गद्दी समाज


गद्दी कहो या सोका, भोटिया, सोकार, गड़रिया, यह जन जाति हिमाचल प्रदेश की पश्चिमी सीमा उत्तराखंड के बुग्यालों व जम्मू कश्मीर के सीमांत क्षेत्रों पर पाईई जाती है। हिमांचल के कांगड़ा, कुलु, मनाली, डलहौजी, रोडू, शिमला, रामपुर, व उत्तराखंड के चमोली, उत्तरकाशी, रूद्रप्रयाग और जम्मू के बारामुला, डोडा, लेह लद्दाख क्षेत्र में इन का बसेरा होता है। हिमांचल के बद्दी लोग अपने आप को राजस्थान के 'गढ़वी' शासकों के वंशज बताते हैं। इस जनजाति का विश्वास है कि मुग़लों के आक्रमण काल में धर्म एवं समाज की पवित्रता बनाये रखने के लिए यह राजस्थान छोड़कर पवित्र हिमालय की शरण में यहाँ के सुरक्षित भागों में आकर बस गये। जब कि उत्तराखंड के गद्दी खुद को परमार वंश के दौरान का बताते हैं जो भुखमरी के दौरान उत्तराखंड आ गये थे। और ये लोग भी राजस्थान चित्तौड़ से हैं। जम्मू के गद्दी खुद को कश्मीरी पंडित बताते हंै और यह जनजाति एक ऐसी जनजाति है जो मूलरूप से कश्मीरी है। गद्दी लोग राजवंश के गड़रिया हुआ करते थे जो धीर -धीरे व्यवसाय में तब्दील हो चुका है।
आज मैं बात कर रहा हूँ अपने एक मित्र झालू रना की जो मूलरूप से हिमांचल के रोडू का रहने वाला है और मेरी मुलाकात मेरे किसी मित्र की शादी में उन से हुई। झालू रना 32 वर्ष का है और उस का एक पांव नहीं है। वर्ष 2009 में झालू पर बर्फीले भालू ने हमला कर दिया था जिस वजह से झालू का पैर पूरी तरह खत्म हो गया। पीजीआई चंडीगढ़ में उस के पैर का आॅपरेशन हुआ और पैर काटना पड़ा। झालू को भालू मरा समझ कर छोड़ गया था वरना आज झालू हमारे बीच नहीं होता। झालू 12 वीं पास है जिस की पत्नी 10 वीं पास है और किसी निजी विद्यालय में चतुर्थ श्रेणी की कर्मचारी है। झालू की कहानी भी विचित्र है। पिता तब गुजर गए जब झालू मात्र 4 साल का था छोटी बहिन 1 साल की थी और बड़ा भाई 10 साल का था। जीवन जैसे तैसे चल रहा था कि 5 साल बाद झालू की माँ को दमा की बीमारी ने जकड़ दिया। ठंड में दमा के मरीजों का हाल बहुत खराब हो जाता है और झालू का गाँव बर्फीली क्षेत्र में था। जो महिला झालू की पत्नी है वह दरसल उस की भाभी थी। भाईई की मौत सड़क दुर्घटना में हो गई। भाभी का कोई बच्चा नहीं था और भाभी कहीं और घर नहीं बसाना चाहती थी तो घर की बात घर में रह गई।
झालू कहता है कि यह काम बहुत चुनौतियांे का है। बरसाती नाले बर्फ से ढके पहाड़ों को पार करना और भेड़ बकरी को सुरक्षित घर वापस लाना आसान नहीं है। गद्दी लोग करीब 10 से 20 लोगों के झुंड में होते हंै। और करीब इतने ही भोटिया नस्ल के कुत्ते। खानपान व लत्ते कपड़ों के लिए 6 से 8 घोड़े। मेडिकल का सामान व भाले बरछा के साथ होते हंै। गद्दी जीवन खानाबदोश है। करीब 9 महीने घर से बाहर 3 महीने घर में। झालू बताता है कि हिमांचल में काश्तकारों के अपने जंगल होते हंै। सरपंच जंगल की कीमत तय करता है। और फिर हम लोग माल;भेड़, बकरीद्ध को चुगाने जाते हैं। चुगाई की कीमत भी सरपंच खुद तय करता है। जिस का जंगल है उस के करीब 3 से 4 सौ बकरियां मुफ्त में साथ चुगानी पड़ती हंै।
कुछ के खुद का माल होता है कोई ध्याड़ी पर आता है। बकरी चुगाने के दौरान अगर किसी  का माल ;मवेशीद्ध गायब हो गया, मर गया, नदी में बह गया तो गद्दी की कोई ज़िम्मेदारी नहीं। हर साल 2, 4 ऐसे केस हो जाते हंै मगर जान बूझकर कोई नहीं करता है। ग्रामीणों का विश्वास सब से बड़ा है। यह काम बहुत कठिनाई भरा है। क्योंकि पहाड़ों में कब मौसम बदल जाये, किसी को नहीं मालूम।
उत्तराखंड में भेड़ बकरी चुगाने का काम बोक्षाड़ लोग भी करते थे। जिन के पास बोक्षाड़ विद्या थी। आज़कल जो जागर शिल्पकार समाज लगाते हैं, इस विद्या की बदौलत है। जब कि ब्रह्म समाज के लोग जो जागर लगाते हैं वो केन्त्युरा विद्या है। दोनों में कुछ समानता भी है। गद्दी समाज को किसी भी सरकार की ओर से कोई सम्मानजनक नजर नहीं मिली। गद्दी के द्वारा ऊन का व मांस का बहुत बड़ा उत्पादन हो रहा है। अकेले भारत के पहाड़ी क्षेत्र कश्मीर, उत्तरा खंड, हिमांचल, अरुणाचल, असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम से ही 11 हजार करोड़ का मांस का व्यापार होता है। जब कि विगत वर्ष ऊन का व्यापार 7.92 हजार करोड़ का रहा। जहां आज देश गोमांस की गिरफ्त में जकड़ा है वहीं अगर इस कारोबार  पर ध्यान दिया जाता तो अनेकों आयाम खुल सकते थे। मांस, ऊन, चमड़ा जैसे व्यापार को बल मिल सकता है। आज भारत चमड़े के लिए पूर्णतया बांग्लादेश पर निर्भर हो चुका है। क्योंकि कत्ल खानों में ताला लगने से भारत में चमड़े के कारोबार में 33प्र. की गिरावट आईई है। बीफ़ का दुनिया में सब से बड़ा निर्यातक भारत है। मग़र बीफ़ का व्यापार भी 23 हजार करोड़ से 9 हजार करोड़ पर आ चुका है। इस से अब सिर्फ़ एक रास्ता बचता है कि सरकारें गद्दी समाज की मदद करंे और मवेशियों का पालन करने वाले हर समाज का ख्याल रखें। कोई ऐसी योजना चलाई जाए जिससे इन के बच्चों का भविष्य भी सुनिश्चित हो और इन लोगों की माली हालत में सुधार हो। इस कारोबार को आधुनिकता से  पटरी पर लाया जायेे। गद्दी समाज के बच्चे ज्यादा पढ़े लिखे नहीं होते। यह समाज अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाता है। उत्तराखंड में सोका या भोटिया नाम से जाने जाने वाले गद्दी अब सिमट कर रह चुके हंै। इन की तादात बड़ी तेजी से सिमट रही है। नई पीढ़ी ने यह काम छोड़ दिया है। उत्तरकाशी के मोरी क्षेत्र में आज कल कुछ गद्दी दिखाई भी देते हंै मगर अब ना के बराबर व्यापार रह चुका है। सरकारों से मेरे मित्र झालू रना जैसे कितने लोगों की आस लगी है। कोई तो इस समाज की बात सुनेगा। गद्दी हम सब के बीच के लोग है। इन को समाज की मुख्यधारा से जोड़ना सरकार का दायित्व होना चाहिए।