गंगलोड़ा (पलायन पर )

चेहरे पर विस्तृत आड़ी झुर्रियां, आंखों में दूर तक वीरानापन लेकिन पहाड़ियों के पार भागती उसकी निगाहों में अभी भी कहीं न कहीं अपने किसी को जोर से ब्वै (मां) पुकारने की पीड़ा छिपी थी। सीढ़ीनुमा खेतों पर कोदे की फसल के बीच सूखी मिट्टी को कुदाल से विखण्डित करती वो वृद्ध महिला इन तृणों में अपने अतीत की जी तोड़ मेहनत, वर्तमान का ख्ूान-पसीना तथा भविष्य में बंजर पड़ जाने के दुख को निहार रही थी। जहां तक उसे याद है कई साल गुजर गये, उसके गांव की ईष्टदेवी की देवरा यात्रा केदारधाम को निकली थी, तब से उसका इकलौता बेटा दुबारा इस गांव में नहीं आया, सुनने में आया है कि 12 साल बाद पुनः इस बार भी ईष्ट देवी बद्रीनाथ को कूच करेगी,हां 12 साल पूर्व शादी करकेे गांव आया था। कलमुंही बहू की जात-पात धर्म का पता नहीं था, घर की तिवारी-डंड्याली में बहू की चहल कदमी हालांकि वृद्धा को सुकून भरा लगता परन्तु न जाने किस विरादरी की है, सोचकर मंुंह बिचका देती। गौशाला, घर, गाड, पन्दौरा से उसे कोई सरोकार नहीं था। वृद्धा सेाच में डूब गई शायद कुछ दिन बाद सास के साथ हाथ बंटायेगी। परन्तु वृद्धा के सपने क्षणभंगुर सिद्ध हुये, उसका बेटा बिना मां के आशीर्वाद के दिल्ली चला गया। बहू ने पांव छूना तो दूर कुछ कहना भी गंवारा नहीं समझा...हां इन चार दिनों में माता के शरीर से बास मारते कपड़ों, बिवाइयों से फटे पैरों पर कई बार बहू ने तंज किया था। पहले-पहले तो उसके बेटे की सन्त खबर चिट्टी से मिल जाती थी, गांव के प्रधान मुखिया के नाम से उसका पत्र आता था। परन्तु अब मुबेल (मोबाइल) की भरमार से चिट्टी पत्री का नामोनिशान नहीं है। कितने नाती हुये हैं कुछ पता नहीं...जीवन के इस अंतिम पड़ाव में नाती-पोतों को अपनी गोद में खिलाने से इतर वो खेतों में मेहनत करती रही, गांव के ही दिल्ली रहने वाले कई लोगों से बेटे के बारे में पूछती, परन्तु किसी को कुछ पता नहीं था उसे क्या पता कि पिखनी बहुत बड़ा है। ये उसका सिमय गांव नहीं जहां लोग अपनी गाय का दूध भी पहचान लें।
उसने अभावों में जीवन जिया था। बचपन में पति गुजर गये, तब उसका बेटा पेट में पल रहा था। इस उम्र में वैधव्य का जीवन बिताना और गरीबी के इस दौर में अपने बेटे के पोषण में कितनी दिक्कतें झेलीं, कमर में साफे से बाँध-लटकाकर कैसे भूखे पेट काम किया था, परन्तु आज निर्माेही घर-बार छोड़कर भंड-मंजू बना दिल्ली में है। कितने तीज-त्यौहार आये, बग्वाल, होली, वैशाखी, थौला-मेला और भी न जाने कितने पर्व...काखड़ी, मंुगरी, चचेण्डा, सगवाड़्यूं की सब्जियों को देखकर हमेशा बेटे की याद सताती रहती। परन्तु निर्लज्ज एक बार भी मां की सन्त खबर पूछने नहीं आया। चिट्टी पत्री तार कुछ भी नहीं। वो हड्डियों का ढांचा मात्र, जिसकी दैनंदिनी में विश्राम की कोई तिथि नहीं थी। उसके पीछे वर्षो की पीड़ा, अपमान, उपेक्षा की प्रतिध्वनियां छिपी थी। वृद्धा की नजर खेतों के अंतिम छोर पर स्थित पित्र-कूड़ी पर पड़ी, थके कदमों से वृद्धा उसकी ओर बढ़ी। बड़े पत्थर को हटाकर अन्दर झांककर देखा, कई छोटे-बड़े सुन्दर बेडौल गंगलोड़े पित्रकूड़ी में स्थापित थे, वर्षांे पहले परलोक सिधारे कई देवतुल्य पित्र इस स्थान पर एकत्रित होकर अपने सुख-दुख बांटते हैं, वृद्धा ने देर तक अन्दर झांका...उसे अपने पति का लिंग-पत्थर (गंगलोड़) स्पष्ट नजर नहीं आ रहा था। कौन सा होगा? स्पष्ट नहीं था, परन्तु यही था, तेरहवीं के दिन गांव के सभी पित्रों की अनवरत् यादों को संरक्षित रखने के लिये इसी पित्रकूड़ी में लिंग स्थापना करते हैं। वृद्धा की आंखों में 12 वर्षांे बाद पहली बार चमक जाग गयी, उसे भी तो चन्द दिनों में इसी स्थान पर तो आना था। अपने ससुर, सास, पति के साथ उसके बेटे ने ही स्थापित करना था उसे...तो क्या एक बार उसका बेटा फिर इस गांव आयेगा? घर, कूड़ी, खेत, खलियान को पुनः गुलजार करेगा? काश कि वो भी अपने बेटे की अंतिम झलक देख पाती लेकिन उसके मरने के बाद ही ये संभव था। अगर उसे किसी ने इत्तला नहीं दी तो..? वृद्धा पुनः और जोर से रोने लगी। आँसुओं की अन्तिम बूंद गिरने तक वो रोती रहेगी....