इतिहास की सलीव पर राजा हरिसिँह

जब सत्य का सामना करना बहुत मुश्किल हो जाता है तो उससे बचने के लिये किसी न किसी को सलीब पर लटकाना जरुरी हो जाता। हर युग का इतिहास इसका गवाह रहा है। बीसवीं शताब्दी में जब जम्मू कश्मीर को लेकर सभी के पाप उन्हीं पर भारी पड़ने लगे तो उनके लिये जरुरी हो गया था कि उनके झूठ को ही सत्य का दर्जा दे दिया जाये और उनके पाप को ही पुण्य मान लिया जाये। इसलिये किसी न किसी को सलीब पर लटकाया जाना जरुरी हो गया था। महाराजा हरि सिंह से आसान शिकार इस काम के लिये कौन हो सकता था ? जिस महाराजा हरि सिंह के हस्ताक्षर से जम्मू कश्मीर रियासत ने देश की संघीय लोकतांत्रिक सांविधानिक व्यवस्था को स्वीकार किया, बाद में उस्तादों ने उन्हीं को कटघरे में खड़ा कर दिया और खघ्ुद न्यायाधीश के आसन पर जा बिराजे। दुर्भाग्य से महाराजा हरि सिंह के बारे में अभी तक जो कहा सुना जा रहा है, वह इन्हीं न्यायाधीशों द्वारा न्याय के तमाम सिद्धान्तों को ताक पर रखते हुये, जारी फतवे मात्र हैं। सीनाजोरी यह कि उन्हीं फतवों को इतिहास मानने का आग्रह किया जा रहा है। 
इतिहास ने जितना अन्याय जम्मू कश्मीर के अंतिम महाराजा हरि सिंह के साथ किया उतना शायद किसी अन्य के साथ न किया हो। जम्मू कश्मीर रियासत का विलय देश की नई प्रशासनिक व्यवस्था में अंग्रेजों के चले जाने के लगभग दो महीने बाद 26 अक्तूबर 1947 को हुआ। वह भी तब जब  रियासत पर कबायलियों के रुप में पाकिस्तानी सेना ने आक्रमण कर दिया और उसके काफी हिस्से पर कब्जा कर लिया । महाराजा ने तब विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये । बाद में इतिहास में यही प्रचारित किया गया कि महाराजा हरि सिंह भारत में शामिल होने के इच्छुक ही नहीं थे और जम्मू कश्मीर को आजाद देश बनाना चाहते थे। इसे भारतीय इतिहास की त्रासदी ही कहा जायेगा कि महाराजा ने भी कभी जनता के सामने अपना पक्ष रखने की कोशिश नहीं की। शेख अब्दुल्ला ने बाद में अपनी आत्मकथा आतिश-ए-चिनार के माध्यम से महाराजा पर और ज्यादा दोषारोपण किया। महाराजा हरि सिंह के पुत्र डा० कर्ण सिंह अवश्य अपने पिता का पक्ष देश के सामने रख सकते थे लेकिन उससे पंडित जवाहर लाल नेहरु के नाराज होने का खघ्तरा था जिससे उनकी भविष्य की राजनीति गड़बड़ा सकती थी । वैसे भी कर्ण सिंह संकट काल में अपने पिता का साथ छोड़कर नेहरु के साथ हो लिये थे क्योंकि उनके पिता हरि सिंह अब भूतकाल थे और नेहरु भविष्य। कर्ण सिंह अपने पिता को सामन्ती परम्परा की खुरचन बताते हैं और स्वयं को लोकतांत्रिक व्यवस्था का अनुयायी । अपने इसी लोकतांत्रिक प्रेम को वे हरि सिंह का साथ छोड़ देने का मुख्य कारण बताते हैं। लेकिन ताज्जुब है उसी सामन्ती परम्परा के प्रसाद के रुप में वे सालों साल सदरे रियासत और राज्यपाल का पद भोगते रहे। 
इसमें अब कोई शक नहीं कि ब्रिटेन सरकार हर हालत में जम्मू कश्मीर रियासत पाकिस्तान को देना चाहती थी । लेकिन उनके दुर्भाग्य से भारत स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ के माध्यम से वे केवल ब्रिटिश भारत का विभाजन कर सकती थी, भारतीय रियासतों का नहीं। महाराजा हरि सिंह पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिये। दबाव डालने के लिय े लार्ड माँऊटबेटन १५ अगस्त से दो मास पहले श्रीनगर भी गये थे। महाराजा पाकिस्तान में शामिल होने लिये तैयार नहीं थे और अंतिम दिन तो उन्होंने दबाव से बचने के लिये माँऊंटबेटन से मिलने से ही इन्कार कर दिया था । महाराजा कहीं रियासत को भारत में न मिला दे,इसको रोकने के लिये ब्रिटेन ने पंद्रह अगस्त तक भारत और पाक की सीमा ही घोषित नहीं की और अस्थाई तौर पर गुरदासपुर जिला पाकिस्तान की सीमा में घोषित कर दिया।  इस तकनीक के बहाने महाराजा पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिये परोक्ष दबाव ही डाला जा रहा था, लेकिन वे इस दबाव में नहीं आये। उन्होंने कहा किश्तवाड को हिमाचल प्रदेश के चम्बा से जोड़ने वाली सड़क बना ली जायेगी।  लेकिन सीमा आयोग की रपट को लार्ड  माँऊटबेटन आखिर बहुत देर तक तो दबा नहीं सकते थे। जब सीमा आयोग की रपट आई तो शकरगढ़ तहसील को छोडंकर सारा गुरदासपुर जिला भारत में था और इस प्रकार जम्मू कश्मीर रियासत सड़क मार्ग से पंजाब से जुड़ती थी। हरि सिंह एक ओर से निश्चिंत हो गये। इस पृष्ठभूमि में इस प्रश्न पर विचार करना आसान होगा कि महाराजा ने रियासत को भारत में शामिल करने में इतनी देर क्यों की? इस मरहले पर नेहरू और शेख अब्दुल्ला की भूमिका सामने आती है। ब्रिटिशकाल में रियासतों में काँग्रेस ने अपनी शाखायें नहीं खोली थीं जबकि मुस्लिम लीग की शाखा प्राय प्रत्येक रियासत में थी। रियासतों में राजाओं के अत्याचारी शासन के खिलाफ लोगों ने प्रजा मंडल के नाम से संगठन बनाये हुये थे जिनका संघर्ष का शानदार इतिहास है। मुस्लिम सांप्रदायिकता की केन्द्रस्थली अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर में प्रजा मंडल के नाम से नहीं बल्कि मुस्लिम कान्फ्रेंस के नाम से आन्दोलन शुरू किया लेकिन वह राजाशाही के खिलाफ न होकर डोगरों के खिलाफ था। शेख अब्दुल्ला का नारा राजाशाही का नाश नहीं था बल्कि डोगरो कश्मीर छोड़ो था। मतलब साफ था कि डोगरों का राज कश्मीर से समाप्त होना चाहिये, राज्य के अन्य संभागों में रहता है तो शेख को कोई एतराज नहीं था। वैसे तो अब्दुल्ला चाहते तो मुस्लिम लीग ही बना सकते थे लेकिन मुस्लिम नेतृत्व को लेकर अब्दुल्ला और जिन्ना में जिस कदर टकराव था उसमें यह संभव ही नहीं था। जिन्ना अपने आप को पूरे दक्षिण एशिया के मुस्लमानों का नेता मानने लगे थे। उनकी नजर में शेख अब्दुल्लाल की हैसियत स्थानीय नेता से ज्यादा नहीं थी, फिर ब्रिटिश सरकार भी जिन्ना के पक्ष में ही थी। उधर अब्दुल्ला भी दोयम दर्जा स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। लेकिन शेख अब्दुल्ला को डोगरों के खिलाफ अपनी इस लड़ाई में किसी न किसी की सहायता तो चाहिये ही थी। जिन्ना के कट्टर विरोधी जवाहर लाल नेहरू से ज्यादा उपयोगी भला इस मामले में और कौन हो सकता था? लेकिन उसके लिये जरूरी था कि अब्दुल्ला पंथ निरपेक्ष और समाजवादी प्रगतिवादी शक्ल में नजर आते। 
इस मौके पर साम्यवादी तत्वों की अब्दुल्ला के साथ संवाद रचना महत्वपूर्ण है। साम्यवादी नहीं चाहते थे कि रियासत का भारत में विलय हो। रियासत की सीमा रूस और चीन के साथ लगती है और साम्यवादी पार्टी चीन के साथ मिल कर ही उन दिनों भारत में सशस्त्र क्रांति के सपने देख रही थी। उनकी दृष्टि में इस क्रांति की शुरूआत कश्मीर से ही हो सकती थी। इसके लिये जरूरी था या तो कश्मीर आजाद रहता या शेख अब्दुल्ला के कब्जे में। तभी साम्यवादियों का क्रांति का सपना पूरा हो सकता था। शेख अब्दुल्ला और साम्यवादियों ने इस प्रकार एक दूसरे का प्रयोग अपने अपने हित के लिये करना शुरू किया। शेख अब्दुल्ला को तो इसका तुरन्त लाभ हुया। नेहरू की दृष्टि में अब्दुल्ला समाजवादी बन गये जबकि श्रीनगर की मस्जिद में वे िहन्दुओं के खिलाफ पहले की तरह ही जहर उगलते थे। 
अब पंडित नेहरू रियासत का विलय हिन्दोस्तान में इसी शर्त पर को तैयार थे कि विलय से पहले महाराजा हरिसिंह सत्ता अब्दुला को सौंप दें। ऐसा और किसी भी रियासत में नहीं हुआ था। शेख इतनी बडी रियासत में केवल कश्मीर घाटी में भी कश्मीरी भाषा बोलने वाले केवल सुन्नी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते थे। बिना किसी चुनाव या लोकतांत्रिक पद्धति से शेख को सत्ता सौंप देने का अर्थ लोगों की इच्छा के विपरीत एक नई तानाशाही स्थापित करना ही था । नेहरु विलय की बात हरि सिंह की सरकार करने के लिये तैयार ही नहीं थे। विलय पर निर्णय लेने के लिये वे केवल शेख को सक्षम मानते थे, जबकि वैधानिक व लोकतांत्रिक दोनों    दृष्टियों से यह गलत था। महाराजा इस शर्त को मानने के लिये किसी भी तरह तैयार नहीं थे। नेहरू का दुराग्रह इस सीमा तक बढ़ा कि उन्होंने अब्दुल्ला की खातिर कश्मीर को भी दाँव पर लगा दिया। इतना ही नहीं जब पाकिस्तान ने रियासत पर हमला ही कर दिया और उसका काफी भूभाग जीत लिया तब भी पंडित नेहरू रियासत का विलय भारत में स्वीकारने और सेना को भेजने के लिये इसी शर्त पर राजी हुये कि सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंपी जाये। यही कारण था कि महाराजा को विलय पत्र के साथ अलग से यह भी लिख कर देना पड़ा कि अब्दुल्ला को आपातकालीन प्रशासक बनाया जा रहा है।  एक बार हाथ में सत्ता आ जाने के बाद उसने  क्या क्या नाच नचाये, यह इतिहास सभी जानते हैं। अब्दुल्ला ने नेहरू के साथ मिल कर महाराजा हरि सिंह को रियासत से ही निष्कासित करवा दिया और मुम्बई में गुमनामी के अन्धेरे में ही उनकी मृत्यु हुई। 
महाराजा हरि सिंह एक साथ तीन तीन मोर्चों पर अकेले लड रहे थे। पहला मोर्चा भारत के गवर्नर जनरल और ब्रिटिश सरकार का था जो उन पर हर तरह से दबाव ही नहीं बल्कि धमका भी रहा था कि रियासत को पाकिस्तान में शामिल करो। दूसरा मोर्चा पाकिस्तान सरकार का था जो रियासत को पाकिस्तान में शामिल करवाने के लिये महाराजा को बराबर धमका रही थी और जिन्ना २६ अक्तूबर १९४७ को ईद श्रीनगर में मनाने की तैयारियों में जुटे हुये थे। तीसरा मोर्चा जवाहर लाल नेहरु और उनके साथियों का था जो रियासत के भारत में विलय को तब तक रोके हुये थे, जब तक महाराजा शेख के पक्ष में गद्दी छोड़ नहीं देते। नेहरु ने तो यहाँ तक कहा कि यदि पाकिस्तान श्रीनगर पर भी कब्जा कर लेता है तो भी बाद में हम उसको छुड़ा लेंगे, लेकिन जब तक महाराजा शेख की ताजपोशी नहीं कर देते तब तक रियासत का भारत में विलय नहीं हो सकता। इसे त्रासदी ही कहा जायेगा, जब महाराजा अकेले इन तीन तीन मोर्चों पर लड रहे थे तो उनका अपना बेटा, जिसे वे सदा टाईगर कहते थे, उन्हें छोड़ कर नेहरु के मोर्चे में शामिल हो गया। 
महाराजा हरि सिंह ने माँऊटबेटन के प्रयासों को असफल करते हुये रियासत को भारत में मिलाने के लिये जो संघर्ष किया उसे इतिहास में से मिटाने का प्रयास हो रहा है । यदि नेहरु इस जिद पर न अडे रहते कि विलय से पूर्व सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंपी जाये, तो रियासत का विलय भारत में १५ अगस्त १९४७ से पहले ही हो जाता और राज्य का इतिहास दूसरी तरह लिखा जाता। बाद में किसी ने ठीक ही टिप्पणी की कि महाराजा हरि सिंह ने तो पूरे का पूरा राज्य दिया था, लेकिन नेहरु ने उतना ही रखा जितना शेख अब्दुल्ला को चाहिये था, बाकी उन्होंने पाकिस्तान के पास ही रहने दिया। 
माऊंटबेटन और उसकी जीवनी लेखकों ने तो कभी इस बात को नहीं छिपाया कि उनकी रुचि रियासत को पाकिस्तान में मिलाने की थी। लेकिन नेहरु और उनके जीवनीकारों ने सदा ही रियासत के मामले में की गई अपनी गल्तियों को महाराजा हरि सिंह के मत्थे मढ़ने के सफल प्रयास किये। इसे हरि सिंह के ह्रदय की विशालता ही कहना होगा कि वे मुम्बई में चुपचाप अपमान के इस विष को पीते रहे लेकिन उन्होंने अन्तिम श्वास तक अपना मुँह नहीं खोला। शेख मुहम्मद अब्दुल्ला की तरह किसी एम.के.टेंग को पास बिठा कर अपनी जीवनी भी नहीं लिखाई। मुम्बई में टेंगों की कमी तो नहीं थी । लेकिन यदि हरि सिंह किसी टेंग को पास बिठा लेते तो यकीनन नेहरु इतिहास के कटघरे में खड़े होते। नेहरु को कटघरे में खड़ा करने की बजाय हरि सिंह ने खघ्ुद उस कटघरे में खड़ा होना स्वीकार कर लिया। मुझे लगता है अब समय आ गया है कि महाराजा हरि सिंह को सलाह से उतार कर, इतिहास में उन्हें उनका सम्मानजनक स्थान दिया जाये।