वहां शीश नहीं नवाते, आप स्थानीय लोगों, पुजारी, संत, महात्मा और धार्मिक स्थलों से जुड़े लोगों, संस्थाओं से सीधा संवाद नहीं बना सकते। आपको अपना अहं, अपनी विद्वता और नागर प्रतिष्ठा को तिलांजलि देनी ही होगी। जब आप उत्तराखण्ड के किसी परंपरागत गृहस्थ के घर में मुख्य द्वार के ऊपर विराजमान गणपति जी को बिना शीश नवाए प्रवेश नहीं कर सकते तब देवी देवीताओं के पवित्र मंदिरों में बिना विनम्र बने कैसे प्रवेश पा सकते हैं। हेमा विदुषी ने यही परंपरा निभा कर कुमाँऊ और गढ़वाल के मंदिरों के प्रांगणों में प्रवेश किया है, इसीलिए उनकी दोनों कृतियों में वर्णित देवालयों तथा अन्य प्राचीन स्थलों का पुरातात्विक, ऐतिहासिक, पौराणिक तथा साहित्यिक अधिकतम विवरण तो गुंफित है ही, उन स्थलों पर मिले साधु-साध्वियों, पंडो-पुजारियों तथा अन्य जागरूक जनों के सीधे संवाद व छायाचित्र भी विद्यमान हंै।
केदारखण्ड नामक संस्कृत का एक प्राचीन ग्रंथ भी उपलब्ध है जिसमें गढ़वाल मंडल के लगभग सारे ही धार्मिक स्थलों का माहात्म्य दिया गया है। जिस प्रकार केदारखण्ड गढ़वाल क्षेत्र की पौराणिक संज्ञा है उसी प्रकार मानस खण्ड कुमाँऊ क्षेत्र का प्राचीन नाम है। कैलास मानसरोवर यात्रा मार्ग होने तथा वहाँ तक उसकी परिव्याप्ति होने के कारण कुमाँऊ के धार्मिक पर्यटन सें जुडे ग्रंथ को भी मानसखण्ड का शीर्षक दिया गया। आस्थावान लोग केदारखण्ड और मानस खण्ड को स्कंदपुराण के अंग मानते हैं तथा महर्षि वेदव्यास को इनका स्रष्टा। अठारह पुराणों की सामग्री ही बताती है कि सारे पुराण पराशर सत्यवती नन्दन महर्षि वेद व्यास ने नहीं सृजे। व्यासों की परपरां आज भी विद्यमान है। हर पुराण के पारायण में व्यासपीठ स्थापित की जाती है जिस पर विराज कर कोई भी कथा वाचक व्यास जी कहलाता है। अतः इसमें संदेह नहीं कि हर पुराण एक विशिष्ट व्यास की रचना है, जो महर्षि वेदव्यास नहीं है। व्यास का अर्थ  ही विस्तार होता है जो सनातन आर्य सत्यों को रोचक कथाओं के माध्यम से विस्तार पूर्वक सामान्य जनों को समझा सके वहीं व्यास कहलाता है। पुराणों का अविर्भाव एक साथ न होकर सैकड़ों वर्षाें में होता रहा। इसी कारण कुछ पुराणों मे ऐतिहासिक राजवंशों का विवरण है तो दूसरों में कुछ शताब्दी पूर्व तक की घटनाओं का भी। उत्तराखण्ड से संबंधित केदारखण्ड और मानसखण्ड ग्रंथ स्कन्द पुराण के अंग है या नहीं। अथवा वे पन्द्रह सौ वर्ष प्राचीन हैं या मात्र पांच सौ वर्ष, ये तथ्य उसमें महत्वपूर्ण नहीं हैं, अधिक महत्वपूर्ण है कि ये गं्रथ रत्न उत्तराखण्ड के समग्र भूभाग के एक-एक चप्पे की जानकारी देने वाले अदिमतम ग्रंथ हंै।
इक्कीसवीं सदी के मानव को न तो इससे कोई मतलब है कि कौन धार्मिक स्थल अधिक पुण्य भूमि है, किस नदी या सरोवर में स्नान करने से कितनी पीढ़ियों को मोक्ष मिलता है? किस देव स्थान के दर्शन मात्र से सहस्त्रों गोदानों या यज्ञों का फल प्राप्त होता है? हाँ आधुनिक मानव यह जानकर अवश्य श्रद्धावनत हो जाता है कि दोनों ग्रंन्थों केे स्रष्टा एक-एक नदी के उद्गम से लेकर उसके समग्र मार्ग को भली-भांति जानते थे, वे हर पर्वत उपपर्वत की चोटियों से परिचित थे, इतना ही नहीं किस क्षेत्र में भूमिगत गुफाएं तथा खनिज छिपें हैं, इसकी भी उनको जानकारी थी। उन्होंने धार्मिक स्थलों को इतना महिमामंडित कर दिया कि अनचाहे भी मनुष्य उन स्थानों के दर्शन लाभ का लोभ संवरण नहीं कर पाता था। केदार और मानस खण्ड इतने सुलभ नहीं है कि हर कोई यात्रा जिज्ञासु उनसे लाभ ले सके फिर अनेक पर्वतों, स्थानों और नदियों के नामों में परिवर्तन हो चुका है। प्रायः पुराने नाम तद्भव रूपों में ही प्राप्त हैं। इन सारी कठिनाइयों को हेमा जी ने उत्तराखण्ड के लगभग सारे मंदिरों और तीर्थ स्थलों की सद्यतम जानकारी देकर दूर कर दिया है।
हेमा उनियाल रचित केदारखण्ड की विषयवस्तु 15 खण्डों में विभक्त है। प्रस्तावना के बाद प्रागैतिहासिक और आद्यैतिहासिक काल का विवरण है फिर क्रमशः हरिद्वार, देहरादून, पौडी, टिहरी, उत्तरकाशी, चमोली और रूद्रप्रयाग जनपदों के धार्मिक व पर्यटन स्थलों का विस्तृत विवरण है। ग्याहरवाँ अध्याय लोक देवताओं को समर्पित है तो बाहरवें अध्याय में वास्तुकला का विवेचन है। तेरहवें अध्याय में प्रतिमा विज्ञान पर प्रकाश डाला गया है, फिर सहायक ग्रंथ सूची और फोटो संग्रह में रंगीन चित्रों के फलक हैं। पुस्तक में धार्मिक स्थलों के अलावा कविल्ठा जैसे सद्यतम खोजे गये कवि कुलगुरू कालिदास के जन्म स्थान का भी उपलब्ध सारा विवरण दिया गया है। हरिद्वार के आश्रम, अखाड़ों का उल्लेख हुआ है तो 2010 के महाकुम्भ का भी। रूड़की के अभियांत्रिकी एवं शिक्षण संस्थान को यथास्थान वर्णित किया गया है तो गुरूरामराय दरबार साहिब, पोन्टा साहिब, तीर गढ़ी साहिब, गुरूद्धारा यंगायी साहिब व शेरगाह साहिब भी नहीं छूटने पाए हैं। जगतग्राम बाड़वाला का अश्वमेघ यज्ञ स्थल, कालसी का अशोक शिला लेख, जौनसार बाबर लाखामंडल, हनोल का महासू मंदिर, नाला का बौद्ध स्तूप, हेमकुण्ड साहिब, फूलों की घाटी तथा चिंत्रित शिलाश्रय सभी कुछ दर्शनीय तो गं्रथ में स्थान पा गये हैं। इस प्रकार केदारखण्ड  गागर में सागर को चरितार्थ करता है। इसमें हर रूचि, धर्म, पंथ या मान्यता वाले व्यक्ति को संतुष्टि मिलेगी ऐसी मेरी मान्यता है। तुलसी के शब्दों में सुरसरि के समान सबका हित करने वाली कीर्ति, संरचना और सम्पदा ही अच्छी होती है (कीरति मनति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहं हित होई)
इस  संसार में हजारों लेखक हैं और लाखों की तादात में तीर्थ यात्री, पर ऐसे कितने लोग है जो लेखन के मिसन से तीर्थ यात्रा करतें हैं। यह एक चातुर्यपूर्ण दोहरे लाभ का सौदा है। केदारखण्ड की लेखिका ने वह चातुरी दिखाई है या ''लोकद्वय साधिनी चतुरता, सा चातुरी चातुरी।'' जिससे दोनों लोक साधे जा सकें वहीं असली चतुरता है। इस ग्रंथ सें पाठक वर्ग का भला तो होगा ही, लेखिका की आध्यात्मिक साधना में भी सहायता मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। अच्छे कलेवर छपाई और छायाचित्रों से सज्जित यह सामान्य मूल्यवाली असामान्य कृति हेमा उनियाल की यशः कीर्ति को अवश्य बढ़ाएगी। लेखिका तथा उनके सहयोगियों को ऐसी रचना के लिए शतशः साधुवाद।