हुसैन का पलायन

मकूबल फिदा हुसैन ने 95 साल की उम्र में भारत की नागरिकता छोड़कर दूसरे देश की नागरिकता स्वीकार कर ली। वे जाने माने चित्रकार हैं और उनके चित्र लाखों में बिकते हैं। जो चीज लाखों में बिकती है वो सैकड़ों में ही चर्चित होती है। आम आदमी से उसका कोई मतलब नहीं होता। लेकिन लाखों में बिकना ही उस आदमी के रूआब को बढ़ाता है और आदमी को डराता है। हुसैन के भारत की नागरिकता छोड़ देने के कारण गिने-चुने लोगों को ईधर-उधर अखबारों में या बुद्धू बक्से में रोते हुए देखा जा सकता है। उनका यह रोना भी उनके इस दम्भ को बढ़ाता है कि वे बड़े ऊँचे दर्जे की बातें कर रहे हैं और बाकी लोगों पर उनको तरस आता है कि मकबूल फिदा हुसैन कि चित्रकारिता की ऊँचाई को समझने की इन लोगों में तौफीक नहीं है।
आम आदमी जब बुद्धू बक्से में हो रही इस उठापटक को देखता है तो वह हैरान होता है कि इन लोगों को एक सीधी सी बात समझ में नहीं आती कि इनका हुसैन सरस्वती माता के नंगे चित्र बनाकर लाखों कमाता है। जब कोई इन भले मानुषों से ऐसा प्रश्न कर देता है तो वे उसे हिकारत की नजर से देखते हैं और सीधे खजुराहो की गुफाओं की तरफ भाग जाते हैं। लेकिन ये सब ऊँचे दर्जे की बातें चित्रकला से जुड़ी हुई हंै। इसलिए आम आदमी को इसमें हस्तक्ष्ेप करने की मुमानियत है। इसपर इन्हीं लोगों की इजारेदारी है जो पिछले कुछ दिनों से बुद्धू बक्से में रोना-धोना मचाए हुए हैं परन्तु इस प्रश्न को अभी पीछे छोड़ा जा सकता है। मुख्य प्रश्न उनकी चित्रकला नहीं बल्कि उनकी नागरिकता का बन गया है। वे दूसरे देश के नागरिक हो गए हैं। वहां के नागरिक हुए हैं तो जाहिर है कि वहां के राजा के प्रति निष्ठा की सौगंध भी खायी होगी क्योंकि किसी दूसरे देश की नागरिकता लेने के लिए यह कानूनी प्रावधान है। फिदा हुसैन का सिजरा अभी उनलब्ध नहीं है। वैसे कोई शोधकर्मी शोधकार्य करे तो उसे ढंूढ पाना असंभव भी नहीं है। इस देश में दो प्रकार के मुसलमान हैं। पहले तो वे जिनके पूर्वजों ने किन्हीं कारणों से भारतीय पंथों को छोड़कर इस्लाम पंथ को स्वीकार कर लिया था और दूसरे वे मुसलमान हैं जो इस प्रकार से मतांतरित नहीं है बल्कि उनके पूर्वज अरब, तुर्क या ईरानी थे। वे उन देशों से आक्रांता के रूप में व्यापार करने के लिए या फिर पढ़ने-लिखने के लिए आए थे। लेकिन अब ऐसे मुसलमानों की संख्या इस देश में कम ही है। अब मकबूल फिदा हुसैन किस कोटि में आते हैं ये उनको ही पता होगा। इस देश में यह जानने की जरूरत भी नहीं थी, परन्तु 95 साल बाद इस देश को तिलाजंलि देने के कारण यह प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण हो गया है। यदि उनके पूर्वज विदेशी थे तब तो पंजाबी में एक कहावत है कि अंत में कुंए की मिट्टी कुंए में ही जा लगी। यदि उनके पूर्वज भारतीय थे और उन्होंने अपना मजहब परिवर्तन कर लिया था तब हुसैन के देश को त्याग देने के कारणों की गहराई से मीमांसा की जानी चाहिए। फिलहाल फिदा हुसैन और उनकी ओर से रोने वालों का आरोप है कि देश में कुछ कट्टरपंथी हिंदू उनको तंग कर रहे थे इसलिए वे दुःखी होकर देश को छोड़ गए और दूसरे देश के सम्मानित नागरिक बन गए। उनके विरोध में कुछ कचहरियों में मुकदमें भी चल रहे थे। इस देश में चाहे हिंदू हो या मुसलमान, सभी को इस देश के कानून को पालन करना होता है। लेकिन मकबूल फिदा हुसैन शायद अपनी नजरों में इतने ऊँचे उठ गए थे कि उन्हें अदालत का सामना करना भी अपना अपमान लगने लगा था। अदालत की इतनी हिम्मत कि हुसैन जैसे वयक्ति को अपने सामने तलब करने की हिमाकत करे। यह अलग बात है कि इस देश में अदालतें राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक सभी को एक भी भाव से तलब करती रही हैं। लेकिन हुसैन तो आखिर हुसैन हैं उनका बनाया हुआ एक-एक घोड़ा एक-एक करोड़ में बिकता है। असली घोड़ा दस हजार का और हुसैन का घोड़ा एक करोड़ का। इसलिए अदालत के सम्मन को भी मकबूल फिदा हुसैन हिन्दू कट्टरवादियों द्वारा सताया जाना हीं मानते हैं। इसको आला दर्जे की चित्रकारी की समझ कहा जा सकता है। बुद्धू बक्से में कई बेगमें रोने लगी। हुसैन के बिना उनको लाखों सालों की विरासत संभाले खड़ा भारत बंजर भूमि दिखाई देने लगा। सांस अटकी जा रही थी। इसलिए रोनेवालों ने सुझाव भी दिया कि हुसैन के लिए विशेष प्रावधान कर देना चाहिए कि उनकी कतरी नागरिकता भी बनी रहे और भारतीय नागरिकता भी। देश के लोग डर रहे हैं कि कहीं मकबूल फिदा हुसैन के लिए देश के संविधान को ही निरस्त करने की सिफारिश न कर दी जाए।
रोने वालों का सबसे बड़ा तर्क यही है कि हुसैन के भाग जाने से देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सबसे बडा़ प्रश्नचिन्ह लग गया है। लेकिन जिस बुद्धू बक्से में बैठकर वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संकट की बात कर रहे हैं, वे अच्छी तरह जानते है कि इस बुद्धू के पीछे का तार बक्से का मालिक हिला रहा है। इस बक्से में बैठकर बोलने वाले को इतनी स्वतंत्रता नहीं है कि वह जो मन तक आए, बोलते रहें। मालिक की नीति ही बोलने के पैरामीटर तय करती है इसलिए कायदे से तो बुद्धू बक्से के मालिकों ने रूदाली में रूदन के लिए जमावड़ा इकट्ठा किया है जो हुसैन के पलायन को महिमा मंडित करने के लिए रिक्त स्थानों की पूर्ति कर रहे हैं। प्रसिद्ध साहित्यकार तस्लीमा नसरीन ने इस सिलसिले में 28 फरवरी के जनसत्ता में एक बहुत ही तीखा प्रश्न उठाया है, इतना तीखा कि रोने वाले उसका सामना करने से बचते हैं और हुसैन, नसरीन के इस प्रश्न का उत्तर देने मंे भी अपनी तौहीन समझेंगे। अरे भाई! कहां हुसैन और कहां नसरीन। तस्लीमा नसरीन का एक पूरा अंश उद्ध्त करना उचित होगा- 'हुसैन के सरस्वती की नंगी तस्वीर को बनाने को लेकर भारत में विवाद शुरू हुआ तो मैं स्वाभाविक तौर से चित्रकार की स्वाधीनता के पक्ष में थी। मैने मकबूल फिदा हुसैन के चित्रों को हर जगह से खोजकर देखने की कोशिश की कि हिन्दू धर्म के अलावा किसी और धर्म, खासकर अपने धर्म इस्लाम को लेकर उन्होंने कोई व्यंग्य किया है या नहीं, लेकिन देखा कि बिलकुल नहीं किया है। बल्कि वे तो कैन्वास पर अरबी में शब्द अल्लाह लिखते हैं। मैंने यह भी स्पष्ट रूप से देखा कि उनमें इस्लाम के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास है। इस्लाम के अलावा किसी दूसरे धर्म में वे विश्वास नहीं करते। हिंदुत्व के प्रति अविश्वास के चलते ही उन्होंने लक्ष्मी और सरस्वती को नंगा चित्रित किया है। क्या वे मोहम्मद को नंगा चित्रित कर सकते हैं? मुझे यकीन है कि नहीं कर सकते। मैं किसी धर्म को उपर रखकर दूसरे के प्रति घृणा प्रदर्शित करने, किसी के प्रति लगाव या विश्वास दिखाने की कोशिश नहीं करती। हुसैन भी उन्हीं धार्मिक लोगों की तरह हैं जो अपने धर्म में विश्वास रखते हैं, पर दूसरे लोगों के उनके धर्माे में विश्वास की निंदा करते हैं।' तस्लीमा नसरीन की इस बात के लिए सिफ्त की जानी चाहिए कि वे अपनी मान्यताओं के प्रति ईमानदार हंै जो उन्होंने बड़ी समझदारी से हुसैन के पाखंड को सामने लाकर रख दिया है।
अंग्रेजी के हिन्दुस्तान टाईम्स में जाने-माने पत्रकार वीर संघवी ने हुसैन के इस प्रंसग को लेकर एक और प्रश्न उठाया है। जो मौजूं है। वीर संघवी उस जमात के पत्रकार हैं जो हुसैन के भाग जाने को भारत के माथे पर कलंक की तरह ले रहे हैं और तथाकथित हिंदू कट्टरपंथियों को पानी पी-पी कर कोस रहे हैं। लेकिन उसके बावजूद भी वीर संघवी हुसैन के व्यवहार को लेकर अपने आप को ही संतुष्ट नहीं कर पा रहे हंै। उसका कारण शायद ये है कि हुसैन के पाखंड, जिसके अनेक क्षेत्र हो सकते हैं, तस्लीमा ने उनमें से एक क्षेत्र का ही उल्लेख किया है, ने रूदाली के इस रूदन कार्यक्रम में भाग लेने वालों को भी कन्फ्यूज कर रखा है। वीर संघवी ने प्रकारांतर से हुसैन के एक दूसरे पाखंड को उघाड़ा है। उनके अनुसार यदि हुसैन भारत को इसलिए छोड़कर गए हैं कि यहां उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है फिर उन्हें किसी ऐसे स्थान पर जाना चाहिए था जहां उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलती, परन्तु वे तो अरब देश में गए जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो दूर, शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था भी नहीं है। अब वे उस देश में राजपरिवार के लिए चित्र बनाया करेंगे। दरअसल वे अब दरबारी चित्रकार बन गए हैं। वीर संघवी का यह प्रश्न बहुत जायज है, परन्तु शायद हुसैन को दरबारी बनने में ही सूकून मिला होगा। एक प्रश्न अभी भी अनुत्तरित ही है कि यदि उनकी फितरत दरबारीबनने की ही थी तो इस मुल्क में भी मौके उपलब्ध हैं। यहां भी राजा या रानी का दरबार सजता है और बड़ी-बड़ी जानी-मानी हस्तियां चाहें वे राजनीति, साहित्य, संगीत या कुछ और, दरबार में कोर्निश करती हुई दिखाई देती हंै। फिर आखिर हुसैन के भागने का रहस्य क्या है? कहीं पंजाबी की वह कहावत ही तो सच नहीं निकली कि कुंए की मिट्टी कुएं में जा लगी।