हिमालय पुत्र:बहुगुणा


पूर्व मुख्यमंत्री हिमपुत्र उ0प्र0 हेमवती नंदन बहुगुणा के जन्म दिन के अवसर पर क्षेत्र के कई स्थानों पर लोगो ने उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किये। गुप्तकाशी क्षेत्र के हयूण गांव में स्व0 बहुगुणा के 95 वें जन्म दिवस पर ग्रामीणों ने उनकी चित्र का माल्यार्पण करके श्रद्धासुमन अर्पित किये गयेे। ज्ञात हो कि श्री बहुगुणा के बचपन की पढ़ाई प्रा0वि0 गुप्तकाशी में हुयी थी। इसलिये भी यह क्षेत्र प्रसिद्ध हैं।
25 अप्रैल 1919 में बुघाणी, तत्कालीन पौड़ी जिले में श्री बहुगुणा का जन्म हुआ था। गुप्तकाशी में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करके डीएवी कालेज देहरादून से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। वर्ष 1936 से 1942 तक विद्यार्थी आंदोलन का सफल नेतृत्व किया। विद्यार्थी काल से ही श्री बहुगुणा स्व0 लाल बहादुर शास्त्री के सम्पर्क में रहे। वर्ष 1942 में 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' की ख्याति से बहुगुणा घर-घर में प्रसिद्ध हो गये। अंग्रेजों की चूलें हिलाने वाले श्री बहुगुणा पर अंग्रेजों द्वारा जिंदा या मुर्दा पकड़ने पर पांच-पांच हजार का ईनाम रखा गया था, लेकिन विद्वान बहुगुणा ने भूमिगत रहते ही अंगे्रजांे को अपने हौसले तथा वीरता का परिचय दे दिया। उनके जज्बे को देखते हुये इलाहाबाद विश्वविद्यालय यूनियन के प्रथम डिटेक्टर चुने गये। 1 फरवरी 1943 को इन्हें दिल्ली मंे जामा मस्जिद के निकट गिरफ्तार करके जेल भेजा गया, लेकिन पुनः 1945 में जेल से छूटते ही श्री बहुगुणा ने देश के कई नामी गिरामी आंदोलन कारियों के सत्संग में रहकर अंग्रेजो की ईंट र्से इंट बजा दी।
वर्ष 1952 से लगातार उ0प्र0 कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे। वर्ष 1963 से 1969 तक उ0प्र0 कांगे्रस महासचिव के पद पर शोभित रहे। वर्ष 1957 में संसदीय सचिव, 1958 में उ0प्र0 सरकार मंे श्रम और उद्योग विभाग के उपमंत्री रहे। वर्ष 1967 में आम चुनाव के पश्चात उ0प्र0 सरकार में आम गठन होने के बाद श्री बहुगुणा को अखिल भारतीय कांग्रेस के महामंत्री चुना गया। वर्ष 1971 में केन्द्रीय मंत्रीमंडल में संचार मंत्री, तथा नवम्बर मंे ही कांगे्रस विधायक दल के नेता चुने गये। 8 नवम्बर 1973 को श्री बहुगुणा ने उ0प्र0 में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके बाद उन्हांेने पीछे मुड़कर नहीं देखा और कई विशिष्ट पदों पर आसीन होकर देशवासियेां की सेवा की।
उनके बाल्यकाल की बात करें तो तब केदारघाटी मंे महज गुप्तकाशी में प्रा0 विद्यालय हुआ करता था। इसी विद्यालय में श्री बहुगुणा ने तीन वर्ष तक अध्ययन किया। उनके अध्यापक रहे ह्यूण निवासी स्व0 श्री परमानंद द्वारा उ0प्र0 से श्रम भगवान के नाम संे प्रकाशित पत्र में लिखा गया कि माता-पिता अपने से बढकर अपने पुत्र को तथा गुरू अपने से बढ़कर अपने शिष्य को देखना चाहता है, आज की परिस्थितियां कुछ विषम सी हो गयी हैं, आज मैं यह लिखते हुये महान गौरव का अनुभव कर रहा हूं कि मुझे एक कुशल प्रशासक, महान राजनीतिज्ञ तथा जन सेवी श्री बहुगुणा के तीन वर्ष तक गुप्तकाशी में अध्यापक बने रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वर्ष 1926 में उनके पिता श्री रेवती नंद बहुगुणा से वार्ता हुयी उन्होंने अपने पुत्र हेमवती नंदन को पढ़ाने की बात की। बालक हेमवती का अक्षर ज्ञान नहीं था, अतः मैंने इन्हें सर्वप्रथम अक्षर ज्ञान दिया। उस समय चैथी कक्षा तक ही प्राइमरी की शिक्षा होती थी। वे पढ़ने मंे बड़े तेेज तथा हाजिर जबाब थे। वे इतने नटखट थे कि कभी कलम तोड़ देते थे, तो कभी कमेड़ा जिससे पाटी में लिखा जाता था, को गिरा देते। मैं उन्हें बहुत डांटता था। पौड़ी से आये एक बार गिरधारी ने मेरा फोटो लेना चाहा, मैं उस समय स्काउट ड्रेस में था, बालक बहुगुणा का चूड़ाकर्म संस्कार भी नहीं हुआ था। अध्यापक श्री परमानंद सेमवाल के पु़त्र आनंद मणि सेमवाल कहते हैं कि कई बार पूज्य पिताजी कहते थे कि बहुगुणा जी पैरों में कम ही चप्पलें पहनते थे। उनकी बु़िद्धमता तथा चातुर्यता को देखते हुये लोगो ने उनका नाम शता वधानी रख दिया अर्थात ऐसा व्यक्ति जो एक बार में कई लोगों की बातें सुने और सबका सकारात्मक प्रत्युत्तर दे।
अध्ययन के दौरान श्री बहुगुणा समय समय पर अपने अध्यापक परमानंद का सानिध्य प्राप्त करने के लिये ह्यूण गांव आते रहते थे, आज भी हयूण गांव की माटी की सौंधी महक उनके चिरस्पर्शी यादों को अपने में संजाये अपने पर कृतकृत्य महसूस करता है।


वर्ष 1978 में उ0प्र0 से प्रकाशित 'श्रम भगवान' में श्री बहुगुणा के अध्यापक रहे ह्यूण निवासी स्व0 परमानंद सेमवाल द्वारा श्री हेमवती नंदन बहुगुणा पर लिखी गयी एक कविता की चंद लाइनें- 
प्रिय नंदन! अभिनंदन करती 
गढभूमि सदा तेरा, 
पाकर तुम जैसे सुपुत्र को 
धन्य हुआ जीवन मेरा, 
तुम धीर वीर हो साहसी हो 
प्रतिपल आगे बढते रहना 
दानव दुष्ट व दुर्जनादि को सदा
दमन तुम करते रहना, 
दुर्बल दीन दलित मानव के 
दुख दूर करो उपकार करो, 
फैले यशकीर्ति तुम्हारी जग मंे 
दीर्घायु बनो, चिरंजीव बनो।